शनिवार, 29 मार्च 2014


  लोकतंत्र में परिवार वाद व अनुकम्पा आखिर कब तक ?



लोकतंत्र के धुरी को खोखला करने पर आमादा,  आज के प्रायः  सभी सियाशी नेता और दल जो परिवार वाद व वंश वाद के बुनियाद पर राजनीती कर रहे है, खुदगर्जी  कहे या कुछ और वजह  पर अपने हित के चलते ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजतंत्र वाली रिवाज़ को कायम रखने में अभी तक कामयाब रहे है। वंशवाद व अनुकम्पा एक तरफ सुयोग्य उम्मीदवार को राजनीती में सक्रियता से वंचित करता है जबकि  दूसरी तरफ राजनीती में एक परिवार का वर्चस्व इस कदर बढ़ता है जो लोकतंत्र के धुरी यानि व्यवस्थाओं को अपने सुविधाओं के लिहाज़ से इस्तेमाल करते रहते है और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी राजतन्त्र वाले ही प्रथा को जीवित रखने का पुरजुर प्रयास करते है  ताकि अपने मनसूबे को साधने में कोई खास मस्कट करने की जरुरत न पड़े।

जिस तरह से दो दशक पहले सरकारी नौकरी में अनुकम्पा का प्रावधान था पर वर्त्तमान में शायद ही अनुकम्पा नामके के शब्द सरकारी नौकरी में देखने को मिलेंगे जबकि राजनीती में बरसो से आ रहे वंशवाद व अनुकम्पा का चलन इनदिनों काफी जोरो पर है पार्टी कोई भी हो पर इससे इसकी को भी परहेज़ नहीं है मसलन कुछ पार्टी परिवार के इर्द -गिर्द ही सिमट कर रह गयी हालाँकि कुछ पार्टी जो खुद को सिद्धांतवादी बताने से हिचकते नहीं पर अब वे भी अपनी सिद्धांत को तिलांजलि देकर आहिस्ता -आहिस्ता कर परिवार वाद व वंश वाद को अपनाने लगे है।

बिडम्बना तो तब होता है जब इस तरह के चलन के बारे में जब राजनीतिके कर्णधार से पूछे जाते है तो एक अजीब सा तर्क देते है " यदि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर हो सकता है, वकील का बेटा अगर वकील हो सकता है तो फिर नेताजी के बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता है?" तर्क तो जायज़ है पर तर्क देनेवाले ने ये नहीं कभी बताये कि डॉक्टर और वकील बनने के लिए मापदंड तय है जो  अध्यन से हासिल की जाती अर्थात डॉक्टर और वकील के बेटा होने का उन्होंने कोई अनुकम्पा नहीं दिया जाता है ब्लिक उनके अपनी योग्ता और काबलियत को प्रतियोगिता अथवा संघर्ष के माध्यम से साबित करना होता है तब जाकर वह अपने माता -पिता व पारंपारिक पेशा से जुड़ते है। जबकि राजनीती में अभी तक कोई मापदंड और न ही कोई मानदंड निर्धारण किया गया जिसके माध्यम से नेताजी के बेता या भतीजा की योग्ता परखे जाते है पर शायद ये कभी ही मुमकिन हो!

राहुल गांधी हो या नरेंद्र मोदी कभी भी परिवार वाद के खुले तौर पर पक्षधर नहीं दिखतें है इसलिए जंहाँ राहुल गांधी अपनी काबलियत सिद्ध करने में एड़ी- चोटी  एक कर रखे है फिर भी ये कभी नहीं साबित कर पाये हैं कि उनके पार्टी में जो उनका रसूख है सिर्फ इसके बदोलत कि वह गांधी परिवार के वंशज है अन्यथा वह किसी भी मायने में उस रसूख के लायक नहीं है  जिस पर वह फिलहाल काबिज़ है। यही कारण है कि राहुल गांधी कांग्रेस में जड़ जमा चुकी परिवार वाद को लेकर चुपी साढ़े हुए है जबकि चुनाव से पहले सुयोग्य  उम्मीदवार का वक़ालत किया करते आ रहे थे और जैसे ही चुनाव का शंखनाद हुआ परिवार वाद व  अनुकम्पा  के सभी पुराने रिकार्ड के पीछे छोड़ एक नई रिकार्ड बनाने के लिए अपने ही पार्टी के नेताओ को छूट दे दी। नरेंद्र मोदी की बात करेंगे तो वह भी परिवारवाद को लेकर  कांग्रेस को कोसते आ रहे है मसलन कांग्रेस के प्रधानमंत्री  के अप्रयतक्ष उम्मीदवार राहुल गांधी को शहजादे के नाम से ही सम्बोधन करते दिखतें  है जबकि आधी दर्जन से कही ज्यादा उम्मीदवार ऐसे चुनावी रणभूमि में उतारे गए हैं उनकी पार्टी के तरफ से जो वाकये में परिवारवाद को ही दर्शाते है हालाँकि मोदी यदि चाहते तो इस परिवार वाद व अनुकम्पा को रोक सकते थे पर इनके प्रति वह भी गम्भीर नहीं देखे गए  है इसीका नतीजा है उनके पार्टी के दिग्गज नेताओ अपने सगे सम्बन्धियों को टिकट दिल खोल कर बाँट रहे है जबकि योग्य और कर्मठ उम्मीदवार को सरेआम नजरअंदाज़ करते दिखे जा रहे है। वास्तव में  हैरत तो तब होती है जब केजरीवाल के आआपा जो अभी हाल में  ही राजनीती के पृष्ठ भूमि अपनी उपस्थति दर्ज करबा पायी हालाँकि फिलहाल अभी तक राजनीती जमीं ही तलाशने के काम को भी पूर्णरूप से अंजाम  नहीं दे पायी  फिर भी परिवार वाद और वंश वाद को  ही प्रोत्साहन देने से हिचकते नहीं ।

यदि क्षेत्रीय पार्टीयों की बात करे तो सभी पार्टिया परिवारवाद से ग्रस्त हैं बिहार के लालू और पासवान हो या उत्तर प्रदेश के मुलायम, पूरब के ममता बेनर्जी हो या दक्षिण के करुणानिधि अर्थात परिवारवाद की बीमारी देश के चारों दिशाओं में फ़ैल चुकी है। इन पार्टी के आकाओं ने राजनीती को अपने परिवार के इर्द -गिर्द इस कदर समेत रखा है आनेवाले दिनों में यदि आम चुनाव के जितने सीट हासिल करेंगे उसमें आधे से ज्यादा सीटों पर उनके परिवार का कब्ज़ा होंगे बाकि आधे में पुरे प्रदेश के प्रतिनिधि। परिवार वाद  योग्य उम्मीदवारी के ऊपर ग्रहण लगाते ही है जिसके कारण पार्टी के भीतर अंतर कलह पनपना लाज़मी है अन्तः पार्टी में कर्मठ और निस्तावान कार्यकर्ता का भी आभाव हो जाते है क्यूंकि पार्टी में तो एक ही परिवार का सिक्का चलता है जबकि अन्य कार्यकर्ता उपेक्षा का शिकार हो कर या अपने भविष्य को अधर में देखकर पार्टी के प्रति सकारात्मक  विचार को ज्यादा दिन तक रखने में असमर्थ हो जाते है जो आखिरकार पार्टी से मोह भंग करके कोई अन्य विकल्प को ही चुनते है।

