शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

"काश एक मोदी हमें मिलता!"


यदि राजनीती गलियारो में किसी भी शख्श की चर्चा जोरो पर हैं तो वह हैं मोदी वाकये इन दिनों अगर मोदी के सितारें बुलंदी पर है अगर ये कोई कंपनी होती तो इनके शेयर कोल इंडिया हो अथवा कोई भी नवरत्न कंपनी के मुक़ाबले चार गुनी होती। राजनीती पृष्ठ भूमि पर चमत्कार तो कई बार देखे गए है पर इस बार का चमत्कार अपने आप में अन्य चमत्कारों से कई मामलो में भिन्न हैं क्यूंकि चमत्कार सिर्फ और सिर्फ एक ही शख्श के इर्द -गिर्द सिमटी है जबकि राजनीती के गलियारों में मोहरे से लेकर राजा तक अपनी वजूद को न ही ढूँढ पा रहे है और न ही समझ पा रहे है आखिर हो क्या रहा है? कोई तो ये कहता है कि बक्वास है, कोई कहता है कि इस तरह का अफवाह फैलायी जा रही है, जो प्रायोजित है, इसलिए तो देश के सभी पार्टी और तमाम नेता एक शख्शियत के सामने बोने साबित हो रहे है नतीजन देश के अधाधिक पार्टीयाँ अपनी सिद्धांत और अपने विचारधारा को तिलाँजलि देकर एक चक्रव्यूह बनाने के प्रयन्त कर रहे है अन्यथा वामदलों के साथ एक मंच पर त्रिमूल कांग्रेस को दिखने का आसार किसी भी विषम परिस्थिति में कतई मुनासिब नहीं है फिर भी जो चहल पहल वर्त्तमान परिवेश में देखे जा रहे है इनसे तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि फिलहाल किसी को भी किसी से परहेज़ नहीं है  ब्लिक किसी तरह से मोदी को रोकना है। फलस्वरूप समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज वादी भी एक ही खेमे में नज़र आ सकते हैं यदि सबकुछ अनुकूल रहा तो AIADMK और DMK भी एक ही गठबंधन के सूत्रधार होंगे। आखिर इस तरह के कवायद का क्या मतलब है?  जँहा सत्तारूढ़  पार्टी  लाखो यत्न व प्रयत्न  के वाबजूद अपनी अंकगणित को मजबूत नहीं कर कर पा रही है, हालाँकि प्रचार - प्रशार जोर- शोर से तो किये जा रहे पर अभी तक का सर्वे से तो यही दीखता हैं बेशक़ कुछ भी करले पर ज्यादा फायदा होना मुमकिन नहीं है। दरशल में आगामी चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के परिणाम के मद्दे नज़र जँहा कुछ पार्टियाँ गठबंधन के नए विकल्प को तालाश रहे है वही कुछ पार्टियाँ सहूलियत के आभाव में सुगबुहाट से तो परहेज़ कर रहे है पर बीच -बीच में सत्तारूढ़ पार्टी को आईना से रुबरु करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ पार्टी कुछ इस तरह के फैसला करे जो जनता के हित से जुड़े हो और इसके बलबुत्ते आगामी आम चुनाव में अपनी साख को बचा पाये।

