शनिवार, 26 अप्रैल 2014



कौन है धर्मनिरपेक्ष यहॉँ ?


दिन-ब - दिन राजनीती के स्तर बद से बदतर होते जा रहे है इसीलिए तो ज्यादातर पार्टिया असल मुद्दा को भुलाकर सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को ही अहमियत दे रहे है। जबकि सत्तारूढ़ पार्टियों के पास भी भुनाने के लिए उपलब्धियाँ के नाम पर कोई बहुत बड़ी सूचि नहीं है परिणामस्वरूप सारे सियाशी दल और उनके नेता सिर्फ धर्मनिरपेक्षता के बहती दरिया में गोटा लगाकर चुनावी भँवर से उबरना चाहते है। कई कदावर नेता जो देश के बड़ी सियाशी दल से तालुकात रखते है उन्होंने तो सभी तरह के मर्यादा लाँघ रहे है और इस तरह के ओछे बयांन दे रहे है ताकि एक तबके को खुश कर पाये जिसे शभ्य समाज हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकते चाहे वे किसी भी धर्म या जाति का क्यूँ ना हो। ऐसे में सियाशी गतिविधियाँ न सिर्फ सियाशी चाल तक सिमित रह गए है ब्लिक व्यकतिगत छीटाकशी व व्यक्तिगत प्रहार का रूप भी अख्तियार कर चूका है। यँहा प्रश्न यह उठता है कि मुसलमान को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हुए जो पार्टी देश व प्रदेश के सत्ता पर काबिज़ हो जाते है अथवा काबिज़ होने के ख्वाहिश रखते है, उनके लिए मुसलमान सिर्फ वोट बैंक ही बनकर रह गया अथवा सत्ता पर काबिज़ होने के बाद इन पार्टियों ने कभी मुसलमानो के लिए संजीदा से काम भी किये है। यदि फिलहाल मुसलमान के जो हालत है उनको देखकर तो यही कहा जा सकता है " कुछ भी नहीं"। 

 देश में वही मुसलमान पिछड़े के श्रेणी में आते जिनके सोच धर्म से शुरू हो कर धर्म पर ही खत्म हो जाता है जबकि उनके ही समुदाय के लोग उनके धर्म के प्रतिबद्ध सोच को भलीभांति जानते हुए इनका पूर्णतः इस्तेमाल कर अपने स्वार्थ को सिद्धि में करने लग जाते है। आज देश में मुसलमान का जो हालत है इसके लिए अगर अत्यधिक कोई जिम्मेवार है तो वह है उनके ही धर्मगुरु जो फ़तवा का एलान करने में अग्रसर रहते और अपने फायदा के लिए धर्मनिरपेक्षता के आध को लेकर अपने ही हित को साधते रहते है जबकि राजनीती पार्टी इन धर्मगुरु को निजी लाभविन्त करके पुरे समुदाय का वोट एकत्रत कर लेते है। दरअसल देश में मुसलमान को छोड़ दें तो और भी बहुत से धर्म है पर राजनीती पार्टी सिर्फ मुसलमान का क्यों टारगेट करतें है अथवा मुसलमान का ही वोट पाने के लिए खुदको धर्मनिरपेक्ष पार्टी के श्रेणी में लाने के लिए प्रयासरत क्यों दिखते है और खुदको धर्मनिरपेक्षता के सुभचिन्तक बतलाने से थकते क्यों नहीं?, मसलन तकरीबन सभी राजनीती पार्टी को पता चल चूका है,  इनके समुचित १७-२० प्रतिशत वोट एक मुष्ट हो कर किसी एक पार्टी के समर्थन में  जाती है, जो सरकार बनाने के लिहाज़ से अत्यंत कारगर सिद्ध होता है। 

हालाँकि आज़ादी के पैंसठ साल बीत जाने के वाबजूद भी देश के मुसलमान एकजुट होकर अभी तक वोट इसलिए करते आये है कि उनका सरकार के ऊपर पकड़ बने रहे ताकि अन्य के मुकाबले में सरकार उनके सुरक्षा के लिए अत्यधिक संवेदनशील रहे। जबकि सत्तारूढ़ पार्टी हो या कोई अन्य पार्टी उनके प्रति घड़ियाली आँशु बहाने में ही सब एक दूसरे को पछाड़ने में लगे रहते है पर हक़ीक़त में कुछ और ही होता है इसी वजह से समय पर समय अपने फायदे के लिए समुदायिक रंजिश भी कराने से परहेज़ नहीं करते है ताकि इन समुदाय के बीच में भय का वातावरण बनी रहे अन्तः इन्ही भय के कारण चाह कर भी उनके पार्टी को नज़रअंदाज न कर सके, यही कारण है कि मुस्लिम वर्ग के अधिकाधिक लोग समाज के सभी तबके में रहते हुए भी दूसरे तबके से दुरी बनाये रखने को ही पसंद करते है ताकि उनके धार्मिक सोच को ठेश न पहुंचे। यद्दिप अब आहिस्ता -आहिस्ता ही सही पर पढ़े -लिखे लोग इस तरह के सोच को खारिज कर समाज के सभी तबके के साथ घुलमिल रहे है और खुदको समाज के अनुरूप ढाल रहे है।  ऐसे में राजनीती पार्टी को भी चाहिए कि धरम और जाति को छोड़कर दूरगामी योजना के साथ चुनावी दंगल को फ़तेह करे। 


धर्मनिरपेक्ष समाज का कल्पना तभी मुमकिन है, जब समाज के सभी धरम को समान दृष्टिकोण से देखा जाय और मंसूबा पाक-साफ़ हो अपितु किसी एक विशेष धर्म के लोगों को इसलिए अहमियत देना कि उनसे अपनी राजनीती हित को पूरा कर सके, यह सोंच धर्मनिरपेक्षता को कभी जीवित रखने के अनुकूल नहीं माना जा सकता। जबकि यही नेता अपने धरम को खुलेआम धारण करने से भी हिचकते है अथवा इसलिए धारण नहीं करते दिखतें है कि उनसे उनको सियाशी फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। जबकि किसी और धर्म के प्रतीक को सारे-ए -आम धारण के लिए अग्रसर रहते है ताकि इनसे उन्हें सियाशी फायदा मिलें। ऐसे में एक सभी तबके के लोगों को ही आत्मचिंतन करने पडेंगे कि जो लोग बिना फायदा के अपने धर्म को नहीं पालन करते है फिर बिना मतलब के दूसरें के धर्म के प्रतीक को धारण बिना किसी हिचक के क्यों कर रहे है व इतना सम्मान क्यों दे रहे है?

इन दिनों मुस्लिम वर्ग के लोगों में सुधार की काफी गुंजाईश है जिसे बिना किसी स्वार्थ और निष्पक्षता के साथ किया जाना आवश्यक है। लगभग में मुस्लिम वर्ग के आधी आवादी शिक्षा से वंचित है और आधी से ज्यादा आवादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने पर बाध्य है इसलिए ज्यादातर बच्चे उपयुक्त मार्गदर्शन के आभाव में भटक जाते है या भटके हुए है, जिन्हे बिना विलम्ब के समाज के मुख्यधारा के साथ जोड़ा जाना चाहिए और उनको बुनियादी सुविधाएँ व सहूलियत मुहैया करवाये जाय, जिनसे ज्यादा से ज्यादा वे लोग भी उच्च शिक्षा हासिल कर, एक बेहतर कल का नीव रख सके।

आखिकार सियाशी दल धर्मनिरपेक्षता के आढ़ मेंअपनी सियाशी आकांक्षाएँ पुरे करते आये है उसे यधासिघ्रा बंद  करे, अपने सियाशी हित के खातिर विभिन्न धर्मों के बीच उन्माद पैदा करने के वजाय समाज के सभी वर्ग और जाति को एक सूत्र में बांधने का काम करे तो देश और आवाम दोनों के लिए बेहतर होंगे। विकसित भारत का सपना देखना कदापि संभव नहीं है जबतक सभी वर्ग, जाति, धर्म के लोगों के विकास में भागीदारी नहीं दिया जाता है। अन्तोगत्वा सियाशी दल  अभी तक धर्मनिरपेक्षता रामवाण चुनावी नुसखा के रूप में अभी तक उपयोग करते आये, शायद भविष्य में इतना कारगर साबित न हो क्यूंकि कि सभी तबके लोग इन तरह के चुनावी नुसखा से वाक़िफ़ हो गए और आनेवाले वक़्त में इसका कोई खास महत्व नहीं रह जायेगा। 

बुधवार, 23 अप्रैल 2014



 PM खुद ही बन गए बेचारे …!