परिवार वाद के बुनियाद पर कभी भी भर्ष्टाचार मुक्त भारत का कल्पना नहीं किया जा सकता है क्यूंकि परिवार वाद ही तो है जो भर्ष्टाचार को सरक्षण का काम करते है अर्थात व्यवस्थाओं में यदि एक ही परिवार का दबदबा रहता है तो राजनीती के आकाओं के साथ नौकरशाह भी निश्चिन्त रहते है कि कोई भी उनको बालबांका नहीं कर सकते है ऐसे में राजनीती के आकाओं और नौकरशाह के बीच के साठ -गांठ निर्भीक हो कर बरसो तक चलते रहते हैं  जिस कारण से रिश्वत के रकम को बड़ी ईमानदारी से इन दोनों वर्ग के लोग आदान- प्रदान करते रहते है। 

दरशल में परिवार वाद बीमारी का रूप तो धारण कर ही लिया है और आहिस्ता- आहिस्ता कर महामारी का स्वरूप में तब्दील होती जा रही है, फिलहाल तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कमजोर कर रही है और आनेवाले दिनों में यह लोकतंत्र को ही निगल जायेंगे यदि समय रहते हुए इसको रोका नहीं जाता। हालाँकि आम लोगों का रवैया इसको लेकर नकारात्मक है फिर भी उसके तादाद भी कम नहीं है जो इसके पक्ष में न हो अन्यथा ऐसे नेताओ को कभी भी समर्थन नहीं मिलते जो परिवारवाद के दम पर राजनीती के बुलंदी पर पहुंचना चाहते है।


बरहाल आज के राजनीती के परिवेश में कोई भी नेता हो या सियाशी दल परिवारवाद व अनुकम्पा से परहेज़ नहीं रखते है।  यद्दिप जनता अब इसके किसी भी स्वरुप को स्वीकाने के लिए वाकये में तैयार नहीं तो हरगिज़ ऐसे उम्मीदवार को मतदान नहीं करेंगे जो सिर्फ परिवार वाद के जरिये अपनी राजनीती जमीं तलास रहे है अथवा जनता सिर्फ दिखावे के लिए इसका विरोध करते है, अंतोगतवा यर्थाथ हमारे सामने आने महज  कुछ ही दिनों में आनेवाले है जो आगामी आम चुनाव के बाद पूर्णतः स्प्ष्ट हो जाएगा। 



केजरी धरना एंड हल्लाबोल एसोसिएट्स




" कल वानारस जाना ही होगा नहीं तो लोगो के बीच गलत मेसेज जायेगा क्यूंकि २३ मार्च का प्लान को पोस्टपोन्ड कर दिया गया अब २५ तारिक को किसी भी हालत में वानारस के लोगों के बीच अपनी मौहजूदगी दर्ज करनी होगी।" अपनी बात को बीच में ही रोककर दूसरी तरफ से आ रही आवाज को गौर से सुनने का प्रत्यन करते है।
"देखिये केजरीवाल जी, पुरे  वानारस में अपनी दो हजार वॉलंटीयर इकठ्ठा नहीं हो पा रहे है।"
"अरे पुरे प्रदेश का वॉलंटीयर इकट्ठा कर लो।" खासतें हुए…।
फिर भी तीन हज़ार से ज्यादा नहीं होगा क्यूंकि उस दो हज़ार में भी तो कानपूर से लेकर अलाहबाद के  वॉलंटीयर सामिल है।"
"ऐसा करो दिल्ली से वॉलंटीयर को साथ ले चलो, लेकिन प्रोग्राम को पक्का करो।"
 कौशिश तो करता हूँ पर ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है। वॉलंटीयर भी थक गए है अहमदाबाद से लेकर मुम्बई तक दौरा करके अभी हाल में ही लोटे है जबकि दिल्ली एनसीआर में तो रोज कोई न कोई प्रोग्राम रहता हैं ऐसे में वॉलंटीयर को थकना तो मुनासिब है?"
"जो भी हो, कम से कम चार हजार - पांच हजार वॉलंटीयर भी इकट्ठा होगें तो काम बन जायेगा क्यूंकि भीड़ -भाड़ वाले इलाके में इतने से भी काम चल जायेगा।"
"ठीक है, ऐसा करते सभी को अभी मेसेज भेज ही देते है।"अचानक सन्नाटा पड़ गया।
 "चलो ठीक है, ओके " कॉल डिसकनेक्ट करते ही रिंगटोन बजने लगते है " हेलो हेलो, हँ , बोलिये। "
 "केजरीवाल जी " एक आवाज  सुनायी पड़ी।
"हं, जी।" कह कर दुसरी तरफ से आ रही आवाज को खासतें - खासतें सुनने लगता है।
"मैं  वानारस से बोल रहा हूँ, देखिये यहाँ का हालात बिलकुल अनुकूल है और जबसे आपने भाजपा के द्वारा हिंशा फ़ैलाने का आशंका जताए है तबसे पुलिस कि जबर्दस्त सख्ती कर दी गयी है, और मीडिया में भी ये ख़बर हेड लाइन्स बनी हुई है इसलिए अब आप बेफिक्र होकर आइये।''
मुझे तो कोई डर नहीं है ये तो बस मीडिया की सुहानभूति के लिए अफवाह फैलायी थी ताकि मीडिया का कवरेज हो सके वेसे भी मीडिया कर्मी हमारे पार्टी से काफी नाराज दीखते है।  अच्छा ये बताओ हवा का क्या रुख है ?''
"मोदी का लहर है इसे झुठलाया नहीं जा सकता फिर एक समीकरण बनने का आसार है यदि हम अल्पशंख्यक का वोट हासिल कर पाते है।"
"तो ऐसा करो पहले तो गंगा में डुबकी लगाएंगे फिर अल्पशंख्यक के इलाके में ही रोड शो करेंगे।"
"अल्पशंख्यक के इलाके में ही रोड शो का बात तो ठीक है पर गंगा में डुबकी लायेंगे इसका विपरीत मेसेज तो नहीं जायेंगे।"
"पहले मैं ऐसा ही सोचता था पर बच्चे का जिद्द है तो मैंने प्रोग्राम चेंज कर दिया। चलो रखते है क्यूंकि तैयारी भी करनी है क्यूंकि रात में ही गाड़ी पकड़ना है।"
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"अभीतक प्रोग्राम बिलकुल सटीक रहा, गंगा में स्नान भी कर लिए, बाबा विश्वनाथ का दर्शन भी हो गया, संकटमोचन का भी पूजा -अर्चना बड़े आराम से हो गया अब रोड शो के लिए चल दिए। पर वॉलंटीयर  के शंख्या देखकर खुश नहीं थे पर कार्यकर्ता के तरफ से अस्वाशन दिया गया कि एक बार रोड शो शुरू हो जायेंगे तो लोग जुड़ते जायेंगे।  वेसे भी केजरीवाल मोदी के खिलाफ चुनावी रणभूमि दो -दो हाथ करने के लिए आये है तो सिर्फ मीडिया का सुर्खिया बटोरने के लिए न कि मोदी के खिलाफ चुनाव जीतने, जो फिलहाल जारी है। जहांतक पलटनी मारने में तो महारथ है ही, हो सकता है कि मोहाल विपरीत लगा तो पलटीमार कर फिर से दिल्ली के तरफ अपने रुख को मोड़ लेंगे।

