सोमवार, 23 नवंबर 2015





 हम आखिर कब तक ?


जँहा पर राजनीती और सियाशी दाँव -पेंच में उलझे हुए अतीत और भविष्य है, जँहा राजनीती के सरंक्षण के बिना ना अपराध, ना व्यापार संभव वँहा पर राजनीती के कदरदानों ने सिर्फ और सिर्फ सांत्वना और झूठे वायदें के बुनियाद पर आज़ादी के बाद से यंहा के जनता का शोषण करते आ रहे हालाँकि इन्होने बेशक काम करने का तरीका व स्वरुप में बदलाब अनेको बार किये परन्तु इनके मकसद कल, आज और कल एक ही रहने वाला है।  चाहे जय प्रकाश नारायण को वह जन आंदोलन व  इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ आंदोलन, फिलहाल के अनेको आंदोलन।जय प्रकाश नारायण  के जनांदोलन के बाद भी भ्रष्टाचार देश को खोखला  क्या नहीं करते रहे?  इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे बाद पुनः सत्ता पर तो काबिज़ हो गए पर देश से गरीबी हटा पाये नहीं बिलकुल नहीं क्यूंकि लक्ष्य यह नहीं था कि गरीबी हटाना वस्तुतः ऐसे नारे के सहारे सत्ता पाना ही उद्देश्य रहा है।

आज की परिदृश्य में जन लोकपाल जनांदोलन जिनके माध्यम से भ्रष्टाचार को हटाना था पर अवसर मिलते ही सत्ता हथिया लिए और मुलभुत एजेंडा को तिलांजलि देकर सत्ता का आन्दन ले रहे है।  इस तरह के सैकड़ो उदहारण है जिसके आधार पर यह शुनिश्चित किया जा सकता है कि इस लोक तंत्र में सत्ता तक पहुँचने के लिए नेताजी क्या- क्या नहीं करते जैसे ही सत्ता पर आसीन हो जाते कभी पीछे मुड़ कर देखने की जरुरत नहीं समझते इसी को तो लोकतंत्र कहते है जो जनता के द्वारा जनता के बीच में से जनप्रतिनिधियों को सत्ता का कमान सौपें जाते है और बदले में जनप्रतिनिधियों का उपेक्षा का शिकार हो कर प्रत्येक दिन उन्हें कोसते रहते है, इसी जद्दोजहद में पांच साल बीत जाते है अचानक वही जनप्रतिनिधियों आपके सामने प्रकट होते है एक नए एजेंडा  के साथ एक नए अवतार में फलस्वरूप जनता सब भूल कर फिर से उन्हें जीता देतें है।  इस प्रकार के लोक तंत्र से बढियां तो हमारे यंहा को राज तंत्र थे यद्दीप उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार सिर्फ राजा के पास थे लेकिन राजधर्म का पूणतः  निर्वाह करते हुए सदैव योग्य व्यक्ति के हाथ में देश कमान देंते रहे फिर भी कई बार चूक हुए परन्तु  आज से तो बेहतर ही कहा जा सकता है।

दरअसल में इसके लिए जनप्रतिनिधि ही केवल दोषी नहीं है ब्लिक हमलोग और हमारे व्यवस्था कम दोषी नहीं है। कुछ जनप्रतिनिधियों ने अपने हित के खातिर आरक्षण का  दीमक ला कर छोड़ दिए है जो दिन ब दिन  हमारे बुनियाद को कमजोर करने में लगे है जिसके आढ़ में सियाशी पुलाउ खूब पका रहे है और खा रहे परन्तु राष्ट के नींव को इस कदर खोखला कर रहे है कि भविष्य में एक बड़ी त्रासदी से रूबरू होना निश्चित है।  क्या ऐसे लीडर जो खुद ही कई भ्रष्टाचार के मामले में संलिप्त है क्या उनसे पारदर्शी और साफ सुथरी सरकार की उम्मीद की जा सकती है, कतई  नहीं।  जिस तरह अमेरिका की चुनाव प्रणाली है उसके मुताबिक हमारे यंहा भी चुनाव प्रणाली बनायीं जा सकती है फिर क्यों ना संविधान में संशोधन करके जनता के प्रति ज्यादा से ज्यादा जवाबदेह जनप्रतिनिधियों का चुनाव को तज्जुब दी जाती है प्रत्येक जनप्रतिनिधि के लिए एक मापदण्ड निर्धारित की जानी चाहिए ताकि कभी भी और कंही भी अपने व्यक्तिगत हित खातिर अपने पद का दुरुप्योग न कर पाये।