तीसरे मोर्चा हो व वर्त्तमान के सत्तारूढ़ मोर्चा हो पर किसी की भी समीकरण सटीक बैठने का गुंजाइश के आभाव में ये बात जरुर जहन में आती होगी कि मुझे भी एक और मोदी मिलता जो इस मोदी को टक्कर देता। आखिर  ऐसा क्या मोदी ने कर दिया कि पुरे देश में इनके लोकप्रियता का ग्राफ दिन-ब-दिन शिखर पर चढ़ रहे है?  न मोदी ने कुछ इस तरह का उत्कृष्ट काम ही कर दिया जो औरो के सामर्थ्य के बाहर हो और न ही मोदी की शख्शियत औरों के शख्शियत से मेल नहीं खाते हो। यदि मोदी को दूसरे से अव्वल श्रेणी में रखते हैं तो इस श्रेय के लिए अगर उनके शख्शियत में कुछ औरो से अतिरिक्त है तो मुख्यतः दो बातें जो आज के दौड़ के किसी भी नेता में प्रायः नहीं दिख रहे है वे हैं एक तो कठोर निर्यण लेने की  दमखम  व इच्छाशक्ति और दूसरा देश के प्रति समर्पण यही अहम् और महत्वपूर्ण कारण है कि उनके खुदकी जरुरत औरो के मुक़ाबले थोड़ी-सी है जितना कि एक आम आदमी का होता है अन्यथा इनदिनों नेताजी पहले तो सुख -सुविधाओं से परहेज़ रखते हैं और खुदको आम कहते पर जैसे ही चुनाव जीत जाते हैं खाश बनने में थोड़ी भी देर नहीं लगाते और एक - एक करके वे सभी सुविधाओं को अपनाने लगते है जिनसे चुनावपूर्व परहेज रखने की बात किये करते थे।


इसलिए तो सभी नेताऒ खुदको  को आम आदमी का शुभ चिंतक तो जरुर कह सकते है पर वास्तविक में वे आम आदमी कभी नहीं हो सकते क्यूंकि आम आदमी की जिंदगी कभी जीकर नहीं आये ब्लिक सुनकर या पढ़कर आम आदमी  के बारे में व जानने और कहने मात्र से कोई आम आदमी का हितेषी नहीं हो सकता  इसके लिए आम आदमी के बीच में रहकर उनके रोजमर्रा के तकलीफ को समझाना होगा। यदि मोदी के अतीत को खंगाले तो शायद इनसे आम नेता आज बहुत ही कम होंगे जो मोदी के पक्ष को और पुख्ता करता हैं क्यूंकि इनदिनों आम आदमी का मुद्दा सबसे ऊपर है। वही किसी दल के पास मोदी जैसे कठोर निर्यण लेने का इच्छा शक्ति रखने वाले नेता की भी कमी है।

एक तबके के लोग केजरीवाल को पसंद करते हैं पर उनके निर्यण लेने की क्षमता पर असंका बरकरार हैं वेसे भी दिल्ली के सरकार से इस्तीफा देने के बाद तो लोगों में उनके प्रति जो पहले के रूझान थे और हाल के रुझान  के बीच अचानक गहरी खाई  मापी जा सकती है जबकि दिल्ली के जनता  इनसे इत्तेफ़ाक़ रखते हो या नहीं रखते हो पर पुरे देश में २-४ प्रतिशत लोग ही केजरीवाल को प्रधानमंत्री के रूप देखना चाहते हैं जबकि ज्यादातर लोगो इनके काम काज के तरीके से हैरत में है।

राहुल गांधी को यदि विकल्प के रूप में देखे तो शायद उनके अंदर भी कठोर निर्यण लेने की इच्छा शक्ति का आभाव होना,  जबकि भ्रष्टाचार जैसे गम्भीर मुद्दे पर कानी कातना और हामी तब भरना जब लोक इनके कारण सरकार और व्यवस्था से पूरी तरह से त्रस्त होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल रहे थे।  वाबजूद इन बातों से वह पूर्णतः अवगत थे कि तक़रीबन आधी से ज्यादा मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त है पर कारवाई के नाम पर कुछ नहीं उन्होंने तब लोकपाल कानून को मंजूरी के लिए अग्रसर दिखे जब सरकार के कुछ ही दिन बचे थे नतीजन संसदमें तो लोकपाल बिल पारित होने के उपरांत भी अभी तक कानून का रूप अख्तियार नहीं हो पाया। हालाँकि आम चुनाव के जो सूचि जारी किये गए उस सूचि में  इस तरह के उम्मीदवार को टिकट देने के हक़ में है जिन्होंने पहले ही भ्रष्टाचार में संलिप्ता के कारण पार्टी को शर्मसार कर चुके है और सरकार को भ्रष्टाचारी सरकार कि ख्याति दिल चुके है, यही वजह है कि उनके भ्रष्टाचार के प्रति जो भी सोंच हो पर आवाम उससे परे है।