केजरीवाल साहेब राजनीती धरातल पर इसलिए प्रगट हुए थे  कि राजनीती वातावरण में काफी प्रदूषित हो गए जिसे शुद्धिकरण की आवश्यकता है ताकि राजनीती वातावरण में सुचिता और संवेदना दिखे लेकिन वानारस रैली के बाद जो भी उनके समर्थक है ये जान ले कि ऐसा कोई भी इरादा लेकर केजरीवाल राजनीती धरातल पर प्रगट नहीं हुए है क्यूंकि जो वोट के खातिर दो समुदायो को बाँटने और वोट के लिए ध्रुवीकरण करने में लगे है उनसे सुचिता और संवेदना का अपेक्षा करना मुनासिब कतई  नहीं होग, जिनका एक मात्र उद्देश्य है कि किसी तरह देश या प्रदेश की सरकार को अस्थिर करना और देश की राजनीती परिदृश्य को असमंजस में रखना, नहीं तो इस तरह का अलगवादी मोहाल बनाने कि क्या जरुरत है ?, एक तरफ छोटी सी दिल्ली जैसे राज्य में सरकार नहीं चला पाना और फिर अपने को देश चलाने में सक्षम कहना, यह एक अलगवादी या अराजक सोंच के सिवाय कुछ  भी नहीं है।

चुनाव के बाद दिल्ली का जो भी हालात बनी है इसके लिए कौन जिम्मेवार ?, क्या दिल्ली  भ्रष्टाचारमुक्त हो गया ?,  दिल्ली वासी को मुफ्त पानी और बिजली कितने दिन के लिए नसीब हुए महज़ दो से तीन महीने के लिए, क्या ये काफी है?,
 केजरीवाल और एसोसिएटस का काम अभी तक का जो रहा है सिर्फ और सिर्फ मीडिया का हेड लाइन्स में बने रहने के लिए रहा अथवा हवा हवाई रहा नतीजन दिल्ली में छै महीने के लिए सब कुछ थप हो गया अर्थात  न ही पुराने काम को पूरा ही किया जा सकता और न ही नए काम का श्री गणेश होंगे और ये भी पूर्वनिर्धारण नहीं किया जा सकता है सबकुछ छै महीने में सामान्य हो जायेंगे क्यूंकि यदि दिल्ली के मध्यावधि चुनाव के बाद दिल्ली को मजबूत सरकार नहीं मिलती है तो इस तरह का हालात का फिर से सामना दिल्ली प्रदेश के लोगों को करना ही होगा।

दरशल में केजरीवाल का अहम् मुद्दा भ्रष्टाचार था पर इस चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा से मन उब गया या आभाष हो गया कि इन मुद्दा के बदोलत आगे का रास्ता परस्त नहीं करा जा सकता इसलिए अब ये मुद्द खास नहीं रहा आखिरकार  आज चुनावी में उन्होंने सम्प्रदायिकता के ऊपर ध्यान केंद्रित कर रखा  और अब उनका अहम् मुद्दा सम्प्रदायिकता हो गया और इस चुनाव का नैया इसी के सहारे पार लगाने के फ़िराक में है। हालाँकि केजरीवाल वोट के लिए कुछ भी कर सकता है इस बात का भनक उस समय ही लग गया था जब उन्होंने तोफिक रजा से बरैली में जाकर मिले  और उनसे समर्थन के लिए आग्रह किये और दिल्ली चुनाव में मौखिक तौर से उनका समर्थन भी केजरीवाल को मिला। वही तोफिक रजा साहेब है जिनके ऊपर दंगा भडकाने का आरोप लग चुके है।  केजरीवाल इस तरह के राजनीती करने के वाबजूद खुदको सबसे साफ-सुथरी राजनीतिज्ञ कहने से थकते नहीं। अफसरवादी मोहाल में मौकापरस्त लोगों से घिरे हुए महापुरुष केजरीवाल अपने निसाने पर उन्ही शख्शियत सुमार करते है जिनके अपने क्षेत्र में बहुत बड़ा कद है इसलिए अम्बानी, अदानी, मोदी, राहुल जैसे लोगों के इर्द- गिर्द ही घूमते रहते है ताकि मुफ्त का पब्लिसिटी मिलते रहे और मीडिया के माध्यम से सुर्खिया मिलते रहे जबकि उत्तर प्रदेश में जाकर कभी मुलायम सिंह के खिलाफ इन्होने कुछ भी न कहा और न ही मायावती के खिलाफ कभी कोई टिप्प्णी किये है, बायदवे मुलायम सिंह व सपा की सरकार के काम काज कितना संतोष जनक है इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पहले छै महीने में उनके प्रदेश में तकरीबन प्रत्येक दिन दंगा होते रहे और जनाब दंगे की गर्मी में सफई के महोत्सव का रंगा- रंग आनंद लेते रहे।

वास्तवमें कभी -कभी तो वाकई ये सच लगता है कि केजरीवाल को राजनीती में आना किसी साज़िस की तहत है जो बाहर के मुल्को के द्वारा प्रायोजित है जिसका एक मात्र लक्ष्य है कि देश के राजनीती के आक़ाओं को रक्षात्मक बनाना ताकि वे अपने ऊपर ही ध्यान केंद्रित कर सके जिससे देश का विकास की रफ़्तार को रोका जाय अन्यथा केजरीवाल का एक विजन तो जगजाहिर होता है शुरू -शुरू में भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते थे पर अब अरजाकयुक्त भारत चाहते है जबकि इनके वॉलंटीयर के तादाद को लेकर दावा कुछ भी कर ले पर सिमित मात्र है जिनको ये देश के सभी शहर में बारी - बारी से प्रदशन के लिए इस्तेमाल करते रहते है। जो भी हो केजरीवाल का पार्टी एक कॉर्पोरेट सेक्टर के तरह काम करते दिखे जा रहे है जिसमें एक चेयरमैन है जो कि खुद केजरीवाल साहब है बाकि और लोग मैनेजमेंट की विभिन्न श्रेणी में कार्यरत है। बरहाल केजरीवाल अपने चुनावी लोलीपोप को बेचने में लगे है अब देखना कि आनेवाले आम चुनाव में किस हद तक अपने प्रोडक्ट को बेच पाते है ……!!

बुधवार, 12 मार्च 2014


  वास्तविक में केजरीवाल सियाशी विश्वामित्र तो नहीं ?