देश आज भी आज़ादी के ६५ बर्ष बाद पूर्णतः आजाद नहीं हो पाये इसका मुख्य कारण है कि हमारे यंहा जन प्रतिनिधि को सिर्फ जनता को मुर्ख बना कर सत्ता हाशिल करने का स्पर्धा में लगे रहना,  काश इसीलिए चुटकी भर जनप्रतिनिधियों को छोड़ दें तो बाकियों में देश के प्रति समपर्ण कभी भी नहीं देखा गया नतीजा आज हमारे सामने है कि हमारे देश संप्रभुता स्वालम्बी होने वाबजूद वह उपलब्धि नहीं हाशिल कर पाई जो कई अन्य देश ने हाशिल कर पाये। चीन को ही देखिये आज कहाँ है यद्दीप इन दिनों बुरे दौर से गुजर रहे है फिर भी हमसे २० साल आगे है।  जिस देश केजनप्रतिनिधियों  में से ज्यादात्तरजनप्रतिनिधि भ्रष्टचार और अनिमियता के मामलों में दोषी ठहराए जा चुके है व इसके सन्दर्भ में उनके खिलाफ मामले की सुनवाई चल रही उन्ही के हाथो में हमारी तकदीर और तस्वीर है ऐसे लोगों से सकारात्मक प्रतिक्रिया उम्मीद करना हरगिज़ मुनासिब नहीं है।  जिन्होंने अपने हिट के लिए क्या-क्या नहीं किया , पहले तो अमीरी और गरीबी की दीवार खींच दिए फिर भी बात नहीं बनी तो जात -पात के आधार पर बाँटने लगे  परिणामस्वरूप हम तो बँट गए, कमजोर हो गए पर इनसे फायदा किसको मिला हमारे जनप्रतिनिधि को जो हमें कई भाग में बाँट कर खुदको इतना मजबूत कर लिए शायद उन्हें रोकना अब  संभव नहीं है।
वास्तविक में आज के परिस्थिति में जनता को जितना मिल जाता उसी में खुश रहने की कोशिश करती है जबकि जनता के हाथ में सिर्फ लोली पॉप थमाने का काम करते है जिनसे हक़ीक़त में कुछ होना ही नहीं है।  हाल में दिल्ली सरकार ने पानी और बिजली के बिल में रियायत दी बदले में ईंधन के मूल्य में विक्रेता कर तहत भारी बढ़ोत्तरी कर दिए नतीजा एक तरफ से थोड़ा बहुत मिला  दूसरे तरफ अत्यधिक ले लिया  गया मसलन किसी भी हाल में जनता का जेब ढीली करी जाएगी ।  इस तरह के परिदृश्य में जनता, जनप्रतिनिधि से कुछ अपेक्षा अथवा आंकक्षा रखना ही जायज़ कभी भी नहीं माना जा सकता। लोगो को भी चाहिए कि अपनी समझदारी दिखाए किसी भी प्रतिनिधि को चुनने से पहले जाँचे -परखे फिर उनके दावेदारी के ऊपर मुहर लगाये अन्यथा बिना समझदारी के कर्मनिष्ठ और तटस्थ प्रतिनिधि  का कल्पना करना कदाचित उचित नहीं है।

अँधा गाँव में कान्हा राजा अर्थात जब जनता खुद अँधा हो जायेंगे तो कान्हा जो थोड़ा बहुत देखते है वही आपके ऊपर राज्य करेंगे व आपके जनप्रतिनिधि कहलाएँगे इसीलिए आप अँधा होने के बजाय अपने आँख खोलिए और अपने बीच से ऐसे जनप्रतिनिधि को आगे कीजिये  जिनमे वाकये आपके प्रनिधित्व करने की काबलियत हो जबकि उनकी ईमानदारी का मापदंड सर्वोपरि हो। जिस कदर एक सरे आम पूरी टोकड़ी के आम को सराने का काम करता है उसी प्रकार एक बईमान जनप्रतिनिधि पुरे व्यवस्था को भ्रष्ट करने के लिए काफी है। जब तक प्रदूषित व्यक्ति को हम चुनकर भेजते रहेंगे तब तक स्वच्छ वातावरण व व्यवस्था का उम्मीद करना अशोभनीय  होगी।  सही मायने लोकतंत्र का दबदबा तब कायम होगें जब लोकशाही की बरियता दी जाएगी इसके लिए हम सभी को आगे आकर अपना अधिकार जताना होगा अन्यथा हम आँख मूंदकर बैठे रहेंगे और ये मुट्ठी  भर लोग हमारे अधिकार का मर्दन करके हमारी असमत के साथ खेलते रहेंगे।  जरा सोचिये मुट्ठी भर ही अंग्रेज थे जिन्होने हमें बर्षो तक गुलामी की बेरियों में जकड़े रखा और आज मुट्ठी भर हमारे बीच का ही लोग  है जो हमें विकाशशील से विकशित नहीं हो देना चाहते है इसके पीछे उनका मनसा सिर्फ एक है कि कही हम जागरूक न हो जाये जिससे उनके मनमानी रोक रुक जाएगी। जरा सोचिये फिर आत्मचिंतन कीजिये …………………… !!



