शुक्रवार, 29 नवंबर 2013



 *क्या चुनाव के बाद दिल्ली में राजनीती की नई समीकरण बनने का आसार हैं ?*

शीला दिक्षित,  मनिया मुख्यमंत्री साहिबा  ने संकेत दिए हैं कि यदि पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के आसार में AAP का सहयोग लिया जा सकता हैं ताकि चौथी बार दिल्ली में अपनी सरकार बना सके।  बिना आग के धुँआ उठता  नहीं, कयास यह लगाया जा रहा हैं AAP और कांग्रेस दोनों अकेले दम पर सरकार नहीं बनाने जा रहे हैं इसलिए परदे के पीछे एक दूसरे के सम्पर्क में हैं,  क्यूंकि यही तो राजनीती हैं।  चुनाव से पहले  एक दूसरे के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं, एक दूसरे को देखना पसंद नहीं करते पर  चुनाव के बाद उन्हीके साथ मिलकर सरकार बनाते हैं। बहुत ऐसी पार्टिया हैं खुलेआम एक दूसरे के विरोधी हैं पर सरकार में साझेदारी, आज राजनीती बाकय अपने सबसे निचलेस्तर पर हैं।
कभी कभी जाने -अनजाने में नेता इसका बयां भी कर देते हैं  उदहारस्वरूप, नरेश अग्रवाल  हो या वीरेंदर सिंह इनके मुखारविन्दु से हाल में जो व्यक्तव्य जनता के समक्ष उद्घोषित हुए उनसे यही अंदाजा लगाया जा सकते हैं कि राजनीती इससे निचले पायदान पर शायद  कभी नहीं थी। पार्टिया हो या नेता आज किसीको भी अपना कोई मैनिफेस्टो नहीं हैं और ना ही कोई विज़न ब्लिक जनता के मूड को देखकर वे चुनावी उद्घोषणा करते रहते हैं इसकी भी कोई गारंटी नहीं हैं चुनावी उद्घोषणा पर अम्ल करेंगे चुनाव के पश्चात अथवा नही।परन्तु नेता भली- भांति जान  चुके हैं कि जनता के पास विकल्प सिमित हैं इस बार नहीं तो अगली बार नंबर लगना तय हैं। कांग्रेस पार्टी  के लिए कोई भी अछूत नहीं अगर सरकार बनाने या बनबाने की  बात हो। बिहार की नितीश सरकार हो या  UP में मुलायम की  पिछली सरकार दोनों के बनबाने में कांग्रेस ने अहम् योगदान दी थी बदले में मुलायम का सपोर्ट केंद्र में लेने को  थोड़ी भी हिचकिचाहट नहीं।  वस्तुतः हैरान करने वाली बात यह हैं कि राजनीती में कभी- कभार ही  कुछ इस तरह देखने को मिलता  हैं कि राज्य की  विपछ और प्रतिपछ दोनों एक साथ केंद्र सरकार को सपोर्ट कर रहे  हो  और उन्ही के दम ख़म पर सरकार चल रही हो।  इसलिए दिल्ली में  शीला दिक्षित के इशारे को और उनकी चुप्पी  को  सिरे से ख़ारिज नहीं किये जा सकते हालाँकि बाद में शीला दिक्षित ने इस  बयान को सिरे ख़ारिज करदी हैं  यह कहकर कि उन्होंने इस तरह का कोई बयान नहीं दी थी। देश  की राजनीती का जो दिशा और दशा हैं उसमें किसी भी सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता हैं। 

गुरुवार, 28 नवंबर 2013


 *हम तो चाहते हैं एक ऐसी सरकार, हँ एक ऐसी सरकार……*
कीचड़ से कमल खिले या पंजा और हो मजबूत
जंहा कल थे, जंहा आज हूँ वंही कल भी रहूँगा
दूषित पानी हलको कि प्यास बुझायेगा,
वही दूषित हवा मेरी सांसो को ठामे रखेगी
अँधेरे से अब डरता नहीं क्यूँ कि जीना सीख लिया
अब रोशनी की चाह में कई रात गुजरते अखियों में दिख लिया
यूँ गद्ढे गिनते हुए सड़के ओझल होते जायंगे
नियमता के नाम पर गिलयों में अनियमता पाएंगे
मंहगाई, भ्रष्टाचार से लड़ते नाजाने कितने दम तोड़ जायंगे
अपने हित को साधने फिर से कोई  अधूरी क्रांति बीच में छोड़ जायेंगे
फिर भी, एक युग पुरुष कि तालाश में विस्वास हैं अटूट 
दल-दल से उठाकर  जो पंजा के बदले वाजु को करंगे मजबूत
६० बर्ष के सपने अपने जो करने आएंगे साकार
हम तो चाहते हैं एक ऐसी सरकार, हँ एक ऐसी सरकार……