केजरीवाल साहेब के बारे में लिखता आ रहा हु और शायद लिखता रहूँगा क्यूंकि महत्तवाकांक्षी और परिवारवाद राजीनीति और अराजक व्यवस्थाके खिलाफ मैं सदेव हूँ और इसके खिलाफ लड़ता रहूँगा यही कारण हैं कि मैं कभी भी इस तरह के लोगों पर विस्वास नहीं करता जो कहता कुछ और है और करता कुछ और है। अन्तः ब्लॉग के माध्यम से हम अपने देश के लोगों को आगाह करने कि कौशिश करता हूँ कि आप दिखावे पर मत जाओ ब्लिक योग्य उम्मीदवार को जिताओ जो प्रतिभा और निस्ठा की धनि हो न कि उन्हे जोचोचलेबाज़ी और झूठी ख्याली पुलाउ बनाने में महारथ हासिल कर रखे हो। हालाँकि मैं अपने पुराने ब्लॉग में मीडिया को भी आड़े हाथ लिया था जिस कदर पत्रकारिता के नाम पर गोरख धंधे का बाज़ार सजा है इसीका नतीजा है केजरीवाल का क्लिप का आना जो मीडिया फिक्सिंग का कलई  खोलता है। इसके उजागर होने के बाद मीडिया और केजरीवाल  जहाँ अपने मुहं पर ताला लगा लिए है वही विरोधी भी टिका -टिप्प्णी करके खूब लुप्त उठा रहे है क्यूंकि अभी तक केजरीवाल यही कहते आये थे कि मोदी के हवा के पीछे मीडिया का हाथ है जिन्हे मोदी ने खरीद लिया है पर केजरीवाल के हाल यह क्लिप उनके और मीडिया कर्मी के बीच के रिस्ते को न सिर्फ उजागर करते है ब्लिक पैड न्यूज़ के तरफ भी इसारे करते है। अब केजरीवाल और मीडिया के सदर्भ में किसी के भी जहन में कोई असमंजसता नहीं दिखनी चाहिये फिर मेरे पुराने ब्लॉग पढने से मीडिया और केजरीवाल दोनों के संदर्भ में बहुत कुछ पढ़ने को मिलेगा जिसे रीडर अपनी जानकारी के लिए जरुर पढ़े और उसका आकलन करे कि उसमे जो भी विचार प्रस्तुत किये गए है, आहिस्ता आहिस्ता करके सब सच साबित हो रहे है या नहीं। दरशल में अभी तक के जो टिप्प्णी मुझे प्राप्त हुए उससे थोड़ी ख़ुशी और थोडा ग़म का अहसास हुआ क्यूंकि इस विचार को लेकर ज्यादातर ने सहमत दिखाए फिर भी कई ऐसे भी है जिन्होंने अपनी नाराजगी का भी इज़हार किये है। 

बरहाल मेरा प्रयास जारी है फिर भी कई लोगों ने मुझको लेकर ये धारणा बना कर रखे है कि मैं भाजपा और मोदी के खिलाफ नहीं लिखता हूँ हालाँकि कारण तो कई है फिर भी इस समय यही बताऊंगा कि फिलहाल मौका का ताक है जैसे ही कुछ शाक्ष्य सामने आएगा जरुर लिखूंगा। मोदी हो या केजरीवाल देश और जनता से बढ़कर कोई नहीं है। दरशल केजरीवाल के खिलाफ लिखने का मतलब सिर्फ एक है कि केजरीवाल ने लोगों से एक ही वायदा करके राजनीती के जमीं पर अपनी पार्टी आआपा का बीज बोये थे कि वे सबसे अलग है और  कभी भी सत्ता के लार से लबालब हो कर भ्रष्टाचार को लेकर जो उनके रवैया है उससे कभी भी फिसलेंगे नहीं पर काश !,  ज्यादा दिन तक अपने किये हुए वायदे पर कायम रहतें, आहिस्ता -आहिस्ता कर फिसलते गए कि अब तो केजरीवाल का वह रूप ही अदृश्य हो गया जिसे लोग देखते थे अब तो सिर्फ सत्ता के लार ही नज़र आ रहे है। वास्तविक में जिन्होंने शहीद के सहादत को भी अपनी सियाशी खेल का हिस्सा बना दिया और फायदे के लिए भरपूर इसका इस्तेमाल किया, क्या इस तरह के शख्श देश के लोगों का हित ख्याल रख सकते है? आपको ही इसका आकलन करना होगा क्यूंकि बहुत ही गम्भीर मसला है
केजरीवाल को लेकर जब मैंने घोर आत्मा मंथन करना शुरू किया और अत्यंत मत्था -पच्ची के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि आज के केजरीवाल और सत्ययुग के विश्वरथ अथवा विश्वामित्र में कुछ हद तक काफी समानता है, हालाँकि विश्वामित्र के जीवन का पहला अध्याय और केजरीवाल का जीवन दूसरा अध्याय आपस में मेल खाते दिखतें हैं पर आखिरकार कितने मेल और समानता केजरीवाल और विश्वामित्र के बीच में है, इसको किन मानदंड में मापा जाता है, और इसके लिए किस तरह का मात्रक का उपयोग किया जा सकता? इसको यथाशीघ्र तो चिंहित कदाचित नहीं की जा सकती है क्यूंकि ये तो अभी भविष्य के कोख में हैं और इतिहासकार को ही पूर्ण आकलन करना होगा  केजरीवाल के जीवन का लेखा जोखा पर, दोनों के हट, जिद्द और महत्तवाकांक्षी एक जैसे ही दिखतें है व भिन्न है । इसके वाबजूद विश्वामित्र के जीवन का पहला अध्याय अहंकार और महत्तवाकांक्षी के प्रतिक रहे हो पर बाद के अध्याय प्ररेणा का स्त्रोत है जबकि केजरीवाल का जीवन का पहला अध्याय के ऊपर लाछन लगाना उचित नहीं होगा पर बाद का हिस्सा को टटोलने पर सिर्फ और सिर्फ महत्तवाकांक्षी इच्छाएं दिखेंगे हालाँकि इनके जीवन के पहले हिस्सा से काफी कुछ सिखने को मिलेंगे जिसे कभी नकार नहीं सकते।