बेचारे मनमोहन सिंह जिनके मन में भी तरप होंगे, वेदना होंगे किन्तु किसे सुनाये और कौन सुने?, क्यूंकि मौका को भी खुद ही गँवा दिए फलस्वरूप PM खुद ही बेचारे बन गए। बेशक हाल में उनके खिलाफ जो भी घटनाएँ घटे है उनसे आहत होना स्वाभाविक है। हालाँकि जो भी घटनाएँ सामने आये इनसे एक ही बात का खुलाशा होता है कि गाँधी से प्रभावित हमारे प्रधानमंत्री गांधी जी के तीन बंदरों के अनुरूप खुदको प्रस्तुत कर दिए अर्थात बुरा मत कहो इसीलिए खामोश रहे, बुरा मत सुनो इसलिए अपने बोरोक्रैसी का अनसुना करते रहे , बुरा मत देखो इसीलिए अपने आँख बंद कर लिए ताकि घोटाला होते रहे पर प्रधानमंत्री अपने आँख और कान को बंद करके अपनी चुपी साधे रहे। फिर भी इनके ही इर्द -गिर्द के लोंगो ने जब इन पर आरोप लगाना आरम्भ कर दिए कि सब कुछ संज्ञान होते हुए भी खामोश रहे, जिससे इनके ख़ामोशी  पर सवाल उठाना लाज़मी है आखिर सबकुछ जानते हुए प्रधानमंत्री खामोश क्यों रहे? , यद्दिप बुद्धजीवियों का मानना है गांधी परिवार का कृतज्ञता  के कारण ये खामोश रहे जबकि एक के बाद एक घोटाला होते रहे और वह जनपथ के तरफ देखतें रहे कि शायद अब बक्श दे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ नतीजन पिछले दस साल में देश में किसीका विकास हुआ तो वह था भ्रष्टाचार और घोटाला जो अपने चरम सीमा पर थे।

 प्रधानमंत्री के खामोशियों के पीछे का क्या मनसा थी ?, क्यूंकि एक दशक तक खामोश रहना सबके बस की बात भी नहीं होती, ऐसा तो नहीं था कि प्रधानमंत्री खुदको जनपथ के प्रति सम्पर्पित कर दिए थे और उनके हर एक फैसले को स्वीकृति दे रहे थे।  प्रधानमंत्री के कुर्सी वास्ते इस तरह का समर्पण और लापरवाही दिखाकर प्रधानमंत्री के ही गरिमा को तार -तार करते रहे।  क्या पिछले दस साल में उनको कभी अपने व्यक्तित्व का ख्याल नहीं आया या व्यक्तित्व का ख्याल आने के वाबजूद प्रधानमंत्री ने  कुर्सी के खातिर उनकों अपने मस्तिक टिकने नहीं देतें थे और तुरंत ही अपने मस्तिक से बाहर निकल फेकते थे? आज देश के लोगों के जहन में भी बहुत -सारे ऐसे प्रश्नो ने हलचल मचाने पर आमादा है फिर भी लोगों को कभी तो उनके ख़ामोशी पर तरस आता है तो कभी उनके मौनव्रत पर झुंझलाहट आता है आखिर जब उनकों बलरहित  कर दिए गए थे ऐसे में क्या जरूत थी वे  कुर्सी से चिपके रहे?, जितना शहनशीलता  उन्होंने प्रधानमंत्री बने रहने के लिए दिखाए यदि थोड़ी भी संवेदना सौ से सबा सौ करोड़ जनता के लिए दिखाएँ होता हरगिज़ आज जिस कदर उनके विरुद्ध मौहाल है ऐसा कतई नहीं दीखता और दीखता भी तो लोग सिरे से खारिज कर देता।

जिस जनपथ के लिए उन्होंने  सबकुछ न्योछावर कर दिए पहले से ही त्याग की मूर्ति की ख्याति कोई और झटकर ले गए अन्तः उनके हिस्सा में सिर्फ और सिर्फ फजीहत ही आया।  ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कोई उनके बचाव में भी आगे नहीं आया फिलहाल मीडिया और जनता दोनों उनके ख़ामोशी पर कोस रहे है हालाँकि फिलहाल देश के प्रधानमंत्री के कुर्सी पर वे ही आसीन है पर भविष्य में जब कुर्सी से बेदखल होंगे और सीधे -सीधे जनता से मुखातिर होंगे तब जनता के कई सवाल होंगे जिसका जवाब उनकों देना ही होगा जो उनके लिए सहज नहीं होगा ।


शायद इतिहास ही उनके मौनव्रत का आकलन स्पष्ट रूप कर पाये और ये भी हो सकता है कि थोड़ा बहुत टिप्पणी करके छोड़ दे पर देश के आवाम जल्दी से आपके ख़ामोशी को कदापि नहीं भूलेंगे क्यूंकि ख़ामोशी के कारण  देश का लाखो करोड़ का नुकशान हुआ है जिसका भरपाई करने में न जाने कई साल लग जायेगा फिर भी मुमकिन न हो।  वास्तव में प्रधानमंत्री के ख़ामोशी के पीछे जो भी  माज़रा हो लेकिन सरकार और सत्ताधारी पार्टियों का भी ही जवाबदेही बनता था की वे रोके पर किसी ने भी रोकने का प्रयास नहीं किया, जिसका परिणाम तो उनको भुगतना ही पड़ेगा क्यूंकि आरों की राजनीती करियर के बहुत ही दिन बाकी है ऐसे में कब तक छुपी साधे रहेंगे अथवा दिग्भर्मित करते रहेंगे?  एक दिन तो इन सभी घोटाले का कच्चा चिटठा लोगों के समक्ष होंगे ही इनका हिसाब सबको देना ही होगा जिसे चाह कर भी नक्कार नहीं सकते।  


आखिरकार गैर राजनीती व्यक्ति को यदि राजनीती के सबसे पसींदा कुर्सी आसानी परोस दें तो  इसके पीछे छुपे हुए केवल एक ही मनसूबे होते है कि गैर राजनीती व्यक्ति सिर्फ नाम के लिए उस कुर्सी का शोभा बढ़ाते और परदे के पीछे राजनीती के कदावर नेता जो गॉडफादर के भूमिका में रहते है वे अपने सभी मनसूबे को पूरा कर लेते है। लाछन तो कुर्सी में बैठे व्यक्ति को ही लगना जबकि उपलब्धियाँ लेने के होर में राजनितिक व्यक्ति सबसे आगे दिखेंगे फिर भी गैर राजनीति व्यक्ति अपने को खुश नसीब समझते है कुर्सी पर आसीन होकर क्यूंकि इस अहोदा उन्होंने बिना संघर्ष और त्याग के  मिल जाता है इसकी के बदौलत खुदको इतिहास के पन्नो में अपना नाम दर्ज़ करबा लेते है।  अन्तोगत्वा सबसे बड़ा सवाल है की ऐसे व्यक्ति को राजनीति के शीर्ष पद पर बैठना चाहिए जो इनसे तालुकात  रखते ही नहीं जबकि राजनीती के कदावर नेता व मुखिया आसानी से गैर राजनितिक व्यक्ति कुर्सी भेंट में देकर अपने सभी मंसूबा को साध जाते है, क्या वास्तविक में क्या जनता से विश्वासघात का मामला नहीं बनता है और क्या इसके लिए इन व्यक्ति के खिलाफ कानून में सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए ? जरा सोचिये ……!