बुधवार, 27 नवंबर 2013



मेरी दादी कहती थी उन्होंने १९८९ से पहले कभी बूथ पर नहीं गई थी वोट गिराने क्यूंकि गाम के गणमान्य कांग्रेसी समर्थक थे जो पुरे बैलेट छाप लेते थे

मंगलवार, 26 नवंबर 2013


*क्या होगा AAP का ?*

 AAP  ने जिस तरह  से अपने को पेश किया, बांके ! लोगो को अपने नेताओ के प्रति जो भी थोडा बहुत विश्वाश था उनका भी आघात हुआ हैं, इन्होने जितना भी दावा किया था सारे के सारे ढरे रह गए। लोगो को इनके प्रति जो रुझान थे वे भी अब नहीं देखे जा सकते हैं। लोगो का जो धारणा ( कथन) को भी सार्थक किये कि राजनीती एक ऐसा  पेशा हैं जिसमे अच्छे लोग नहीं जा सकते और जायेंगे भी तो अच्छे बन कर रह नहीं सकते। अरविन्द केजरीवाल शुरू से ही  काफी महत्तवाकांक्षी दिखते थे उन्होंने एक प्लान कि तरह अपनी सामाजिक कार्य का पूरा उपयोग किया, सोशल वर्क के बहाने उन्होंने अपनी राजनीती पृष्ठभूमि को तैयार किया फलस्वरूप अन्ना का जो आंदोलन को अपनी इर्द गिर्द ही समेत कर रखा और कुछ और महत्तवाकांक्षी व्यक्ति को प्रेरित करके  जो उनके राजनीती के अखाड़े में उनके साथ हो जैसे ही उनको अहसास हुआ कि उपयुक्त समयअ गया हैं अपनी आंकाक्षा को अंजाम तक पहुचाने को, जरा  भी अबिलम्ब किये बिना अपनी पार्टी कि नीव रख दी। इसी कारन बहुत से ऐसे लोग थे जो जनलोक पाल आंदोलन को मोरल और कंसेप्टुचल सपोर्ट कर रहे थे विस्मित हो गए क्यूंकि उनलोगो को आभाष हो गया था कि इनका जनलोक पाल आंदोलन के पीछे मैंन मोतिव क्या हैं? और अन्तः वे लोग इनसे कटते गए। कुछ लोग जनलोक पाल आंदोलन कि ख़ात्मा का दोषी भी अरविन्द केजरीवाल को मानते हैं, जिसे नक्कारा नहीं जा सकते है। इन अवांक्षित घटनाक्रम के बाबजूद एक जन समूह विशेष AAP  से उम्मीद कर रहे थे कि जो आज के जो राजनीती हालात हैं उसमे शायद ये संजीवनी का काम कर जाये और इमनदार और कर्मठ लोगो को राजनीती में भागीदारी का मोका मिले  इसलिए लोगो ने तन, मन, धन से इन लोगो का सपोर्ट किया। AAP का जो हर्ष हुआ है इनसे वे लोग ही हतोत्शाहित हुए हैं जो कि AAP के लिए अच्छी ख़बर नहीं क्यूंकि वे लोग थे जो  AAP पार्टी का आगे का रास्ता परस्त करने वाले थे पर वे भी अपने को थीड़े -थीड़े अलग कर रहे हैं।
ये तो AAP की  अतीत हैं, लेकिन इनकी  भविष्य दिल्ली के चुनाव पर ही निर्भर हैं यदि इस चुनाव में  वे दहाई का आकड़ा नहीं छूटे हैं तो  AAP की उदय से पहले ही अस्त हो जायेगी और एक छोटीसी क्षेत्रीय पार्टी बन कर रह जायेगी जिसका वजूद ढूढने पर भी नहीं मिलेगा। इनका एजेंडा भी इसी ओर इशारा कर रहा हैं कि पार्टी के कर्णधार को पहले से ही ज्ञात था कि वे जीतने  नहीं जा रहे हैं इसी कारन तो उन्होंने जनलोक पाल विधेयक अपने एजेंडा के प्रथम पंक्ति में जगह दिया अन्यथा यह तो सबको पता हैं कि इस तरह का कानून लाने  का अधिकार प्रधानमंत्री और सदन का होता हैं नि कि राज्य  सरकार कि। सबसे बड़ी वजह है कि पढ़े लिखे तबके इनलोगो को भाव देना ही बंद कर दिया और अवगत हो गए हैं कि क्या हैं AAP का मनसा?  अंत में AAP और अरविन्द केजरीवाल से अनुरोध करूँगा, जनाब ख्वावी पुलाऊ पकाना  बंद कीजिये क्यूंकि देश कि जनता अब ऐसे लोगों और पार्टीयों से पहले ही त्रस्त हैं यदि आप चाहते हैं कि लोग आप पर विस्वास करे तो अपना एजेंडा और मोटिव दोनों को बदले ताकि जनता फिर से आप और आपकी पार्टी पर विस्वास करना शुरू करे।