सत्ययुग में एक विश्वरथ, जो बाद में चलकर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए जिन्होंने वशिष्ट मुन्नी से कामधेनु (नन्दिनी) गाय हासिल करने के लिए कई बार युद्ध किये पर फिर भी गाय हासिल कर पाने में असमर्थ रहे और बार -बार वशिष्ट मुन्नी से पराजित होकर जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि ब्रह्म ऋषि को पराजित करना उनके बस की बात नहीं है, यदि वशिष्ट मुन्नी को पराजित करना हैं तो पहले इसके लिए ब्रह्म ऋषि बनना होगा। इसी कारण से ब्रह्म ऋषि बनने के लिए दृग संकल्प का लेना जो एक तरफ उनके हट का प्रतिक है जबकि ब्रह्म ऋषि बनने का प्रयास सिर्फ उनके महत्वकांक्षी इच्छाये को ही समप्रित है, त्रिशंकु को संदेह देवलोक में भेजने का असहज प्रयास करना,  ये उनके अंह का प्रतिक है जिस कार्यकलाप के माध्यम से प्रकति को चुनौती देना और तपस्या करते हुए इन्द्र के द्वारा भेजी गई मेनका के साथ संसर्ग के उपरांत एक कन्या का जन्म देना, जिसे बाद में कण्व ऋषि ने पाला और जिसका नाम शकुन्तला पड़ा। इसी शकुन्तला से कण्व के आश्रम में राजा दुष्यन्त ने गन्धर्व विवाह किया। जिससे भरत नाम का वीरपुत्र पैदा हुआ, बाद में भरत के नाम पर ही भारत रखा गया, राजा हरिश्चन्द्र को सत्यवादी मानने को तैयार नहीं होना अपने हट और अहंकार के कारण राजा हरिश्चन्द्र से कठोर परीक्षा लेना और उस परीक्षा के दौरान अत्यंत यातनाएं देना और जब राजा हरिश्चन्द्र को सत्य के मार्ग से अडिग नहीं कर पाये, आखिकार राजा हरिश्चन्द्र के सत्यता के समाने झुकना। हालाँकि त्रेता में उन्ही वशिष्ट मुन्नी के शिष्य और राजा दशरथ के पुत्र ( राम और लक्ष्मण) को अपने तप और यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षश के वद्ध करने के लिए लेकर अपने आश्रम में लेकर जाना, राम और लक्ष्मण के द्वारा राक्षश का वद्ध करवाना। 

आखिरकार विश्वामित्र अपने भीतर बैठे हुए  अहंकार का विरसजन और त्याग के चरम उत्कर्ष की प्रतिष्ठा को पाने के लिए सर्वस्व लगा देने की दृढ़ भावना विश्वामित्र के चरित्र से अनुभव की जा सकती है। केजरीवाल के चरित्र और विश्वामित्र के चरित्र में ज्यादा कुछ तो समानता अभी तक देखे नहीं गए फिर भी दोनों के चरित्र को तुलात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो बेशक उन दोनों के सोंच और अंहकार में बहुत ज्यादा फ़र्क़ नहीं मिलेंगे  पर वास्तविक विश्वामित्र अहंकारी चरित्र का प्रमाण उनके जीवन के प्रथम अध्याय में ही देखे जा सकते अंतोगतवा अपने घोर तप और साधना से ब्रह्म ऋषि का ख्याति प्राप्त कर ही लिया।

 केजरीवाल और विश्वामित्र  के बीच क्या -क्या समानताएं है उस पर एक नज़र ;-
  • केजरीवाल को खाश आदमी रहते हुए भी आम आदमी का टोपी पहनना सिर्फ इसके लिए कि सत्ता को हासिल की जाय।
          विश्वामित्र को राजा से ऋषि का बनना सिर्फ इसके लिए कि किसी तरह नन्दि गाय को वशिष्ट मुन्नी से    हासिल की जाय।
  • केजरीवाल को सरकार में आना और जनलोकपाल को असंवैधानिक तरीके पास करने की कोशिश करना और जो तत्कालीन व्यवस्था को चुनैती देना।
         उसीप्रकार , जैसे कि विश्वामित्र  ने त्रिशंकु को संदेह देवलोक भेजना और प्रकृति को चुनौती देना। 
  • केजरीवाल का पहले तो कहना कि सत्ता का कोई लोभ नहीं और न ही सत्ता के सुख सुविधाएं के लिए  लालायित है पर अवसर मिलते एक -एक करके सत्ता के सभी सुख सुविधाएँ को प्राप्त  करना और अपने को और भी सत्ता में ताक़तवर बनाने के लिए अचानक दिल्ली के सरकार से इस्तीफा देना ।   
     विश्वामित्र भी अपने गृहस्थ जीवन को त्याग कर वैराग्य जीवन को अपनाये पर मेनका के रूप से                समोहित व काम भावना के ऊपर पूर्णत नियत्रण नहीं होने के कारण  फिरसे मेनका से शादी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना और शकुन्तला को जन्म देकर पुनः तपस्या पर बैठ जाना जो उनके पिता के जिम्मेवारी से भागने का प्रतिक हैं जबकि वैराग्य जीवन पहले भी वे गृहस्थ जीवन थे और सबकुछ छोड़कर ही वैराग्य जीवन में कदम रखे थे जो उनके अंदर जवाब देहि कमी का बोद्ध करता है । 

  • केजरीवाल  को दूसरे के ऊपर सवालों का बौछार करना और दूसरे के निस्ठा के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाना जबकि खुदको ईमानदार और क्रमनिस्ठ बतलाना । 
       विश्वामित्र का उसी हट का प्रतिक है कि सबने तो मान लिया था कि राजा हरिश्चंद्र वाकये में सत्यवादी हैं  पर वह इस सत्य को तबतक नहीं मानें जब तक राजा के सत्य के सामने ऋषिवर नतमस्तक न हुए। 
  •  बरहाल केजरीवाल को देखना है कि जिन राजनीती पार्टी के विरुद्ध फिलहाल खड़े है, क्या कल जाकर उन्ही के लोगों के मदद से अपनी इच्छाये और उद्देश्य को पूरा कर पाते है अन्यथा अपने सिद्धांत पर अडिग रहते है?
          विश्वामित्र ने भी वशिष्ट मुन्नी के विरुद्ध संघर्ष करते रहे जबकि बाद में उनके शिष्य श्रीराम और लक्ष्मण के मदद से ही यज्ञ और साधना को सिद्ध कर पाये।
केजरीवाल को अब ये भी साबित करना होगा कि उन्होंने जो आम आदमी की टोपी पहन रखे ब्लिक वे वास्तविक में आम आदमी ही है न कि और को टोपी पहनाने के लिए आम आदमी बने है।  आनेवाले दिनों  में अपनी सियाशी परिवेश में  केजरीवाल अपने अंह और महत्तवाकांक्षी सोंच व इच्छाएं को तिलांजलि देकर देश और देश के लोगों के बारे में सोचेते है तो शायद ये उपरोक्त आलेख में उनके जीवन के दूसरे अध्याय में कुछ  कहे गए है उन बातों  में  कुछ  नए पंक्ति को जोड़ने जाने का गुंजाईश है जो केजरीवाल के व्यक्तित्व् के लिए अहम् हो सकते है.…………… ।
हालाँकि सबसे महत्वपूर्ण यह  है कि आप लोगों को इस आलेख लो लेकर क्या धारणा है , उनसे  जरुर अवगत करवाए।



केजरीवाल साहब का बोलती बंद.……………………!!