यदि तीसरे मोर्चा को विकल्प मान कर जीता भी दे तो शायद सरकार तो बना लेंगे फिर भी सरकार की दीर्घायु का कोई गारंटी नहीं दे सकता क्यूंकि जितनी सरलता से तीसरे मोर्चा का गठन चुनाव से पहले होते आए है उतने ही जल्दी चुनाव बाद विखराव भी देखे गए है। अन्तः चुनाव के पश्चात भी साफ़ नहीं हो पाता है कि प्रधानमंत्री के वास्तविक उम्मीदवार कौन है ? दरशल में चुनाव के नतीजा आने के बाद पार्टी के संसद के संख्या के आधार पर प्रधानमंत्री के लिए नाम तय किये जाते हैं ऐसी परस्थिति में सक्षम प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को आगे बढ़ाना असम्भव हैं जो कि दीर्घायु सरकार कभी देने में कामयाब हुए है और कामयाब होने कोई उम्मीद भी नहीं किया जा सकता है। आखिरकार गठबंधन के अन्दुरुनी कलह के चलते साल -दो साल में सरकार गिरनी तय है जो किसी भी लोकतंत्र राष्ट  के लिए प्रतिकूल है।

 बरहाल जो जन सैलाव मोदी के रैलियों में देखे जा रहे है इनसे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में चारों तरफ मोदीमय है। यद्दिप यह देखना है कि जो जन सैलाव रैलियों में देखे जा रहे है वे वोट में तब्दील हो पाते है अथवा नहीं ये आम चुनाव के परिणाम के बाद ही साफ़ हो पायेगा,  जो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है पर मोदी के लिए भी चुनौती कम नहीं है जँहा एक तरफ अपने ही पार्टी के  आतंरिक कलह से निजात पाना है, वही दूसरी तरफ विरोधी सियाशी दल द्वारा जिस तरह का चक्रव्यूह बनाने के फ़िराक़ में हैं उसे भी भेदना काफी असहज है जिसे सुगमता से भेदा नहीं जा सकता है। मोदी को सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा देना अभी बाकि है जिसके लिए अत्यंत ही धीर और वीर का परिचय देना होगा और जिनसे खुदबखुद ये साबित हो जायेगा कि मोदी अर्जुन है या अभिमन्यु जो अपने विरोधी द्वारा बनाये जा रहे चक्रव्यूह को आसानी से तोड़ दिए हैं अथवा चक्रव्यूह में उलझकर पस्त हो गए है। 

अन्तोगतवा  आज के राजनितिक परिदृश्य में देश के समक्ष मोदी को छोड़कर कोई अन्य विकल्प दीखता नहीं जो कि दीर्घायु सरकार के साथ प्रगतिशील सरकार के लिए प्रतिबद्ध हो। यही कारण है कि देश के सभी राजनीती के दल मोदी के कात में एक मोदी के ताक में हैं और उनके जहन में इनदिनों एक ही बात आती होगी "काश एक मोदी हमें मिलता!"




"आप" भी मतलबी निकले ……

अब तो बस दिल्लीवासी को ही तय करना हैं कि आआपा के प्रति जो समर्पण था अभी भी आप के खातिर दिल में कायम है अथवा हाल में जो मौकापरस्ती आआपा के तरफ से देखीं गयी है, हो सकता हैं इस कारण से दिल्ली वासी का मियाज़ बदल गया हो। लोग जो भी कहे लेकिन आआपा में शुरू से ही अवसरवादिता झलक रही थी, यही कारण था कि आआपा अपनी साख की परवाह किये बिना न जाने अनगिनत बार अपने ही उद्घोषणा से पलटी मारते दिखे गए, नतीज़न देश के जनता जिनको देश की राजनीती को शुद्धिकरण का जिम्मेदारी सोपी थी वे ही झूठे और पलटीमार निकले। इसीका परिणाम ये हैं उनके सबसे सर्वमान्य साथी अतीत के अन्ना को भी सत्ता के हवशी  उनको कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं हुआ। अरविन्द केजरीवाल शायद पहला और एक मात्र ऐसा मुख्यमंत्री होंगे जिन्होने आम चुनाव के मद्दे नज़र दिल्ली की मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिए। परन्तु यही एक मात्र कारण नहीं था ब्लिक इन कारण के साथ और अनेको कारण थे जिनका आभाष केजरीवाल को हो चला था,  जैसे कि उनके सरकार  को अल्पमत में आना, किये गए वायदे पूरा नहीं कर पाना, उनके नेता और मंत्री के अंदर राज्यभोग की ललक विड्मान होना,  मंत्री का अपने मनमानी पर अमादा होना, बगेरह।