रविवार, 20 अप्रैल 2014


नेताजी उल्लू न बनाये !

वास्तव में क्या नेताजी हमेशा जनता को उल्लू ही बनाये या लोग ऐसे ही इस तरह के मुहावरे को कहते रहते है?  राहुल गांधी यदि यही बात नरेंद्र मोदी से कहते है क्या यह तर्कसंगत है?, क्यूंकि आज़ादी के बाद उनके पार्टी हो या पुरखों ने तकरीबन साठ  साल  तक देश पर हक्कुमत किये जबकि बीच -बीच में विपक्षी पार्टीया को भी मौका मिला जो बहुत ही कम थे, ऐसे में राहुल गांधी किसी और से कहे की आप उल्लू न बनाये ! तो आपको क्या समझेंगे?


पिछले दस साल में चारो तरफ भ्रष्टाचार और आराजकता ही देखने को मिला, हर तरफ लूट ही मचा था क्या नेता, क्या अभिनेता, बाबू  और साधु सब लूट रहे थे। इस कदर लूटा मचा रखे थे की दसों दिशाओ में सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार विदद्मान था इनके प्रकोप से तीनो लोक में से एक लोक भी अछूत नहीं रहे। यही वजह था कि भ्रष्टाचार का तांडव नृत्य से बाबुओं और नेताओं के इनकम का ग्राफ दिन दूना -रात चुगना हुए जा रहे थे हालाँकि कुछ व्यापारी भी पीछे नहीं थे अवसर का भरपूर फायदा उठाया और जी भर के मुनाफा वसूली की अथवा व्यवस्था के दयनीय स्थिति की खामिया को मुनाफा वसूली के लिए पुरजोर इस्तेमाल किये। इस तरह के हालात के लिए कौन जिम्मेवार थे और कौन थे जो जवाबदेहि से बचते रहे? कोई और नहीं ब्लिक कांग्रेस पार्टी और इनके कर्णोद्धार क्यूंकि सरकार में मंत्री हो या संत्री ये तो आपके इसारे का ग़ुलाम थे जो कदापि ऐसा नहीं करते यदि आप चाहते अर्थात जो भी घोटाले हुए पिछले दस साल में इसके लिए प्रत्यक्षरूप से कांग्रेस पार्टी और उनके मुखिया जिम्मेवार है जिसे  कतई आप खारिज नहीं कर सकते है।  इस तरह के परिदृश्य में यदि आप किसी अन्य से कहे कि नेताजी उल्लू न बनाये, लोग को हसीं ही आएगी क्यूंकि ये काम तो आप बरसो से कर रहे है और इस सुबह मुर्हत पर इसको रोका नहीं गया तो आप हरगिज़ नहीं रोक पाएंगे।


 संसार में जितने भी प्रदार्थ मौहजूद है वह खुद ही जीवन और मरण का सूत्रधार होते है बस इसके अनुकूल वातावरण मिलाना चाहिए, जैसे कुछ चने को हम जमीं के अंदर बो दें तो कुछ दिनों के पश्चात उसमें जान आ जाती है पर इस चने को पकने के उपरांत पोधे से अलग करके घर में दाल बनाने के लिए रखे गए थे अर्थात जब ये घर में रखे चने थे तो निर्जीव थे और जब इसे जमीं के अंदर डाला दिया  तो मिटटी, जल, वायु और प्रकाश  के सम्पर्क में आकर इसमें जान आ गयी व पुनः जीवित हो गए अर्थात सत्ता जो नेताओं के जमीं है जिसके ऊपर काबिज़ होते ही ताक़त, दौलत, शौहरत के सम्पर्क में आ जाते है मसलन कुछ समय के पश्चात भ्रष्टाचार,  परिवारवाद  और आरजकता शब्द के मायने ही इनके लिए बदल जाते है जिसके विरोध में बरसों संघर्ष करते दिखे थे अब एक -एक करके अपनाने लगते है इससे यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है की जब तक ये सत्ता से दूर रहे तब तक  इनके अंदर लोभ और स्वार्थ मरणावस्था में थे जैसे ही सत्ता से रूबरू हुए इनके लोभ और स्वार्थ पुनःजीवित हो गए। मौजूदा परिवेश में नेताजी कुछ भी कर ले परन्तु  न इन पर अंकुश लगा सके है और चंद गिने चुने नेताओ को छोड़ दे ज्यादातर इस करतूत में ही लिप्त पाये गए है। 


फिर भी इस तरह के तर्क सभी वस्तुओ और नेताओं के लिए सटीक नहीं बैठता उदाहरस्वरूप लाल बहादुर शाश्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे भी नेता इस देश को मिले, जनता के साथ नेतागण भी उनके ईमानदारी और निस्ता के कायल रहे है और आज भी उनके ईमानदारी को बेहिचक कहे और सुने जाते है। ऐसा क्यों है कि सत्ता पर आसीन होने के वाबजूद वह अपने निस्ता और ईमानदारी पर अटल रहे, इतने सुख सुविधाये होते हुए भी उनके न अभ्यस्त हो पाये और न ही उनके अधीन हो गए। हालाँकि इनके समय में भ्रष्टाचार पूरी तरह से विलुप्त हो गए थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना जरूर कह सकते है कि इन्हे कभी छुं नहीं पाये।


नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों के बीच अनेको धारणाएँ है, जँहा एक वर्ग में डर और भय की बात की जा रही है वँही बहुत से लोगों का मानना है कि उनके प्रधानमंत्री बनने से कॉर्पोरेट समाज का ही भला होगा जबकि गरीब और मध्यम वर्ग हास्य पर ही रहेंगे। इस तरह के अफवाहे अटल जी के बारे में भी फैलाये गए थे क्यूंकि  कुछ राजनीती पार्टीया के पास ज्यादा कुछ कहने के लिए नहीं होते और पिछले पैसंठ साल से महज़ब और जाति में भेदभाव के जरिये ही वोट समेटते आ रहे है।  इस तरह के अफवाह से वोट बटोरने का काम करते है क्यूंकि सरकार में रहते हुए जनता को उपेक्षा करते रहते है और चुनावी मोहाल में उनके भाषण और उद्घोषणा को जनता जब कोई भाव नहीं देते है तब इस तरह का अफवाह फैलाते है और इसे धर्मनिरपेक्षता का संज्ञा दें देतें है। यद्दिप इस तरह के ढकोशला को भलीभांति जानते हुए भी जनता और धर्म के कुछ ठेकेदार अपने स्वार्थ के खातिर प्रचार -प्रशार इस कदर करते है कि समाज में डर और भय का वातावरण बन जाय ताकि लोग सब कुछ भूलकर उन्ही को वोट दें जिनके काम काज कभी भी संतोष जनक नहीं रहा वाबजूद हमलोग २१ शदी में पहुँच गए लेकिन हमारे नेताओ के पास वही फार्मूला है जो २० शदी से इस्तेमाल करते आ रहे वोट को धुर्वीकरण  करने के लिए। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने और उनका कार्यकाल भी  काफी संतोष जनक रहा और वर्तमान भारत के मज़बूत अर्थव्यवस्था  के लिए काफी हद तक श्रेय वाजपेयीजी को ही मिलाना चाहिए। इस तरह का वातावरण बनाना जहाँ एक खेमे के लिए मज़बूरी है वही नरेंद्र मोदी के लिए यह साबित करना बहुत ही कठिन है कि विपक्षी पार्टिया द्वारा मुद्दे के आभाव में इस तरह के अफवाहे फैला जा रहे ताकि लोग आँख मुंड कर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट दाल दें। वाकये में ये लोगों को समझाना काफी टेढ़ी खीर है जिसे पकाना सबके लिए संभव नहीं है और यह चुनाव के बाद ही शिद्ध हो पायेगा कि मोदी सफल हुए अथवा असफल।