रविवार, 24 नवंबर 2013

नोच ले मेरे हर अंग को निकल अपनी ये खीश,
पर कर बुलन्द खुदको  ताकि सह ले हर चीख,
तेरे बाजू में  ताकत हैं और तेरे सर पर ताज
पर कल क्या होगा जब हो जाओगे बेताज

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

* जरा सोचिये नेताजी*:-
आज  की राजनीति देखकर काफी विस्मय हूँ कि इतनी गन्दी क्यूँ हैं ? खैर अभी तक इसमें सक्रिय नहीं हूँ लेकिन भविष्य में शायद जाना भी पड़ा तो क्या  इस तरह के मोहाल में अपने को अछूत रख पाएंगे ये कहना मुश्किल ही नहीं नामुकिन हैं? जिस तरह तू तू, मैं मैं सब कर रहे हैं शायद शिष्ट लोगो के लिए  वंहा जगह नहीं बनती।  छे महीने में आम आदमी से खाश आदमी हो जाते हैं, और सत्ता में आने के लिए कुछ भी करने के लिए आतुर हो जाते हैं, और इन क्रिया कांड में एक भले मानुष का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं  जबकि आज के दिनों में उनसे इमानदार और कर्मनिस्ठ  शायद  पुरे ब्रह्माण्ड में ढूढनेपर भी नहीं मिलेगा।  उन भले मानुष भी इसी गन्दी राजनीति का शिकार हुए पड़े हैं, जो कभी चले थे देश को भर्ष्टाचार मुक्त करने को,  पर भर्ष्टाचारियो ने ही उनको अपना शिकार बना लिया  लेकिन ये बीते दिनों कि बात इनदिनों वे अज्ञात- वास पर हैं और खोये हुए हिम्मत को जूटा रहे हैं ताकि आनेवाले दिनों में फिर से अपनी क्रांति को हवा दे सके। इन दिनों पांच राज्य में विधानसभा का चुनाव होनेवाले हैं या हो रहे हैं नेताओ कि रैली जोर शोर पर हैं। रैलीयो  से तो कोई आपत्ति नहीं हैं पर जिस कदर नेताओ अपना आपा खो रहे हैं यह काफी चिंता का विषय हैं जो समाज में गलत मैसेज दे रही हैं।  इन अशभ्य वातावरण से समाज में काफी असमंजसता और लोगो के हृदय खिन्न हैं कि आखिर ये हो क्या रहा हैं?  पर नेतागण बेफिक्र होकर अपनी गलती सुधारने के वजाय बार बार दोहरा रहे हैं और व्यंग, कटाक्ष और टिप्प्णी सामूहिक न होकर व्यक्तिगत होने लगे हैं।  जिस तरह का मोहाल हमारे नेतागण बना रहे हैं यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि अगर देश की  जनता जिस रोज अपना आपा खो गए उस रोज आप नेता को क्या होगा ? जरा सोचिये नेताजी  ………………………!!