लेकिन चुक गए केजरीवाल कि उन्होंने जिस मुद्दा को लेकर इस्तीफा दिया वह न ही आम आदमी ही इससे इत्तेफ़ाक़ रखते है और न ही देश के संविधान ज्ञाता ही, क्यूंकि देश के संविधान नेता से और उनके नापाक सोंच से सर्वोपरि हैं अर्थात किसी को भी ये अधिकार हरगिज़ नहीं दिया जा सकता हैं कि संविधान से ऊपर जाकर अपनी सोंच को कानून के रूप में अख्तियार करवाये जबकि सोंच जनहित से ज्यादा उनके हित को पूरा करता हैं।  चाहे कांग्रेस हो या भजपा, किसी भी पार्टी के सभी लोग को न हीं भ्रष्ट कहा जा सकता और न ही ईमानदार। लेकिन जो दिल्ली सरकार व केंद्र सरकार का भ्रष्टाचार के प्रति रवैया रही और जिस कदर एक -एक  करके तक़रीबन सभी मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाये गए इससे आम लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश होना स्वाभाविक था,  और यही कारण आज पुरे देश में कांग्रेस के खिलाफ हवा चली हैं।  परिणामस्वरूप दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ चली हवा को अपने पक्ष में मोड़ने में आआपा कामयाब हो गई और इसी कामयाबी से गदगद हुए आआपा खुदको रोक नहीं पा रही है इसीलिए मौका के ताक में बेठे, जैसे ही लगा कि आम चुनाव का शंख फुकने का यही उचित समय हैं, झट से दिल्ली सरकार से इस्तीफा देकर आम चुनाव का शंख फुक दी।

 दरशल, जो सच है उससे भलीभाँति आआपा भी वाकिफ़ हैं कि इस चुनाव में लाख कोशिश के वाबजूद भी आआपा कोई चमत्कार नहीं करनेवाली हैं क्यूंकि ना हीं केंद्र में सरकार बनाने जा रही और न ही सरकार बनाने में अहम् कीड़दार ही निभा सकती हैं फिर भी इस तरह का उतावलापन क्यूँ ?,  कारण हैं कि अगर इस चुनाव में देश की राजनीती में अपनी उपस्थिति दर्ज़ नहीं करा पायी तो हो सकता है कि इसके लिए पाँच साल तक इंतज़ार करनी पड़े जिसके लिए आआपा कतई तैयार नहीं है।  लेकिन इस जल्दबाज़ी में शायद ये भूल गए कि जो पार्टी दिल्ली जैसी छोटी राज्य में उत्कृष्ट और अपेक्षाकृत सरकार देने में असक्षम रही ऐसी पार्टी को देश के जनता स्वीकारती हैं अथवा नहीं, ये आम चुनाव के बाद ही साबित हो पायेगा तब उस के आधार पर यह भी शायद लोक तय कर पायेंगे  कि अरविन्द केजरीवाल का अचानक इस तरह से इस्तीफा बलिदान के लिए समप्रित था अथवा मौका परस्ती के लिए क्यूंकि देश के ज्यादातर जनता काफी समझदार हो चुके है, मुख्यतः शहर के मतदाता जिसके ऊपर आआपा के दारोमदार हैं और उन्ही के वोट हासिल करने के लिए सब कुछ कर रहे हैं। अगर इसी तरह के इस्तीफा को देश के लोग पचा नहीं पाये तो आआपा के मनसूबे धरे रह जायेंगे और नुकसान इतने बड़े भी हो सकते हैं जिसके भरपाई करने में अर्से लगना तय है।