इस वक्त जनता को चाहिए कि अपनी मतदान का प्रयोग सावधानी से करे क्यूंकि सौ साल पुरानी पार्टी हो या हाल में बनी पार्टी सबके सब एक खेमे में है और नरेंद्र  मोदी के विरुद्ध है।  इन दिनों भ्रष्टाचार और मंहगाई को भूलके सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को ही अहमियत दे रहे है क्यूंकि फिलहाल केवल एक मुद्दा के बदौलत सब संसद में पहुँचने का मनसा बना रखे है।  अन्तः जो पार्टी भ्रष्टाचार और घोटाले को रोकने के लिए बनी थी अब उन्हें भी कुछ याद नहीं रही सिर्फ संसद में पहुँचने के सिवाय। वास्तव में प्रदेश के सरकार को शहीद करके इसीलिए आनन -फानन में संसद के तरफ कूच कर गए इतने जल्दी है कि अब किसी भी मापदंड और मर्यादा को लांघने के लिए तैयार है बस वहां पहुचना है कारण ये भी है इस बार चूक गए तो फिर पांच साल तक मौका मिलेंगा अथवा नहीं किसीको भी पता नहीं। ऐसे हालात में क्या फर्क पड़ता है कि माफिया हो अथवा अपराधी बस सहयोग करने वाला चाहिए क्यूंकि सिद्धांत के साथ गिने चुने लोग ही वहां पंहुच पाते है।


किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता में परिवर्तन आना अनिवार्य है इससे न कि सिर्फ पारदर्शिता राजनीति में देखने को मिलेंगे ब्लिक प्रतिपक्ष और विपक्ष के काम -काज का आकलन भी सही पैमाने पर हो पायेगा। सियाशी दल जनता से सरोकार रखने वाले सभी मुद्दे को बारीकी से अध्यन करेंगे और उसके समाधान के भी विकल्प ढूढने का प्रयन्त करेंगे जो कई मायने में जनता के लिए लाभदायक सिद्ध हो पायेगा। सत्ता में परिवर्तन से पनपते भ्रष्टाचार और परिवारवाद को भी नकेल कशा जा सकता है। अन्तः जनता अपने तुलात्मक दृष्टि कोण से प्रतिपक्ष और विपक्ष के काम - काज को सहारेंगे अथवा भर्तसना करेंगे जो कि प्रतिस्पर्धा और सुचिता राजनीती दल लाने को बाध्य होंगे अन्यथा जो सियाशी पार्टिया जनता के अनुरूप नहीं दिखेंगे वे यथाशीघ्र राजनीती गलियारों से गायब हो जायेंगे।


आखिर कार जनता को ही बताना है कि उन्हें उल्लू कौन बना रहे और इसका फैसला अपने मतदान के जरिये करेंगे? वैसे भी फैसला के घडी समीप ह, एक महीने के अंदर सब कुछ साफ हो जायेंगे क्यूंकि १६ मई को चुनाव परिणाम घोषित किया जाना है।  अन्तः राजनितिक पार्टिया अपने मर्यादा में रह कर भाषा का इस्तेमाल करे और लोकतंत्र के इस शुभ घडी में सिर्फ जनता को ही बोलने का अवसर मिलना चाहिए कि " नेताजी उल्लू न बनाये!"

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014




 कितनो को टोपी पहनाकर, फिर आ गए केजरीवाल !


धरना को भर्ना लगाकर, लो आ गए भ्रष्टाचार के काल !

कितनो को टोपी पहनाकर, फिर आ गए केजरीवाल !

वानारस से दिल्ली गूंज रहे, थोक रहे है तलबे पर ताल !

 खाँसी तो मुफ्त के पानी में थी, अब तो सब है खुशहाल !

भाग गए मैंगो मैन, दरअसल में अम्बानी हुआ मालामाल !

चांटे खा कर गाल भी फुला,क्यूँ न दिखा मीडिया में  बबाल !

मीडिया को जेल में डालेंगे ही,क्यूंकि इसी ने कर रखा है बुराहाल !

जुझारू  का जरुरत नहीं, झाड़ू लगावाओ वर्ना पार्टी से निकाल !

भ्रष्टाचार तो बस बहाना था, सम्प्रदायिकता का देखो कमाल !

दिल्ली तो छोटी पर गई, यूपी बिहार पर नज़र है फिलहाल !

शाशन में आसान नहीं , छोड़ो दिल्ली है वाकये  में कंगाल !

कांग्रेस तो है खेत की मूली, पर मोदी का खीच लेना है खाल !

बदहज़मी ही तो हुई,२० हजार के थाली में कच्ची रह गयी दाल !

बिका हुआ टिकेट वापस नहीं होगा , जो करना है कर ही डाल !

सबके है अपने-अपने सपने , जनता का आखिर क्यूँ करे ख्याल !

फिर मिलोगे या भाग जाओगे, आपसे करना है बस एक सवाल !

 कितनो को  टोपी पहनाकर, फिर आ गए केजरीवाल !












 उद्घोषणा व घोषणा पत्र नहीं ब्लिक इच्छाशक्ति को जनता टटोल रही है.…





समस्त देश में चुनावी सरगर्मी खूब जोरों पर हैं हालाँकि आम चुनाव का श्री गणेश ७ तारिक के मतदान के पश्चात् शुरू हो गया।  इस असमंजस की  स्थिति में जंहाँ एक खेमे  बड़ी बेसर्बी से मतगणना के उस पल के इंतजार में है जब वोटिंग मशीन से नयी सरकार या भविष्य के राजनीती के मार्ग को परस्त करेगी जो भी हो जिनके लिए वह चुनाव अनुकूल है बाके वे उनके लिए एक-एक पल बरश के सामान लगता होगा पर उनके लिए क्या जो इस चुनाव के बाद अपने रुतबे  और रुसूख  दोनों से हाथ धोना तय है वह तो शायद उस पल को रोकने में असमर्थ होते भी रोकने की मंशा लेकर यही कहते होंगे काश ऐसे वक्त जरा ठहर के ही आ !