बुधवार, 13 नवंबर 2013


* फिक्की बात* :-
दिग्विजय सिंह जी कांग्रेस का सबसे विस्वनीय चमचा हैं, यदि  उनके अंदर में झाँका जाय तो उनके हर धडकन में कोग्रेस ही होंगे पर इनके इस तरह के हरकते जो इन दिनों काफी सुर्खिया बोटोर रहे हैं इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता हैं उनकी वफ़दारी वाजिब हैं जो आदमी क्लर्क बनने के लायक नहीं थे उन्हें कांग्रेस के रहमो करम पर मध्य प्रदेश राज्य का मुक्यमंत्री बना दिया जाता हैं इसी कृतिज्ञ के लिए हमेशा कोंगेस के सुप्रीमो को जी हुजूर करते रहते हैं और समय -समय पर अपनी फुहर बयानो के जरिये भी मीडिया हो या सोशल नेटवर्किंग अपनी उपसिथिति दर्ज करवाते रहते हैं।  लेकिन उनके सत्संग में किसी का नकुसान अगर हुआ तो वह है कांग्रेस के उपाध्यक्ष  राहुल गांधी। इस कतई झुठलाया नहीं जा सकता हैं कि जबसे दिग्विजय सिंह जी को राहुल जी ने अपने खेमे में शामिल किया तभीसे उनके भाषा और आचरण में काफी बदलाब आया हैं जिनको कभी भी शभ्य लोग स्वीकार नहीं सकते ।  अन्तः राहुल जी से अनुरोध करूँगा कि कृप्या अच्छे लोगो कि कमी नहीं हैं उनके  सत्संग में जाये ताकि अच्छे गुणो को प्राप्त करेगे जो आपके लिए और देश के लिए हितकर होगा। ध्यनबाद !!!!

सोमवार, 11 नवंबर 2013


 जरा सोचिये:-
इस देश में अपने राजनितिक  हित साधने के लिए राजनेता  कोई भी हद पार  कर सकते हैं, कल तक लोग AAP  से काफी उम्मीद कर रहे थे पर श्री अरविन्द केजरीवाल जैसे ही तौफ़ीक़ रजा  साहेब से बरेली में मुलाकात किया सबके उम्मीदो पर पानी फिर गया।  शायद इनका अहसास केजरीवाल साहेब को भी होगा चुनाव के बाद क्यूंकि उनके सारी दावे धरे के धरे रह जांयगे और जो भी सर्वे का रुझान आज उन्होंने दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी होने का तगमा दे रहा  हो पर यह यथार्थ होना अभी बाकि हैं। तोफिक रजा ऐसा शख्श हैं  जिन्होंने समय -समय पर अपने   बयान और हरकतें  से सामाजिक सदभाव बिगारने का कोशिश किये हैं पर चाहे कांग्रेस हो या सपा इनको उनसे थोड़ी भी परहेज नहीं  हैं और अब केजरीवाल साहेब भी उन्ही के पगडण्डी पर चल परे, जो उनके  सभी दावों को झुठलता हैं, और उनकि पार्टी  को भी इन्ही पार्टी के कतार में लाकर खड़ा कर देता हैं। जरा सोचिये कि चाहे कितना भी ईमानदार व्यक्ति क्यों ना हो पर जैसे ही राजनीती में सक्रिय होता हैं वे अपने सभी उसूळो से समझोता करना शुरू कर देता हैं और समय के साथ वे भी उसी रंग में रंग  जाते हैं जिस रंग में तमाम राजनितिक पार्टी के लोग रंगे हैं.………………………!!!