हालाँकि कई बुद्धजीवियों का यह भी मानना है कि प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को फायदे के लिए इस तरह का ताना-बाना बुना जा रहा है ताकि मोदी को दिल्ली के ताज़ से मेहरूम रखे और इस तरह के हथकंडे जो आआपा के द्वारा अपनाये जा रहे हैं यह किसी अप्रत्यक्ष समझोते के तरफ इशारा करते हैं।  वास्तविक में देश के जनता मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व चारों तरफ फ़ैल रही आरजकता से उब चुकी है और एक नई सरकार को दिल्ली में देखना चाहती हैं इसके लिए एक नए विकल्प को तलाश रही हैं जबकि छोटी- छोटी पार्टीयां जनता को असमंजस में रखने के लिए आतुर है और उन्ही पार्टी में से एक आआपा भी है जो बढ़- चढ़ कर अपनी भागीदारी दुरुस्त कर रही है। एक वाक्य मैं सदेव कहता आया हूँ  फिरसे उसी वाक्य को दोहरना चाहूंगा कि आखिरकार देश के जनता जनार्दन को ही तय करना है कि अपने विकल्प के रूप में किसको चिन्हित करती हैं अन्तः सियाशी दल कुछ भी करले पर … !
 

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014


लोकपाल और जनलोकपाल में जुर्माने व हर्जाने का प्रावधान करना क्या उचित हैं ?


 क्या जनलोकपाल और लोकपाल जैसे कानून लागु होने के बाद हमारे देश भर्ष्टाचार मुक्त हो जायेंगे ? शायद नहीं, क्यूंकि जिस तरह का उम्मीद देश के जनता ने जनलोकपाल और लोकपाल संजोये वह उम्मीद आसानी से पूरी होती नहीं दिख रही हैं।  राजनीती पार्टी सस्ती लोकप्रियता के खातिर तो इस तरह के कानून की कबायद करते दीखते है व इसके पक्ष में हामी  भरते हैं जबकि समूचे देश के सामान्य नागरिक सच से वाक़िफ़ हैं कि भ्रष्टचार के लिए किसी को जननी और जनक का संज्ञा दी जाती हैं हमारे देश के नेता ही हैं जिनके ही सरक्षण में भ्रष्टचार की  बीमारी फैलती हैं और आला अधिकारी से होकर निम्न श्रेणी के अधिकारी तक पहुँचती हैं अर्थात भ्रष्टचार के माध्यम से इकट्ठा की गई मोटी रकम (रिस्वत)  का ज्यादातर हिस्सा नेताओ को पार्टी फण्ड के रूप में अथवा भेंट के रूप में दी जाती हैं। जबकि हाल में जितने भी बड़े घोटाले हुए उसमें देश के बड़े -बड़े नेताओ का नाम उजागर हुए। जिस देश में नेता जो खुदको ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, क्या वह इस तरह के कानून को मंजूरी दे सकते हैं जो उनके खिलाफ ब्रह्मस्त्र का काम करेंगे और जनता को भ्रष्टचार सड़े निज़ात दिलाने में मददगार साबित होंगे? जी हँ, ऐसा मुमकिन हैं क्यूंकि नेताओ को भलीभांति ज्ञात हैं कि कानून कितना भी शख्त क्यूँ न हो पर लागु जितने शख्ती की जायेगी उतने ही शख्त रूप अख्तियार करेंगे और लागु करने का जिम्मा तो नेताओ और उनके इर्द गिर्द बेठे आलाधिकारी का ही जो उनके इशारे का मुहताज़ हैं।  फिर भी  राजनीतीक नेता को कानून का  पारूप तैयारकरना होता हैं वेसे में कानून के मसौदा तैयार करने में अपनी हित का पूरा ख्याल रखते हैं जो उनके लिए भविष्य में संजीवनी का काम करेंगे।