हाल में केजरीवाल इंडिया टुडे के कॉन्क्लेव में बहुत कुछ बोलने आये थे पर बहुत कुछ के जवाब के एवज़ में बोलती बंद कर लिए। दरशल में केजरीवाल के लिए इन दिनों सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है इसीका नतीजा है जो मीडिया कॉन्क्लेव में उपस्थिति के लिए चार्टर्ड विमान का इंतेज़ाम करता है मतलब उनके मोहजूदगी के लिए चार्टर्ड विमान का खर्च भी उठाये, हालाँकि इनसे दो प्रश्न का हल आसानी से ढूंढे जा सकते है पहला तो केजरीवाल को प्राइवेट विमान और ठाट- वाट से कोई परहेज़ नहीं है फिर भी वे मोदी और राहुल गांधी के ऊपर निसाने साधते आ रहे है जबकि दूसरा कथन जो इन दिनों खूब जोर सोर से उठा रहे है कि मीडिया को मोदी ने खरीद लिया है बदले में मीडिया द्वारा भ्रम फैलाये जा रहे हैकि हवा मोदी के पक्ष में बह रही है। यदि मीडिया मोदी द्वारा ख़रीदा जा चूका है तो एक मिडिया हाउस द्वारा चार्टर्ड विमान  का खर्च वहन करना और आपके लिए एक मंच तैयार करना जहाँ आप अपनी बात को बड़े ही इत्मीनान से रख सके, इससे यही स्प्ष्ट होता है कि सभी के सभी मीडिया बिकाऊ नहीं है, और है, तो क्या आपने कंही इस मीडिया को अपने पक्ष में तो कर नहीं रखे है?,वास्तविक में ऐसा कुछ नहीं है क्यूंकि कि देश में सभी के सभी मीडिया बिकाऊ कतई  नहीं है। हालाँकि कुछ मीडिया को लेकर संदेह तो बनता है जिनको  निष्पक्ष भी नहीं कहे जा सकते है।

रात में आपने जो भी बात का जिक्र किया और आपके सोंच से रुबरु हुए इससे यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अब आपका जो असल मुद्दा भ्रष्टचार था उसको पीछे छोड़ आये है जबकि नए मुद्दा आपका सम्प्रायादिकता हो चला है,  इसका तातपर्य है कि अब कांग्रेस आपके निसाने पर नहीं हैं क्यूंकि आप अपने निसाने पर मोदी को रखे है। हालाँकि उस साक्षात् के दौरान आपने इससे भी  इंकार नहीं कर पाये कि आपको  कई बार अपने ही निर्यण बदलेने पड़े हैं और भविष्य में भी बदल सकते है। एक तरफ खुदको प्रधानमंत्री के रेश से बाहर रखते है और मुख्यमंत्री बनने की  इच्छा जताते है जबकि जिस तरह से उत्तर से पश्चिम तक का खाक छान रहे है इससे तो यही कहा जा सकता है कि आपके जुवां पर कुछ और है जबकि दिल में कुछ औरहै ,  नहीं तो आपका फोकस सिर्फ और सिर्फ दिल्ली पर होता पर ऐसा तनिक भी नहीं है। दूसर झूठ कल निकल कर सामने आया जब आपने कहाँ कि रोबर्ट वढेरा का पोल अपने खोला ऐसा तो कुछ था ही नहीं ब्लिक  I. A. S. खेमका साहेब ने रोबर्ट वढेरा  को लेकर उजागर किये थे और फोरन आपने इसके खिलाफ मैदान में कूद परे ताकि राजनीती फायदा मिल सके।आपकी  बोलती उस कार्य करम के दौरान अनेको बार बंद हुए पर इस बार तो आप हक्के-बक्के  दिखे जब आज तक के पत्रकार राहुल कँवल का उस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाये,  उन्होंने Topsites LCC के बारे में जवाब मागना चाहा जिस कंपनी का प्रत्यक्ष तालुकात सोमनाथ भारती से है।  न उनके खिलाफ आप अभी तक कोई ठोस करवाई कर पा रहे है और न ही उनको लेकर कोई समुचित जवाब दे पा रहे है,  इससे तो यही निष्कर्ष निकला जा सकता है कि आपके अपने का भ्रष्टाचार तो दीखता नहीं पर औरो के ऊपर आप कीचड उठाने से बाज नहीं आते है।

बरहाल मोदी के खिलाफ आपने जो मुहीम छेड़ा इससे जनता का ही भला हुआ क्यूंकि अब आपको साबित करना होगा कि मोदी जैसे दम ख़म आप में है या नहीं क्यूंकि अभी तक आप इस पलटी मारने या आरोप मढ़ने का काम के सिवाय कुछ भी नहीं किया जबकि मोदी ने सदेव आरोप झेलने का काम किया इसीका नतीजा है कि आरोप लगाने वाले खुदबखुद दम तोड़ गए और मोदी चुपचाप सहते गए।  यदि अल्प शंख्यक यदि मोदी को २००२ के लिए दोषी मानते भी है पर उन्ही में से बहुतों ऐसे है जो उनके सहनशीलता के लिए कायल भी है क्यूंकि उसके बाद कोई इस तरह का कारनामा उनके प्रदेश में देखने को मिला नहीं जिससे वह शर्मसार हो सके। जैसा कि आपने कहाँ कि सम्प्रायादिकता और भ्रष्टाचार एक ही सिक्के के दो पहलू है और यह वाक्य बकाये आप इमानदारी से कह रहे है तो सबसे पहले आपको मुलायम सिंह और आज़म खान को अपने निसाने पर लेना चाहिए न कि दंगा भडकाने वाले के शरण में जाकर उनसे दरखास्त करनी चाहिए कि वह आपके खातिर अपने समुदाय के लोगो से अपील करे कि आपके पक्ष में मतदान करे जैसा कि आपने दिल्ली चुनाव से पूर्व बरैली जाकर किये थे एक तरफ दंगा के दोषी से आपको परहेज़ भी नहीं जबकि सम्प्रायादिकता आपके अहम् मुद्दा है। फिलहाल आपके सभी दाव उलटे पर रहे है इसका भी यही कारण है कि आप और अन्य नेताओ में कोई खाश फ़र्क़ नहीं दीखता क्यूंकि उनको भी भुलने की आदत है और आपको भी हो गए है। जो भी हो अभी आपको ये साबित करना था कि आप औरो से अलग पर आपने तो खुदको उन्हीके खेमे में लाकर खड़े कर दिए।

अन्तः न ही आप भ्रष्टचार मुक्त भारत के प्रति अग्रसर दीखते और न ही सम्प्रायादिकता व अलगवादी से परहेज़ है ब्लिक जनता को गुमराह कर आप सिर्फ वोट बटोरने की राजनीती कर रहे है।  हालाँकि इस तरह के पार्टी देश में पहले ही अनेको  है उन्ही सूच में एक और नाम जुड़ गया जो कि आप (आआपा ) है।

रविवार, 9 मार्च 2014


क्या केजरीवाल देश को दिग्भ्रमित तो नहीं कर रहे है ?