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013


 जरा सोचिये :-
हिंदुस्तान में कोई भी पार्टी धर्म निरपेक्षता का दावा नहीं कर सकती है। JDU, SP, BSP, NCP, TDP और कोई भी नहीं क्यूंकि धर्म निरपेक्षता का मतलब होता हैं सभी धर्मो के साथ बराबर का व्यवहार करना ना कि अपने हित को साधने के खातिर किसी एक धर्मं को प्राथिमिकता देना। हिंदुस्तान में अनेको धर्मं हैं जैसे कि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, जैनी, बोधि और अन्य पर इस देश में सक्रिय राजनीती पार्टी सिर्फ एक ही धर्म के प्रति सहानभूति दिखाकर अपने को धर्म निरपेक्षता पार्टी के पंक्ति में ला कर खरा कर लेती हैं जो कतई उचित नहीं कहा जा सकता हैं। बड़ी तादाद में  राजनीती पार्टी हैं जिसमे सभी धर्म के प्रतिनिधि भी नहीं हैं फिर भी अपने को  धर्म निरपेक्षता पार्टी कहने में थोड़ी भी हिचकते नहीं हैं। इन पार्टी के नुमायदो ने धर्म निरपेक्षता का परिभाषा ही बदल दी। आज धर्म निरपेक्षता का मतलब हैं कि जोर सोर इसका इस्तेमाल करो और वोट बोटरों  अन्यथा अब इसका कोई मायने नहीं रह गया।  जो सरकार अल्प्शंख्यक के नाम पर रिजर्वेशन कि बात करते हैं क्या उनके पास उन अल्प्शंख्यक का ब्यौरा हैं जो सबसे नीचले कतार में हैं, कभी उनके हित में कुछ कहते हुए नहीं सुना गया क्यूंकि कि उनके जनशंख्या इतना नहीं हैं कि सरकार गिराने और बनाने का मादा रखता हो इसलिए उनके शूध लेने को किसी भी  राजनीती पार्टी के पास वक्त नहीं हैं।  देश में जिस तरह दो समुदायो के बीच में तकराव कि स्थिति बनी पड़ी है इसकेलिए राजनीती पार्टी कम जिम्मेवार नहीं हैं और अपनी वोट कि राजनीती के लिए समुदायो के बीच में तकराव का राजनीतिकरण करनी  और अपने पक्ष में इसका  इस्तेमाल करना बखूवी जानते हैं  इसलिए तो रोकने के बजाय  इसको हवा देते  पाये जायंगे पर इसकेलिए भोले भाले जनता भी उतना ही जिम्मेवार हैं जितनी  राजनीती पार्टी जिम्मेवारहैं क्यूंकि उनके बिछाये हुए जाल में अपने को फास लेते हैं। क्या हम, जनता इस तरह के पार्टी का वहिष्कार नहीं करना चाहिए,  जरा सोचिये , कि कब तक राजनीती पार्टी धर्म निरपेक्षता के नाम पर अपनी हित साधती रहेगी और कब तक उनके इन बातो में  हमलोग आते रहंगे, आखिर कब तक ?………………

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

 फिक्की सलाह:-
कपिल सिब्बल साब ने जब यह वाक्य अपने मुखबिन्दु से निकला तो आश्चर्य तो नहीं हुआ पर हसी जरुर आई क्यूंकि एक ऐसे शख्स जो भर्ष्टाचार कई मामले में अपने आप को संलिप्त  पाकर भी सच कि दुकान खोले हुए हैं। जनाब, यदि इस तरह कि बात कहंगे तो जग हसाय ही होगा, हँ!, लेकिन थोडी बहुत मीडिया का कवरेज जरुर मिलेगा जो आपका बचा -कूचा इमेज भी खराब कर देगा जिस कारन आपका हरष बिल्कुल दिग्विजय सिंह जैसा हो जायेगा जो बोलते बहुत पर सुनते कोई भी नहीं और यदि भूल-चुक में कोई सुन भी लिया दूसरे कान से निकाल देते हैं,  तज्जुब के नाम पर ठेंगा ही मिलते हैं । अन्तः हमारी आग्रह पर जरुर गौड़ करके भविष्य कुछ बोलने से पहले अपने गिरबान में जरुर झाकें ताकि जग हसाय से बचे। ध्यनबाद !!!

 जरा सोचिये :-
यूँ तो पुरे सिस्टेम ही निष्क्रिय हो चुके हैं पर जब रेलवे कि बात होगी तो सबसे दैनीय दौड़ से गुजर रही इस सरकार ने  अभी तक ५ बार रेलवे मंत्री को बदल चुकी  हैं अनेको बार यात्री किराया हो या माल भारा हो बढ़ाये गए हैं फिर भी रेलवे कि हालत तस से मस नहीं हुआ। UPA सरकार ने इसका सबसे ज्यादा राजनीती इस्तेमाल किया हैं जो ना रेलवे के लिए सकारात्मक रहा और ना पब्लिक के लिए। आखिर सरकार ये तो तय करनी ही होगी कि रेलवे का मुख्य उद्देश्य क्या है ? अगर सेवा ही उद्देश्य हैं तो बेइन्तहा किराये बढ़ाना कहाँ तक उचित हैं, अगर मुनाफा कमाने का उद्देश्य हैं तो क्यूँ  ना इसे प्राइवेट करदिया जाता ताकि इसकी सेवाका कि क्वालिटी और एक्यूरेसी दोनों में काफी सुधार होगी। आखिरी में ये जरुर कहूंगा कि सरकार दोनों में से किसी एक उद्देश्य को चुनकर उस पर फोकस करे तो शायद यही पब्लिक के हित में होगी। जरा सोचिये आखिर क्यूँ ?,