इंसान कभी -कभी अपने रुतबे और रुसूख के बल पर पुरे ब्रह्मण्ड को उलट फेर करने की पुरजोर कौशिश करते और अपने को कभी कभी -कभी अजय या अविनाशी मान लेते है इसलिए उस कुदरत को आरे हाथ लेने से भी हिचकते नहीं हालाँकि इतिहास ने कभी ऐसे प्राणी को भाव नहीं दी अर्थात प्रकृति हमें सदेव अहसास कराती रहती है कि सब कुछ परिवर्तन के प्रतीक है यानि इस ब्रहाण्ड में वक्त के साथ -साथ सब कुछ खुद ही परवर्तित होते रहते है जो निविरोध, क्रमबद्ध, निरंतर देखे जा सकते है फिर भी सत्ता के गलियारों में बैठे मुट्ठीभर लोग अपने स्वार्थ और खुदगर्जी में आसक्त होकर आम आदमी के उम्मीदों पर पानी फेरने से बाज नहीं आते है क्या वे भूल जाते है कि  इस तरह के बचकाना हरकत करने का अंजाम विपरीत ही होनेवाला है। जिस सरकार अपनी हार के उस मनहूस घडी को न चाह कर भी इंतज़ार करनी पर रही है और अभी से तैयारी शुरू कर दी कि उस विपरीत काल में  कैसे उस परिस्थिति से सामना कर पायेगी जिसके पूर्वानुमान से ही कलेजा दहल जाती है। बेशक इस तरह के प्रतिकूल घडी से बचा जाता यदि अपने काम को स्वार्थहीन होकर उन्हें अंजाम तक पहुँचाती जो भी हो अब सिर्फ प्रायश्चित और पश्चाताप के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है और इस प्रायश्चित पश्चाताप  के दौरान फिरसे उनको मौका मिला है कि अपने को दीर्घ संकल्प के साथ मजबूत इरादा लेकर आगे के बारे सोचनी शुरू कर दे ताकि  देश उनकी पश्चाताप  के अविधि उनकी निस्वार्थता को परख पाए  और भविष्य में कुछ सकारत्मक उनके रुख के बदोलत लोगों का रुझान में बदलाव देखने को मिले।

पार्टी या संगठन जितने उतावले से उस आन्दमय पल को निहार रहे होते है कि कब सत्ता उनके हवाले हो?, क्या सत्ता के लालयित और बरसो से हतोउत्साहित को सत्ता मिलते ही कुछ इस कदर मदमस्त तो नहीं हो जाते है कि सत्ता के सिवाय कुछ और सुहाते ही नहीं  सब कुछ हरा भरा दिखने लगते है क्या अन्तः  लोगों के उम्मीद और जरुरत को भूल कर सत्ता के भोग भोगने में लीं हो जाते है ?

लोंगों के जहन में यह संदेह हमेशा बना ही रहता है कारणस्वरूप ऐसे में तनिक भी कम होने का आसार भी  नहीं देखा जा सकता है। विडम्बना है अब तक इस तरह के सरकार से देश लालायित ही रहे जो देश और जनता के अपेक्षा और आंकक्षा के लिहाज़ से २४ कैरट शुद्धता पर खड़ी उतरी हो या सभी पैमाने पर सर्वोपरी रही हो।  देश ने अतीत से लेकर अबतक के सभी सरकार को देखा जो जनता के हित को दरकिनार कर अपने हित और राजनीती के हित में ही फैसला लिए नतीजन सरकार की नाकामयाबियां ही जनता को सिर्फ मायूशी और वेदना ही दिए। यद्दिप देश पिछले पैंसठ साल में कई घोषणा पत्र और जाने अनेको लोकलुभावन नारे सुने जो सीधे दिल से लेकर जुबान तक छाये रहे फिर भी मुद्दा तस से मस नहीं हुए अर्थात आज वही मुद्दा है जो बरसो से ज्यों का त्यों बना है।  इस तरह के अनुभव मिलने के बाद जनता के लिए कदाचित आसान नहीं कि आगे आनेवाली सरकार से बहुत कुछ अपेक्षा करे परन्तु जो बुनियादी दिक्कते है जिनसे अामना  -सामना होना पड़ते है, कमसे कम ऐसे रोजमर्रा के समस्याओं का समाधान तो चाहेंगे ही ।

देश तो वेसे भी कई प्रांतो में विभाजित है और प्रान्त कई जिलो में फिर भी सियाशी पार्टियाँ वोट को ध्रुवीकरण करने के मंशा से वर्ण से जात में और जात से उपजात में बाँटने के लिए अग्रसर दीखते है ऐसे में महज़ब को आरे आना ही है क्यूंकि महज़ब वोट के फार्मूला में इतना सटीक बैठते है कि सियाशी पार्टियों को बिना जद्दोजहद के छोटे- छोटे टुकड़े में बटें वोट को सिर्फ चंद समुदाय  के आधार पर एक बड़े तबके में तब्दील कर देते हैं।  धर्मनिरपेक्षता तो बस बहाना है पर राजनितिक दल का तो सिर्फ इनके पीछे यही धारणा बना के रखे है कि यदि यह धुर्वीकरण सफल हो गया तो मानों आधी मुस्किल आसान।  यहाँ एक विन्दु और भी है जिनको गौर की जानी चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता का इन सियाशी दल परिभाषा भी अपने -अपने मनमुताबिक बना लिए है वाबजूद इसके कि धर्मनिरपेक्षता हमें यह सिखाते है कि सब धर्म को  सामान रूप से देख जाना चाहिए न कि किसी एक धर्मं और समुदाय को ही धर्मनिरपेक्षता का लाभ मिलें।  आनेवाली सरकार को यदि निस्ठा से पहल करती है तो इस तरह के प्रथा ध्वस्त करके सभी वर्ग, समुदाय, जिला और प्रान्त को ही सूत्र में फिरोने होंगे ताकि कल के भारत में कोई धर्मं निरपेक्षता की  हवा अपनी सियाशी गुब्बारें न भरे चाहे विकास की  शिखर पर हो तो भी सब एक साथ हो और किसी भी कठनाई को निरस्त करना हो ऐसी विकत परस्थिति में भी हम सब साथ दिखें।

भ्रष्ट्राचार, मंहगाई , बेरोजगारी और गरीबी देश के प्रमुख मुद्दे है जिसका हल लोक चाहते है जबकि सरकार यदि कर्मठ और अग्रसर हो तो इसके बिरुद्ध अपनी पूर्णतः ताक़त तो झोंक देती है, पर इसको अभी तक कारगार समाधान नहीं ढूंढ पायी है। परिणामस्वरूप ऐसी परिशानियों से कुछ समय के लिए निज़ात तो मिलती है पर दीर्घकाल के लिए नहीं ऐसे में दूरदृष्टि के मद्दे नज़र किसी भी तरह के के कदम उठाये जाय तो हो सकता कि तुरंत इसका परिणाम देखने को न मिले पर भविष्य में जरुर ही ये सार्थक कदम  माने जायेंगे अर्थात इसका इलाज़ एलोपैथिक विधि से न करके आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक तरीके से करे तो जरुर ही इन समस्याएं का उपचार करने में सफल हो पायेगी। कोई भी सियाशी पार्टी या सरकार आते है और थोड़ी बहुत प्रयास दिखा कर फिर खामोश हो जाती है और परेशानियों के सामने नतमस्तक होकर वहाँ से ध्यान कँही और केंद्रित कर लेती है अन्तः हार मानकर उन परेशानियाँ को पूर्वावस्था में ही छोड़ देती है।



दरअसल में सरकार ने इन परेशानियों के लिए ऊपर से फिक्रमंद तो दीखते है पर इनके तह में जाने की कभी भी कोशिश नहीं की, यदि परेशानियों के मूल कारण का पता लगाने को थोड़ी सी भी कोशिश की गयी होती तो अब तक इन समस्याएँ का हल खुदबखुद हो जाते। देश के जितने भी समस्याएं है इनके लक्षण चाहे जो भी हो  पर महामारी के रूप धारण करने के लिए यह लचर व्यवस्था ही जिम्मेवार है अर्थात जिस दिन लचर व्यवस्था को दुरुस्त कर दिया जायेगा फ़ौरन ही समस्याएं का खत्मा सुनिश्चित है।  बिना व्यवस्था दुरुस्त किये यदि कोई भी सरकार समस्याएँ को समाप्त करने की  दोहाई दे रही हो तो स्प्ष्ट जान लें कि सिर्फ दिग्भ्रमित करने की प्रयास किये जा रहे है। आखिकार सरकार किसी भी दल का हो पर जितने प्रतीक्षा उन पार्टी को सत्ता पर काबिज़ होने के लिए है उतने ही बेकरारी से चौनीतियाँ भी उनसे रुबरु होना चाहते है अब भविष्य ही तय कर पायेगी कि सरकार ने चौनीतियो को निरस्त कर दी या चौनीतियाँ सरकार के प्रयास और सोंच के सामने सामने नतमस्तक हुए।

चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान लम्बी -चौड़ी घोषणा पत्र तैयार किये जाते है, बड़ी -बड़ी बातें उद्घोषणा के जरिये लोगों तक पहुचायें जाते है पर चुनाव के बाद न घोषणा पत्र का कोई मायने रह जाते और न ही उद्घोषणा में  कही बातें को याद रख पाते है फलस्वरूप प्रत्येक पांच साल के पश्चात चाहे सत्ताधारी पार्टी हो या प्रतिपक्ष  हो उसी घोषण पत्र और उद्घोषणा के दम पर चुनाव जितना चाहते है अर्थात पिछले पाँच साल में सरकार की उपलब्धियोँ में घोषणा पत्र में किये गए वायदे भी सामिल नहीं रहे ऐसे प्रतिपक्ष का तो वाज़िब है कि पांच पहले का ही  घोषणा पत्र को फिर से पूरा करने का भरोषा दें। बेशक़ हम लगभग आज़ाद भारत में लोकतान्त्रिक सरकार पैंसठ साल से काम करती आयी हो पर मुद्दा आज भी वही जो आज से पैंसठ साल पहले हुआ करते थे। इससे सरकार की काज करने के क्षमता पर प्रश्न चिन्ह उठाना स्वाभाविक है फिर भी सरकार अभी तक कोई संतोष जनक जवाब नहीं दे पायी है। आखिर कब तक देश को घोषणा पत्र और उद्घोषणा से ही संतोष करने पड़ेंगे जबकि वास्तविकता से इनका कुछ भी लेना देना है ही नहीं। अन्तः चुनाव में शामिल सभी पार्टीयों से अनुरोध है कि कब तक घोषणा पत्र और उद्घोषणा से देश के आवाम को रिझाने की कोशिश करेंगे जो कि अब तक कभी भी पुरे नहीं किये गए, ऐसे में घोषणा पत्र और उद्घोषणा चुनाव जीतने के लिए तर्कसंगत नहीं लगते है इसलिए क्यूँ न इस तरह के प्रथा या तरकीब को छोड़ देना चाहिए?, अपतु ऐसे  उम्मीदवार को सामने करें जिनके व्यक्तित्व और इच्छाशक्ति के साक्षय के आधार पर चुनाव फ़तेह करने का प्रयंत करें जो कि देश और लोक दोनों के हित में है.………!!



 ताबर -तोर हमला है जारी,मुख्य शस्त्र नेताजी  के असल में जुबान है !!

 


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सत्ता के कुरुक्षेत्र में सब हैं यंहा आमने सामने,
न गद्दा, न धनुष और न कोई बाण है !
कितने हुए मूर्क्षित, ताबर -तोर हमला है जारी,
 मुख्य शस्त्र नेताजी के असल में जुबान है !!
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रिस्ते नाते से बेखबर सत्ता के लार से लवालव,
जोर -जोर से सीना थोक रहे है !
वेदना का आभाष करे दिखाके घड़ियाली आंशु,
अटपटा सा लगे आखिर क्यूँ इतना भोक रहे!!
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कभी इधर से कभी उधर से
जुबानी बम का गोला फटते ही हो जाते उदंड !
न कोई मर्यादा ही दीखता,
इन बाक युद्ध में अब रहा न इनके कोई माप दंड !!
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एक से एक यहाँ पर महारथी,
सबके तरकश भरे पड़े है बदजुबान के तीर -कमान !
बस मौका मिले, फिर देखिये
 कैसे गाली-गलोज के संग हमलावर होते है इनके जुबान!!
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 कभी बनकर भीगी बिल्ली,
 तो कभी बन गए बब्बर शेर!
कभी म्याऊँ से सन्न कर दिए,
 तो कभी दहाड से कर गए ढ़ेर!!
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अपनी -अपनी आलाप रहे
औरों के दिलो में झांक रहे !
 चुनाव है इसलिए तो
 गली -नुक्कड़ के धूल फांक रहे !!
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चक्रव्यूह बना कर कई ने तो
खुदको जीत का दावेदार बताते है प्रबल !
यही एक अखड़ाह है जहाँ पर
सब अपने दुश्मन को कहते रहते है दुर्बल  !!
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कई डगर से, तो कई नगर से,
तो कइयो ने आसमान से आ तपके लेने हिस्सेदारी !
नेता बन गए अभिनेता,
अभिनेता बन गए नेता,फिर पीछे कैसे रह पाते व्यापारी !!
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फेसबुक और ट्विटर पर
मिनट -मिनट में पोस्ट करते है सब अपने विचार !
रात में दूरदर्शन पर लाइव मिलेंगे,
 दिन में फेनिफ़ेस्टो से भरे पड़े दिखंगे अख़बार!!
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बातों के दम पर और खुदको मनमोहक बन जाने हेतु
कितनो को करें देंगे बोटी -बोटी !
एक बार इनको ही जिता दो फिर देखो पाँच साल तक
यही आपसे छीनते रहेंगे रोटी !!
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नेताजी जी के जतन देखकर, अब न कोई दुबिधा है,
एक बार की  खेती का जो भी हो लागत!
सब कुछ  मन-मुताबिक रहा तो
 बिना मत्थापच्ची नेताजी को पांच साल तक मिलेंगे राहत !!
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लोकतंत्र में लोकशाही का अता-पता नहीं
घोषणा और उदघोषण की महामारी!
जनता तो सब देख रहे है उस पल को जोह रहे है
नेताजी अब तो बस करो, ये है मेरी बारी....!!

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रविवार, 6 अप्रैल 2014


UPA -२ सरकार के कार्यकाल का संक्षिप्त लेखा- जोखा....


UPA-२ सरकार ने जाती -जाती मंहगाई के जोड़के झटके दे गयी, सरकार जहाँ एक तरफ जिस कदर प्राकृतिक सम्पदा का लूट मचा रखी थी और दूसरी तरफ मध्यम वर्ग को मंहगाई के व्रजपात कर रही थी इससे साफ़ जाहिर है कि सरकार के काम काज जनता के संतुष्टि के कसौटी पर कभी खड़ी नहीं उतरी। भारत के लोक तंत्र इतिहास यदि UPA-२सरकार को याद रखेंगे जायेंगे तो सिर्फ भ्रष्टाचार के लिए क्यूंकि सरकार के अपनी पूरी कार्यकाल के दौरान सिर्फ भ्रष्टाचार के लिए ही सुर्ख़ियों में रही। हालाँकि भारत के आनेवाले पीढ़ी शायद मनमोहन सिंह को कभी भी देश के बेहतरीन प्रधानमंत्री का दर्ज़ा नहीं दे पाएंगे क्यूंकि वे आत्ममंथन करने के पश्चात शायद यही निष्कर्ष निकाले कि भगवान के कृपा से तो पञ्च ज्ञान इंद्री होते हुए न कभी आँख का ही उपयोग किया, काश किया होता तो इस तरह के भ्रष्टाचार हरगिज़ देखने को नहीं मिलता जबकि कान का उपयोग उस पल ही बंद कर दिए थे जब उन्होंने अपने को प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित होते सुने थे ऐसा नहीं था कि वह बधिर हो गए थे ब्लिक सिर्फ और सिर्फ मैडमजी को ही सुना करते थे। नतीजन उनके अपने दल से लेकर सहयोगी  सभी देश और सरकार को लुटते रहे और चुपचाप देखते रहे, नौकरशाह एक के बाद एक हैरतअंगेज और नकुसानदेह फैसला लेते रहे और बेझिझक हामी भरते रहे। यद्दिप  गुणवत्ता और विद्वत्ता के नज़रिये से अभीतक जितने भी प्रधानमंत्री हुए है उनमें से अव्वल रहे है पर वह गुणवत्ता और विद्वत्ता किस काम के जो तर्कसंगत न हो और जो राष्ट हित में न हो।वास्तविक में UPA-२ के सभी मंत्रालय के काम काज का लेखा- जोखा करे तो किसी भी मंत्रालय का काम काज संतोष जनक नहीं रहा। इसीलिए प्रमुख मंत्रालय के काम काज के ऊपर एक नज़र डालते है ;-