केजरीवाल के आआपा हो या कांग्रेस पार्टी दोनों एक दूसरे के ही पूरक है शायद केजरीवाल अपना प्रतिद्वंदी मोदी के मानते है न कि राहुल गांधी इसीलिए तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का समर्थन लेने से परहेज़ नहीं है जबकि सर-ए -आम कांग्रेस को भ्रष्टाचारी समझते है और इसका  ढिढोरा पीटते दीखते है।  जबकि इतिहास गवाह है कि नई पार्टी का मुख्य मकसद होती है कि सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ मुहीम का शंखनाद करना न कि एक ऐसी पार्टी के खिलाफ जो कि पिछले एक दशक से प्रतिपक्ष के भूमिका में रहे हो जबकि पार्टी जिस सरकार के खिलाफ किये गए आंदोलन के गर्व में पल कर सरकार के विकल्प के रूप में अवतरित हुई हो और कुछ ही दिन में लोगों के दुआ के बदोलत छोटा सा पौधा एक वृक्ष हो पाया ताकि दमनकारी सरकार के तपस से निज़ात दिलाकर छाया दे, लोगों के  दुआ का ही असर था कि दिल्ली में तख्ता पलट हो पाया पर वर्त्तमान का परिदृश्य देखकर यही कहा जा सकता है कि तख्त पलटने के वाबजूद भी दिल्ली के लोगों के बुनियादी समस्याएं तस से मस नहीं हुई। यदि इसके लिए अगर किसी को जिम्मेदार ठहराया जाय तो अरविन्द केजरीवाल साहब ही है जिन्हों दिल्ली की सरकार भी बना लिए और सरकार गिरा भी दिए और छोड़ गए दिल्ली वाले को अराजक हालात में यद्दिप सरकार गिरते ही उनके द्वारा किये गए सभी फैसलों को ख़ारिज कर दिए गए। हालाँकि केजरीवाल साहेब अब दिल्ली को फ़तेह कर पुरे हिंदुस्तान को फ़तेह करने के लिए निकल पड़े है ताकि दिल्ली जैसी अराजक हालत पुरे देश में बनाने सके इसलिए तो अब उन्होंने कांग्रेस के वजाय भाजपा और उनके प्रधानमंत्री के उम्मीदवार मोदी के ऊपर ही निसाना साधते दिखे जाते हैं।

 कांग्रेस तो अपनी  वाजीगरी के लिए प्रचलित बहुत पहले से है इसीलिए तो अधिसूचना जारी कर जाट के लिए आरक्षण की मंजूरी  दे गई पर भ्रष्टाचार के बिल पर कानी काट गई जबकि जाते -जाते सातवी पे कमीशन को गठित कर गई ताकि केंद्रीय क्रमचारी का वोट उनको मिल सके।  दरशल में कांग्रेस का रवैया भ्रष्टाचार और महंगाई के प्रति कभी भी संतोष जनक न रही नतीजन सरकार ने जिस मुद्दा के आधार पर चुनाव जीत कर दुवारा सत्ता पर काबिज़ हुई कि १00 दिन के अंदर मंहगाई से देश के जनता को राहत देगी पर पूरी कार्यकाल में कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे मंहगाई में गिरावट दर्ज़ हो।  हालाँकि जाने से पहले जरुर आगाह कर गई कि दुवारा आने पर फिर से मंहगाई बढ़ेगी। आखिकार,  इतनी जल्दबाज़ी सातवी पे  कमिशन के गठन के लिए नहीं दिखाते। यही सरकारी क्रमचारी है जो एक तरफ रिश्वत का बाज़ार सजाये हुए और दूसरी  तरफ इनके भत्ते में दिनबदिन बेइंतहा बढ़ोतरी होती रही परिणाम स्वरुप मंहगाई असमान छुं रही है और अबतो सातवे असमान पर पहुचनी तय मानी जानी चाहिए जब सातवीं पे  कमिशन लागु हो जाती है।

हाल में आआपा के कार्यकर्ताके द्वारा जिस तरह से भाजपा के ऑफिस पर धावा बोल दिया गया इससे यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आआपा आरजकता फ़ैलाने पर अमादा है जो कानून व्यवस्था की मर्यादा का तो हनन करता ही हैं साथ ही किसी भयानक आपदा का भी न्योता दे रहे है। दरशल में पहले तो आआपा का मुद्दा हुआ करता था भ्रष्टाचार, पर अब सिर्फ एक ही मुद्दा रह गया है कि मोदी को रोको जबकि धीरे -धीरे करके पार्टी अपनी अहम् सभी मुद्दे को भूलते जा रहे है। यही कारण है कि चुनावी फायदे के लिए ही सुचिता और भ्रष्टाचार की  दोहाई देते है जबकि सरकार में जब थे तो भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई भी कारगर कदम नहीं उठाये सिवाय पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ मुस्किल से एक FIR दर्ज करवा पाये जिससे कुछ खाश हाने की  उम्मीद नहीं की जा सकती। नतीजन  शीला दीक्षित को केरल की उपराज्यपाल बना दी गयी। क्या कांग्रेस के इस कदम के लिए  आआपा धरना या आंदोलन करेंगे अभी तक का रुझान से यही लगता हैं कि अब इनके लिए उनके पास वक्त ही नहीं है क्युकीं चुनाव का विगुल बज चूका है और अब इस तरह का ही हरकत करेंगे जिससे सीधे चुनाव में फायदा होता दिखेगा।

केजरीवाल ने शायद ये जान चूका है कि कांग्रेस के ऊपर नज़र गड़ाएं रखने से उन्हे कुछ ज्यादा हासिल होने का आसार नहीं है इसलिए अब वह सिर्फ मोदी को ही टारगेट कर रहे ताकि मोदी के वोट बैंक में सेंध लगा सके।
वास्तव में केजरीवाल के निसाने के लिए हमेशा ऐसा आदमी को ही चुनते है जिसके इर्द -घूमने या ऊपर कीचड़ फेकने के बदले लोगों का सुहानभूति मिले यही वजह है कि इनदिनों मोदी के संदर्भ में जो पुरे देश में उबाल है केजरीवाल उनके ऊपर छींटा -कशी कर देश को दिग्भ्रमित कर सके ताकि आम चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके।

कभी तो केजरीवाल खुदको विकल्प प्रधानमंत्री का मानते है और खुद पर यकीं है तो इस कदर का आरजक मोहाल फ़ैलाने का क्या मतलब है ?, दमन और दबंग के राजनीती से निज़ात दिलाने आये थे पर खुद ही दमनकारी गतिबिधियों में लिप्त हो गए, क्या यही मुख्य कारण तो नहीं कि राजनीती से शभ्य और सज्जन लोग परहेज़ करते है?, ऐसा तो नहीं कि आजके राजनीती में सिर्फ यही सब जायज़ है जिसके बिना राजीनीति के धरातल पर स्थापित नहीं हो सकते है और यह आभाष केजरीवाल को हो चला है इसीलिए इस तरह के हरकतें के लिए जोर-सोर से अग्रसर है।  अन्तः जनाब, हम जनता है सब जानते है और आपसे सभी राजनीतिज्ञो से अनुरोध है कि सालीनता और संवेदना का परिचय दे तो हम, आप और हमारे देश के हित में होंगे।

सोमवार, 3 मार्च 2014

क्या होगा नितीश कुमार का ?

