सोमवार, 23 फ़रवरी 2015



 हार बड़ी या जीत ?


चाहे लोक सभा का चुनाव हो अथवा दिल्ली के विधान सभा का चुनाव हो लहर में नौसिखुआ जहाँ फ़तेह कर पाने में कामयाब रहे वही सूरमाओं ने पटकनी ही खा कर पस्त हो गए  इस तरह के परिणाम से अब यह भी तय हो गया कि जनता अब पार्टी और नेता के कद देखने के वजाय उसे सबक़ सिखाने से हिचकते नहीं अर्थात अब सभी प्रदेश व देश के सरकार को इससे सबक लेकर बिना विलम्ब सभी वायदे को पूरा करने का पुरजोरकोशिश करनी चाहिए अन्यथा कुर्सी से हाथ ढोने को तैयार रहनी चाहिए।  लोकतंत्र का इससे बढियां स्वरुप शायद ही कोई और होगा जो सभी प्रकार के विभिन्नता को पीछे छोड़ किसी एक पार्टी को  ऐतिहासिक जीत दिलाने में प्रति समपर्ण हो।  हालाँकि ये जीत को सरलता से नहीं लिया जाना चाहिए क्यूंकि जनता सिर्फ वायदे के आधार पर यदि किसी भी पार्टी को पक्ष में मतदान करती है इसका तात्पर्य यह है कि जनताके  अपेक्षा पर खड़े उतरे नव गठित सरकार।

दरअसल में जनता को अब चेहरा और पार्टी का मतलब समझ में नहीं आती सिर्फ उनके उपलब्धि को सामने रखकर वोट करती है।  जिस कदर लोकसभा चुनाव में आप को सबक सीखने के लिए दिल्ली के सभी सीटों पर बीजेपी को जीत दिलायी गयी उसी तरह इस विधानसभा में बीजेपी को सबक सीखने के लिए आप के पक्ष में ज्यादातर दिल्लीवासी वोट डालें नतीजन ७० में से ६३ सीट आप ने प्राप्त की। दिल्लीवासी में अधाधिक वे लोग है जो रोजमर्रा के परेशानी और मंहगाई से त्रस्त से जिन्हे शायर मार्किट का उछाल हो अथवा जीडीपी ऑन ट्रैक हो के बारे में क्या लेना देना है क्यूंकि बेशक ईंधन के मूल्य में भारी गिरावट दर्ज हो पर चावल-दाल का रेट घटने के वजाय ऊपर ही जा रहे है इसीलिए तो लोंगो ने बड़े बड़े कूटनीतिज्ञ को चित्त कर दिए।

आखिरकार कुछ ऐसे भी लोग है जो अपने दम पर मुखिया का चुनाव नहीं जीत सकते लेकिन देश की हर छोटी बड़ी नीति उनके ही घर के कोनो में बनते -बिगड़ते है जिसको सिर्फ अपने स्वेच्छा के आधार पर मूल्यांकन करते है जिसे जनता न ही समझ पाती  है और न ही लाभ उठा पाती जबकि ऐसे लोगो खुद ही मियाँ  मिट्ठू बनकर फिरते है जो देश और जनता के लिए ही नहीं ब्लिक वे खुद के पार्टी और पार्टी में काम करने वाले के हजारों कार्यकर्ता लिए घातक है।  यदि दिल्ली विधानसभा के चुनाव को गंभीरता से नहीं लिए गए तो आने वाले दिनों में बिहार और बंगाल के चुनाव और भी हताशा से भरे मिलेंगे जो बड़े - बड़े बांकुरों को खाक मिला देंगे।राजनीती के दिग्गज को यह भलीभांति ज्ञात होनी चाहिए कि जनता वह पारसमणि है जो भंगार लोह को  भी सोने में तब्दील कर सकते है व बिलकुल सूर्य के भांति है जिनके रहमो करम पर चाँद सितारे की तरह रोशन कर सकते है और जैसे ही बिमुख हुए आपका चमक तो गायब होगी ही साथ में आपके नामोनिशान ढूढने पर नहीं मिलेंगे।  बरहाल जीतनेवाले को भी आत्म मंथन करके विन्रमता से जनता से किये हुए वायदें को पूरा करना चाहिए जबकि हराने वाले को आत्म चिंतन करके अपने खामियों को दुरुस्त करना चाहिए।


 सूट है या सुहानुभूत ?

 


जिस सूरत शहर के नामचीन उद्योगपति एक सूट के लिए चार करोड़ से ज्यादा खपत कर सकते, जँहा तक मेरा निजी अनुभव है  वँहा  के लोग मुफ्त में एक पैसा खर्च नहीं कर सकते क्यूंकि जिस कदर एक नामी ग्रामी उद्योगपति का व्यवहार मैंने देखा है जिनको तीस से चालीस लाख रुपैया का भुगतान करने के लिए पिछले एक साल से लगातार आग्रह करने के वाबजूद न ही रकम अदा कर रहे है और न ही नुकशान के भरपाई करने के लिए इच्छुक है। जँहा के लोगों के ऐसी प्रवृति है जो बेहद मनी माइंडेड है, क्या वे शौक के खातिर इतना खपत कर सकते है पर कर जाय तो  सवाल तो उठाना लाज़मी है क्यूंकि बोली लगानेवाले ज्यादातरलोग आयकर विभाग के निशाने पर पहले से रहे है? ऐसा तो नहीं है कि ये लोग इस बोली के जरिये प्रधानमंत्री का सुहानुभूति अर्जित करना चाहते हो जिसके बल पर अपनी काली कमाई का सरक्षण कर पाये ।  जो भी हो अधिकाधिक लोगों के इस तरह के कारनामों से काफी हैरान है और सबके जहन में एक ही प्रश्न उठ रहा होगा, क्यूंकि ये बोली अन्यत्र भी लगाये जाते पर गुजरात और उसमें भी सूरत को ही क्यूं चयन किया गया? बरहाल इसका सवाल अतिशीघ्र मिलना शायद मुमकिन न हो पर ज्यादा दिन इसको ढूढने में नहीं लगेंगे………………………!