रक्षा मंत्रालय  न थल, न जल, और न ही नभ में हमें शुरक्षित रख पाये यही कारन है कि सरहद पर हमारे जवानो के सर कात कर दुश्मन ले जा रहे थे और मंत्रीजी को सूझ ही नहीं रहे थे कि देश के जनता को क्या जवाब दे?,  जल सेना के पंडुबिया अपने आप तबाह होते रहे पर मंत्रालय के कान तक में जू नहीं रेंगे अन्तः तीन पंडुबिया नस्तेनाबूद हो गए फिर भी रखरखाब को लेकर अभीतक कोई कारगर निर्यण नहीं कर पाये ऐसा ही नज़रिया तकरीबन एयर फाॅर्स को लेकर भी रहा इसलिए तो इनके (UPA-२) कार्यकाल के दौरान सेना कई हिलेकॉप्टर क्रैश हुए और जाते -जाते हर्कुलस जैसे अत्याधुनिक विमान को भी शहीद कर गए।
UPA-२ में रक्षा मंत्री और सैनिक अध्यक्षो के बीच तालमेल का आभाव साफ दिखा और हद तो तब हो गए जब
इनके विभाग में रिश्वतखोरी का जो खेल चल रहा था उसका उजागर एक - एक करके सामने आने लगा। अन्तोगत्वा रक्षामंत्री और इनके मंत्रालय फिसिद्दी ही साबित हुए।

गृह मंत्रालय का काम - काज का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि मुम्बई से लेकर पटना तक और बोधगया से लेकर पुणे तक सिल-सिले वार धमाका हुए। मओवादी और उल्फा का कहर इतना भयानक रहा कि सत्तारूढ़  पार्टी अपने ही आला  नेताओ को बचाने में सक्षम नहीं रहे। पुरे कार्यकाल के दौरान सीबीआई के बलबुत्ते सरकार चलती रही इसीलिए सीबीआई के माध्यम से एक तरफ अपने हितेषी को क्लीनचिट दिलवाते रही जबकि अपने ही नेताओं को घटोला और भ्रष्ट्राचार के आरोपो को छुपाती रही मसलन पुरे कार्यकाल के दौरान ख़ुफ़िया विभाग को खुदको बचाने और विपक्षी को फ़साने के इस्तेमाल करते रहे।  पुरे कार्यकाल के दौरान तानशाह का ही परिचय दिया इसका ज्वलंत उदहारण है कि अन्ना के जन आंदोलन हो या रामदेव बाबा का कालाधन वापसी का मुहीम जिस बर्बरता के साथ  इन आंदोलन को कुचलने का काम किया इस संवेदन हीनता के लिए शायद ही इतिहास इस मंत्रालय को माफ़ करे। हाल ही में हुए मुज़फ्फरनगर के दंगा भी इस मंत्रालय को सामाजिक सौहार्द बनाये रखने में असफलता के ही प्रतिक है। सामाजिक सरोकार के नज़िरये से गृह मंत्रालय का काम - काज को मूल्याकन करे तो शायद निर्भया जैसे कितने को आबरू को सरेआम बेआबरू होते रहे पर गृह मंत्रालय रोक पाने में असमर्थ ही दिखे वाबजूद लोगो के आवाज़ को दबाने की भर्सक  कौशिश की गई लेकिन निर्भया के केस में ऐसा नहीं हुआ आखिर कार इसके गूंज संसद  के पटल पर भी सुने गए, अन्तः बलात्कार के खिलाफ ससक्त कानून को मंजूरी दी गयी ;
 निर्भया जैसे न जाने कितने मासूम के अस्मत लुटते रहे

पर कभी खुदको, तो कभी इस लचर व्यवस्था को कोसते रहे .... 

वृत मंत्रालय का ही उलेख्यानिये योगदान के कारण ही  अर्थ -व्यवस्था में भारी गिराबट और कमरतोड़ मंहगाई से रुबरु यहाँ के लोगों को होना पड़ा।  शायद ही आम आदमी कभी सरकार इस कार्यकाल को भूलेंगे, सरकार के अनगिनित अवांछित उठाये गए कदम से कॉर्पोरेट सेक्टर में मायूशी ही देखनो को मिले परिणामश्वरूप रुपैया हर रोज निचलेस्तर पर लुढकने  का नए रिकार्ड्स बनाते रहे और जनता को सिर्फ दिलासा के सिवाय कुछ भी नहीं मिला। जीडीपी ८% प्रतिशत से आहिस्ता -आहिस्ता नीचे खिसक रहे थे जबकि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे विश्व के मार्किट में आयी उदासीपन को जिम्मेवार ठहराने में लगे थे। जिन सरकार के कमान विश्व के महान अर्थशास्त्री के हाथ में हो उन्ही के सरकार में देश के अर्थव्यवस्था  सबसे दैनीय अवस्था में पहुँच गयी हो इससे बड़ा विडम्बना क्या होगा ?....

रेलवे मंत्रालय की बात करे तो आनेवाले दिनों में बेइंतहा किरायो में बढ़ोतरी के लिए जाना जायेंगे इन्ही के साथ कई अन्य कारनामो के लिए सदेव याद किये जायेंगे जैसे कि पांच साल के कार्यकाल के दौरान छह बार मंत्री को बदलना,  पेंसेजर के सुरक्षा को लेकर कोई ठोस  निर्यण नहीं  लेना और सबसे यादगार कुकृत यदि इस सरकार में  रेलवे मंत्रालय ने किये तो प्रमोशन के बदले रिश्वत जिसके लिए रेलवे मंत्री और उनके सगे सम्बन्धियों का नाम सीधे तोर पर आये।  अन्तः सरकार की  अंतरिम बजट में  लिए गए फैसले जो जनता के हित के लिए सार्थक किसी भी हालत में नहीं हो सकते। किराये में बढ़ोतरी के लिए उत्कृष्ट सेवा और शुरक्षा का अस्वासन दिए गए पर न ही उत्कृष्ट सेवा और न ही उपयुक्त शुरक्षा अभी तक देखने को मिला।

विदेश मंत्रालय :- UPA -२ में अगर कोई मंत्रालय विफलता के पायदान पर अव्वल माना जाय तो वह विदेश मंत्रालय जो कि पडोशी देश के ऊपर भी  डिप्लोमैटिक दवाब नहीं बना पाये इसलिए कभी चीन तो कभी पाकिस्तान के सेनाबल हमारी सरहद को लाघंटे रहे और सहनशीलता के आढ़ में हमें उनके खिलाफ विश्व के सामने जोर-सोर उनके नापाक इरादे को उठाने में नाकामयाब रहे फलस्वरूप वे अपने हरकतें से बाज नहीं आ रहे है। विदेश मंत्रालय के काम -काज तो निर्लजता के सभी मापदंड को तब पार कर जाते है कि एक तरफ हमारे पडोशी हमारे सेना का सर कात कर ले जा रहे थे दूसरी तरफ हमारे विदेश मंत्री उनके हुक्कामरनो के खातिरदारी में लगे थे।  हाल में जो दिव्यानि के संदर्भ में अमेरिका को रवैया रहा वह भी इनके काम काज के ऊपर प्रश्न चिन्ह ही लगाते है।