 एक तरफ जनता अब इस तरह के व्यवस्था व तरीका से उब चुकी हैं वही नेता कितना भी प्रयन्त कर ले वे अपनी आदत से बाज नहीं आ सकते हैं।  इसीका नतीजा हैं कि जब कोई बिल जिसमें जनता के सरोकार से जुड़ा हो उसमें इस तरह का क्लॉज़ (कंडीशन) जोड़ दिए जाते हैं ताकि बिल कितना भी शशक्त क्यूँ न हो पर जनता उस क्लॉज़ के कारण किसी अधिकारी अथवा नेता के खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर सकती है।

चाहे दिल्ली सरकार का जन लोक पाल बिल हो या केंद्र सरकार का लोकपाल  बिल। हालाँकि असमानता गणना  करना अभी शायद सरल नही होगा पर इन दोनों बिलो के बीच पर यदि समानता की  बात करेंगे तो  इन दोनों में एक विन्दु जरुर देखने को मिलेगा कि अगर शिकायत गलत साबित होगी तो जनलोकपाल के कानून के अंतरगर्त से ५ लाख तक जुर्माना  का प्रावधान किया गया जबकि लोकपाल के कानून  के अंतरगर्त २५ हज़ार का प्रावधान किया गया। अब सवाल ये उठता है कि जिस देश में २६-३२ के रोज खर्च करने वाले आदमियों को गरीबी रेखा के ऊपर समझे जाते हैं उस देश में जुर्माना २५  हजार से ५ लाख तक तर्कसंगत कैसे मान लिया जाय जबकि वास्तविक में आधी आबादी गरीबी में जीवन यापन करने के लिए बाध्य हैं।  एक तरफ नेता और अधिकारी का रुसूख के सामने कितनी  भी प्रभावशाली बिल का मसौदा तैयार किया गया  व कानून के रूप में मान्यता दे दिया गया पर कभी भी कारगर साबित नहीं हुआ मसलन अभीतक न  ऐसा  कोई नेता मिला और न ही ऐसा अधिकारी मिलें  जिसे भ्रष्टाचार में संलिप्ता के कारण कोई बड़ी सजा भुगतें हो।  जबकि न्याय पालिका ने कई बार खुदको सज्ञान लेकर ऐसे नेता और अधिकारी के खिलाफ मुकदमा दायर करने की अनुमति दिए है और उसके जाँच के लिए  कई बार स्पेशल इंवेस्टगेशन टीम का भी गठन किये गए पर अभीतक नाकामयाबी ही देखनो को मिली।

दरशल में लोकपाल हो जन लोकपाल जब तक जनता को पूर्णतः शिकायत करने की छूत नहीं दी जाती तब तक जनता किसी भी नेता अथवा अधिकारी के खिलाफ शिकायत करने हिम्मत नहीं जुटा पायेगी यद्दिप जनता इन नेताओ और अधिकारी के खिलाफ प्रयाप्त सबूत होने के वाबजूद यह डर हमेशा बना रहेगा की दोषी नेता या अधिकारी अपने प्रभुत्व के बल पर इसे बड़ी आसानी से जूठा साबित कर ही देंगे जो कि अब तक होता आया हैं, तत्पश्चात एक तो लोकपाल को हर्जाने के तोर पर मोटी रकम चुकानी होगी जबकि नेता और अधिकारी की रोजमर्रा कि हरकतें से रुबरु होना पड़ेगा जिसके लिए कोई जनता कतई तैयार खुदको नहीं कर पाएंगे। परिणामस्वरूप वही होगा जो इन दिनों RTI कार्यकर्ता साथ हो रहे हैं अनंतः ने कितने को अपनी जान  से भी हाथ धोने पड़े है, वजह व्यवस्था में खोट होना।

केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकार वोट के लिए तो लोकपाल और जन लोकपाल जैसी कानून तो लाती हैं ताकि सस्ती लोकप्रियता हासिल की जाय लेकिन उसके साथ इस तरह का क्लॉज़ और नियम को बड़ी चतुराई से जोड़ दिए जाते हैं जिस कारण उनके खिलाफ लाख कोशिश के उपरांत शिकायत न  कर सके।  वही जब नेता हित को लेकर कोई कानून बनाती है तो अतयन्त प्रयन्त के वाबजूद शायद जनता को कोई भी मौका  नहीं दिया जाता है ताकि लोक  उसके खामिया पर सवाल उठा सके।  वास्तविक में सरकार हमारे हाथ में लोकपाल और जनलोक पाल के माध्यम से तो जनता के हाथ में बम रख दिए हैं  और हमें भर्ष्टाचारियों के खिलाफ इस्तेमाल की आज़ादी तो दे दिए गए हैं पर डर हमेशा रहेंगे की पुरे सबूत व सावधानी रखने पर भी तय नहीं किया जा सकता हैं कि भर्ष्टाचार में लिप्त नेता और अधिकारी को सजा मिलेंगे अथवा नहीं जब तक इसका सौ फीसदी परिणाम अनुकूल नहीं होता अर्थात जनता को ही अपनी सूझ- बुझ से लोकपाल व जनलोकपाल जैसे कानून का उपयोग करनी होगी और सदेव खुदको बचना होगा उसी भांति जैसे कि कभी -कभी बम से  दुश्मन व प्रतिद्वंदी को आघात पहुचने के एवज़ में खुद ही झुलस जाते हैं।

  आखिरकार सरकार को चाहिए कि जितना शशक्त कानून बनायीं जाय उतनी सरलता  के साथ लोक लाभविंत हो सके इसके लिए जुर्माने और हर्जाने जैसे एंटीक्लॉज को हटाया जाना चाहिए अथवा  कानून में जाँच  का माप दंड और मान दंड को  सरलबनाये जाना चाहिए ताकि ये जनलोकपाल और लोकपाल के अधिकारी पूर्णतः जवाबदेही बने कि सभी तरह के सबूत  को खंगाले और एकत्रत करे।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014


न आग हैं तेरे कलेज़े में जिसके तपस में बन गए थे भाँप
न ओ ठंडक ही रहा तेरे सोंच में जिससे सब गए थे काप
 सफाई करने के नाम पर समेटने को लेकर आये झाड़ू छाप
वही तानाशाह फिरसे, कदाचित "आप" भी रहे न आप 

"जाने भी दो यार.....!"


जाने भी दो यार.....
झूठा लगे तेरा जयजयकार
वही डफली , वही राग
रोटी पर न साग,
चूल्हा में न आग
फिर भी, भाग मिल्खा भाग
जाने भी दो यार.....

गंगा मैली, यमुना मैली
सरस्वती बेचारी पहले से अकेली
दिखतां हैं विकास
फिर भी सब हैं हताश
कोयला उगले सोना
फिर काहे को रोना
सोना लेकर भागा चोर
लूट मचा हैं चारुं ओर
जाने भी दो यार.....

आचार-विचार का अब मोल नहीं 
सत्ता के बाज़ार में इमान का तोल नहीं
लगाते हो बोली हमारे अधिकार के
लेकर मत हमसे पुँचकार के
नारे के सहारे क्या खूब अलख जगाये
ताना-बाना में मेरे सुध -बुध को भुलाये
सत्ता के लार में फिसल गए सब वायदे 
हम तो ठगे गए खुद ले गए सब फायदे
सत्ता जहर हैं या नशा जो भी, पर किया खूब असर 
नीलकंठ का दर्श नहीं , पी रहे फिर क्यूँ  सब जहर 
जाने भी दो यार.....


लाछन और वाचन हो गया सत्ता का खेल
करनी और कथनी में न कोई अब मेल
मेरे ही पसीना हैं तेरे इस सोंच में
मेरे ही गर्दन हैं दबा हैं तेरे चोंच में
आंखमूंद कर हमने किया बरसो भरोषा
हमारे सब्र को मिला सिर्फ धोखा ही धोखा
क्या खाश हुए कि खाशियत से  ही काम किया 
हमें आम बनाकर, गुठलियों का भी दाम लिया 
करले लाख प्रयन्त पर अब नहीं
इस आरजकता पर यंकी हरगिज़ नहीं
बहुत कुछ तय होना हैं अबकी बार 
होगी जनता जनार्दन की सरकार
जाने भी दो यार.....