मोदी के नमो - नमो और केजरीवाल के कजरी नाच से लोट पोत होकर आवाम हो या मीडिया  राजनीती के अन्य  दिग्गज महारथी को भूलते जा रहे हैं कदाचित लोगों का इसी तरह के रवैया इन महारथीयों के लिए रहा तो  इस चुनाव के बाद राजनीती के दिग्गज महारथी से सारथी के भूमिका में नज़र आयेंगे।  वेसे तो इनके सूचि बड़ी लम्बी -चौड़ी है उन नामों को न सरलता से गिनाये जा सकते है और न ही सुगमता से इनके व्यख्यान किये जा सकते है फिर भी कुछ चर्चित नामों को लेकर इन दिनों गामके नुक्कड़ से लेकर देश की राजधानी में भी चर्चा खूब है एक तरफ लालू जो अपनी गवाएं हुए साख को वापस लेन के लिए पुरजोड़ कोशिश कर रहे हैं वही दूसरी तरफ मुलायम सेफई महोत्सव के उपरांत तीसरे गठबंधन के लिए दिन रात एक कर रहे है। ममता को आखिरकार अन्ना का साथ मिल चूका है इसीलिए इन नये साथी पाकर गदगद होकर जोर सोर से प्रचार- प्रसार  किया  जा रहा है ताकि अन्ना के साफ़ सुथरी छवि के बदोलत आम चुनाव में अपेक्षा से अत्यधिक कामयाबी  मिल सके।

इन दिनों यदि राजीनीति परिवेश में सबसे चौकाने वाली बात है तो बस थर्ड फ्रंट का पुनः अस्तित्व में आना  हालाँकि जो इनके पक्ष में अभी तक देखे गए या तो इनदिनों सियाशी गलियों में उनकी पूछ नहीं अथवा वे देश के दो बड़े राष्टीय दलों व गठबंधन से खुदको दुरी बनाने को मज़बूर है, यद्दिप ये सभी दल अतीत में देश के इन्ही दो बड़े दलों के गठबंधन के हिस्से रह चुके है अथवा बाहर से इनके गठबंधन के सरकार को समर्थन देते आये हैं। वास्तविक में थर्ड फ्रंट की कवायद यदि वाम दल करते है तो कुछ हद तक इसको वाजिव कहा सकता है पर जिस कदर सपा, जेडीयू , बीजेडी जैसे क्षेत्रिये पार्टी  इसके लिए उतसाहित है इनसे तो यही कयास लगायी जा सकती है कि इन पार्टियों के आलाकमान के जहन में कंही न कंही प्रधामंत्री बनने की उम्मीद दिख रही है जो इन बड़े राष्टीय दल के साथ कभी साकार नहीं हो सकते। उम्मीद बेशक़ जरा सी हो जो ढूंढने  पर भी मुश्किल से ही मिल पाये मसलन न के बराबर ही पर कोशिश पूरी निस्ठा से की जा रही है।

इन जरा सी उम्मीद से यदि सबसे ज्यादा अगर कोई लबालब है तो नितीश बाबू  है।  वह तो शायद २०१३ से पहले  और २०१३ के अंत तक पूर्ण रूप से निश्चिंत थे कि अबकी बार दिल्ली की गद्दी पर आसीन होने की बारह आना मौका है बाकि चार आना मुलयम और वाम दलों के मेहरबानी से मिल ही जायेगा इस उम्मीद का सिलसिला पिछले एक शाल से अपने मन में बिठा रखे थे। काश, शायद चुनाव तक तो यही सब चलता यदि हाल में किये गए मीडिया द्वारा सर्वे चौकाने वाले नहीं होते इसलिए बिना विलम्ब के पुरानी गठबंधन को तोड़ नये गठबंधन की स्वरुप तैयार करने लगे। दरशल में पहले नितीश बाबू अस्स्वत थे कि लालू का दिन तो अब गए जबकि कांग्रेस विकल्प के आभाव में घूम फिर कर उनके पास ही आएगी उस परिस्थिति में कांग्रेस चाह  कर भी नहीं मना  कर सकती हैं तब नितीश बाबू बहुत कुछ कांग्रेस से मना लेती व मानने के लिए राज़ी कर लेते है पर अफ्शोष कांग्रेस ने घास ही नहीं डाली और हार थक के नितीश बाबू के पास तीसरे विकल्प को छोड़ कर कोई और विकल्प ही नहीं बचें थे।

 " अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना" ये जो कहावत है  जिसको कोई आज के परिदृश्य में चरित्रार्थ करता है तो वह नितीश बाबू जो खुदको शुशाशन बाबू कहने और सुनाने में आनंद से प्रफुलित होते है  पर भाजपा से गठबंधन जैसे तोड़ लिया मानों  शुशाशन को मार्ग छोड़कर कुशाशन के मार्ग पर दौड़ने लगे।  जो बिहार पिछले आठ शाल में तरक्की के कई मिशाल पेश किये , बड़ी तेजी विकास के पथ पर अग्रसर बिहार का  पुरे देश में गुणगाण किये जा रहे थे पर वे बीते कल हो गया था जबकि  हाल -फिलहाल  बिहार का चर्चा पटना में बम विस्फोट के लिए तो कभी नालंदा के दंगे के होने लगे। नितीश बाबू  खुदको  मोदी के समकक्ष के नेता समझते थे अचानक देश के राजनीती से प्रायः  ग़ुम हो गए।  अब तो नितीश बाबू बिहार में भी खुद को नहीं ढूंढ पा रहे और लालू के हाल पर तरस खाने वाले नितीश बाबू के लिए भी वे दिन दूर नहीं जब लालू से फिसड्डी  साबित होने वाले है क्यूंकि  आम चुनाव के बारे में जो बिहार के लोगों का रुझान देखने को मिल रहें है उसमे जेडीयू  को दहाई अंक भी नहीं मिल पा रहे। बरहाल आम चुनाव में नितीश बाबू को  मटिया  पलीत होना तय है जबकि अगले शाल बिहार में विधान सभा चुनाव होना हैं जिसे नितीश बाबू अकेले दम पर हरगिज़ फ़तेह नहीं कर सकते है।
नितीश बाबू ने अपनी महत्वकांक्षी आकांक्षा के लिए १७ शाल के गठबंधन को तोड़ने में तनिक भी देर नहीं लगाये ताकि अपना सपना को संजोये रखे क्यूंकि गठबंधन में रहकर इनको इस तरह के सपने देखना कतई  मुनासिब नहीं थे पर जिस कदर बिहार की  राजनीती  समीकरण बनता दिख रहा हैं उसमें नितीश बाबू को अपनी जमाये हुए साख को बचा पाना भी सबसे बड़ी चुनौती होगी क्यूंकि आरजद और कांग्रेस की गठबंधन पारूप लगभग तैयार किये जा रहे है वही एलजेपी और बीजेपी का ओपचारिक तोर पर गठबंधन हो गए है। आखिरकार नितीश बाबू जिस फ्रंट के लिए अग्रसर दिख रहे है वे बिहार के राजनीती में कुछ खास करते  कभी नही देखे गए है और उनके दमखम से नितीश बाबू अगर चुनावी नैया पर लगाने को सोंच रहे तो उनके इस सोंच से जनता परे है जबकि नितीश बाबू  के लिए आगमी आम चुनाव अहम् होनेवाले है जो इनके अगले शाल के विधान सभा चुनाव का भी रुझानों को पेश करेगी।  अभी देखना बाकि है कि नितीश बाबू का जादू अब भी बरक़रार है बिहार के लोगों के बीच अथवा उनका जादू  उतर चूका है।