टेलीकॉम मंत्रालय :- २G घोटाला के याद किये जायेंगे हालाँकि यह घोटाला UPA -१ की देंन है जबकि खुलाशा UPA -२ के दौरान ही हुआ फलस्वरूप टेलीकॉम मंत्री को सीधे मंत्रालय से हवालात का सफ़र करना पड़ा। इस मंत्रालय का काम -काज इतने आपत्तिजनक रहा कि इनके छितं प्रधानमत्री के ऊपर भी देखनके को मिला और आनेवाले दिनों में कई और खुलासे होने के आसार है।
    
कोयला मंत्रालय :- भारत इतिहास के अभीतक सबसे बड़ा घोटाला जिसके लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री और उनके मंत्रालय जिम्मेवार, फिलहाल जाँच जारी है और कुछ बड़े मंत्री और नेता को जेल जाना मानों तय है।

कानून मंत्रालय :- विवादस्पद ही रहा क्यूंकि कानून मंत्री जितनी रूचि कानून तोड़ने में ले रहे थे काश उतनी बनाने में लेते !

कृषि मंत्रालय :- मंत्रीजी पुरे कार्यकाल के दौरान सिर्फ और सिर्फ चीनी मिल के मालिक के प्रति सकारत्मक रवैया अपनाते रहे  वास्तव में लोगो का मानना है कि मंत्री जी के भी खुदके कई चीनी मिल है इसलिए इस कार्यकाल के दौरान चीनी का मूल्य में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुए जबकि किसान को गन्ने का उचित मूल्य कभी नहीं दिए गए।  देश में किसानो ने सरकार और प्रकृति के बेरुखी के कारन ही काफी तादाद में आत्म हत्या किये जिसके लिए कृषि मंत्रालय काफी हद तक जिम्मेवार है। इन्ही सरकार के कार्यकाल के दौरान अन्न के  रख-रखाब में जो कोताही बरतीं गयी उसी कारण से अन्न सड़ने के वजह से काफी नुकशान उठाना पड़ा है। आखिरकार देश के सर्वोचय न्यायलय ने संज्ञान लेते हुए मुफ्त में बाटने का सलाह दिए थे पर कृषि मंत्रालय ने सर्वोचय न्यायलय के सिफारिस को खारिज़ कर दिए । मुफ्त में बताने के वजाय अन्न सड़ना ही बेहतर समझे।

उड्डयन मंत्रालय :- इंदिरा गांधी टर्मिनल -३ और मुम्बई के एयर पोर्ट का रेनोवेशन को छोड़ दिया जाय तो कोई खाश उपलब्द्धि नहीं देखि जा सकती है। एयर इंडिया के खस्ता हाल के लिए अगर किसीकी भी  जवाब देहि बनती है,  तो वह उडडयन मंत्रालय है पर अभी तक उनके तरफ से सुधार को लेकर कोई खाश पहल नहीं हुए।

प्रर्यावरण मंत्रालय :- का तो जवाब ही नहीं और इसीका नतीजा है सरकार के आखिरी सत्र से पहले प्रर्यावरण मंत्री से इस्तीफा लेना पड़ा। फिलहाल इन मंत्रालय के ढीली कार्यकलाप के चलते ही देश में ३५० परियोजना अधर में लटके हुए है जो कि इन मंत्रालय के दफ्तर के धूल फाँक  रहे है।

पेट्रोलियम मंत्रालय :- अगर UPA -२ सरकार में कोई मंत्रालय महंगाई के सीधे तोर पर जिम्मेवार है तो यही मंत्रालय है।  यद्दिप इन मंत्रालय ने पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के दाम को बढ़ाने में कभी हिचके नहीं और हर बार एक ही बहाने व दलील देते रहे कि पेट्रोलियम उत्पादन कंपनी को भारी नुकशान से निजात दिलाने के लिए दाम में बढ़ोत्तरी जायज है जबकि पेट्रोलियम उत्पादन कंपनी के सालाना लेखा-जोखा में मुनाफा ही देखने को मिला।  वेसे भी पेट्रोलियम मंत्रालय के काम काज आरोपो के घेरे में है जो आनेवाले वक़्त ही तय कर पायेगा कि पेट्रोलियम मंत्री कितने पाक साफ़ है?

दरशल में UPA -२ के कुछ उपलब्धिया है जिन्हे कतई नज़र अंदाज़ नहीं किये जा सकते है जैसे भोजन की गारंटी बिल, और सरकार के आखरी सत्र में पारित लोकपाल बिल हालाँकि लोकपाल बिल को अभी कानून के रूप में अख्त्यार होना बाकि है जबकि भोजन की गारंटी बिल अभी तक देश के सभी राज्य में लागु किया जाना शेष है, जब तक इस बिल के तहत सभी लोगों को भोजन की गारंटी नहीं दिया जाता तब तक इसके बारे कोई भी टिप्प्णी करना अनुचित ही होगा। आखिर कार सरकार में शायद ही कोई मंत्रालय हो जिनके  काम- काज अपेक्षाकृत औसतन ठीक ठाक रहा हो जो जनता के उम्मीद और देश के विकास के मानदंड पर खड़े उतरते हो। अन्तः UPA -२ सरकार के कार्यकाल को  भ्रष्टाचार, मंहगाई और तानाशाह के लिए ही इतिहास में याद किये जायेंगे।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014




लोक तंत्र के धुरी में आखिर कबतक पीसते रहेंगे हमलोक ?


लोक तंत्र के धुरी में आखिर कबतक पीसते रहेंगे हमलोक

जनतंत्र के ईश से मिले, क्या यूँ ही सहते रहेंगे  प्रकोप

चीख भी निशब्द हुए फिर भी बिलखते है अंतरआत्मा 

जन दर्द पर करे क्यूँ परवाह मजे में है तंत्र के परमात्मा 

प्यास बुझने के एवज़ में प्यास और ही बढता गया

रौशनी के आस लिए अँधेरे में शदियों कटता गया

उन्हीके सोंच ने  दीमक बनकर लोकतंत्र को कुरेंदते रहे 

जुबानी तेज़ाब हम लोगो के जख्म पर छिड़कतें रहे

उनके जश्न में न जाने कब पैसठ गणतंत्र यूँ ही बीत गए

 उपेक्षा में वाक़ये आजादी के इतने वरस यूँ ही बीत गए 

 उद्गोषाणा में दिखे कभी गरीबी तो कभी भ्रष्टाचार 

लोक के उम्मीद को जगाकर खुदको किया तैयार 

ज्यो ही मौका मिला सबकुछ  गए डकार 

मतलबी, मौकापरस्ती में कौन करे परोपकार

 अन्ना की तोपी से  कभी बाज़ार सजा 

आम आदमी के नाम पर सबने ठगा 

हे लोकतंत्र के भाग्य विधाता अब तो करो होश 

न चाहिए कट्टर सोंच, न ही चाहिए युवा जोश 

कब तक तोपी हम पहनकर नेताजी का गुणगान करेंगे 

अबकी लोकतंत्र के शुभ मुर्हत पर हम इसका सज्ञान धरेंगे 

जोश और होश से आओ  चले मतदान करेंगे 

जोश और होश से आओ  चले मतदान करेंगे  …।