बदलते हुए  कई चहरे को आइना में देखा शरमाते हुए क्यूंकि खुद से वे नहीं नज़र मिला पाते
पर एक शख्श ऐसे भी है जो कभी नहीं शरमाते क्यूंकि आइना ही उन्हें देखकर शरमा जाते
इसीलिए तो गिड़गित ने छोड़ दिए अपने परम्परा जबसे नेता ने इसकेलिए मजबूर हुए,
जिनके खिलाफ थे उन्ही के साथ हुए, क्या केजरीवाल इसी  कारन से इतने महसूर हुए ?



क्या राजनीती में सबकुछ जायज़ है ?


इतिहास ने कभी भी अवसरवादी और खुदगर्ज विचारधारा को ना ही जगह दिया और ना ही तहजीब दिया शायद इसका आभास केजरीवाल हुए हो अथवा नहीं पर अन्ना तो अवश्य ही आत्मघात हुए होंगे और खुदसे नज़र भी नहीं मिला पा रहें होंगे क्यूंकि वे अन्ना ही है जिनके जन लोकपाल आंदोलन  के जरिये राजनितिक जमीं तैयार कर और उनसे वैचारिक और सैद्धांतिक समर्थन पा कर दिल्ली के मुख्यमंत्री के गद्दी तक फासला तय करके फिलहाल दिल्ली मुख्यमंत्री बने हुए है, यह सब केजरीवाल के लिए सिर्फ मौकापरस्ती हो सकती है व एक सोंची समझी रणनीति हो सकती है पर अन्ना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी वह उनके सैद्धांतिक वैचारिक लड़ाई थी क्यूंकि उन्होंने सदैव भ्रष्टाचार से घृणा करते रहे है।  अब देखना है कि उनके सबसे प्रिय और यशश्वी शिष्य भ्रष्टाचार को गले लगाकर खुदको उस जमात में शामिल कर लिए है जिनमें भ्रष्टाचार के बड़े -बड़े दिग्गज पहले से ही मौजूद है और वही सभी शियाशी दल है जिनके नेता किसी ना किसी तरह से भ्रष्टाचार के मामलें में लिप्त पाये गए है व इस कारन से सजायाप्त है एक साथ मंच साझा किये जिनके विरुद्ध अन्ना का मुहीम जारी है, केजरीवाल के इस परिवर्तन को लेकर अन्ना का क्या प्रतिक्रिया होता है?

हालाँकि एक बात तो श्पष्ट हो गयी है कि केजरीवाल बेशक अपनी लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया हो पर अब भ्रष्टाचारियों से थोड़ी  भी परहेज़ नहीं है इसीलिए तो लालू,  राहुल, पवार के साथ मंच साझा करते दिखे गए है , ऐसे में अन्ना केजरीवाल को अपने वैचारिक समर्थन जारी रखेंगे या उनके विरुद्ध भी खड़े हो कर अपने भ्रष्टाचार की लड़ाई को फिर से देशव्यापी आंदोलन का शंखनाद करेंगे क्यूंकि केजरीवाल का भ्रष्टाचारियों के साथ आना महज एक संयोग नहीं ब्लिक उनके एक रणनीति का हिस्सा है इस कारन से उनके मंशा के ऊपर कई सवाल खड़े होते है। 


वास्तविक में केजरीवाल मंच साझा करने वाबजूद भ्रष्टाचार में सजायाप्त लालू प्रशाद यादव के साथ जिस तरह गले मिल रहे थे और लालू के समर्थक का अभिवादन कर रहे थे इस से बच सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया मतलब आने वाले दिन में लालू के महागठबंधन में शामिल होने का अटकल लगायी जा सकती क्यूंकि केजरीवाल को भलीभांति ज्ञात है कि दिल्ली के चुनाव में बिहारी वोट बैंक बहुत बड़ा भूमिका है।  तकरीबन ४०%, जिसे हाशिल करने  लिए नितीश और लालू जैसे नेता का समर्थन अहम हो सकते है इसी कारन से नजदीकियां बनाने में लगे हुए।

अब प्रश्न यह उठता है कि केजरीवाल के लिए भ्रष्टाचार कोई सैंद्धातिक मुद्दा नहीं था, ये सिर्फ ढोंग था  फिरभी  अन्ना के साथ जो जनलोकपाल आंदोलन चलाये थे वह सिर्फ सत्ताधारी दल के खिलाफ शियाशी साजिश थी जिसके बुनियाद पर अपने  महत्वाकांक्षा को पूरा करना था और जैसे ही महत्वाकांक्षा पूरा हुए उससे पला झाड़ भविष्य के मद्दे नजर नयी रणनीति को तैयार करने में लग गए, इसी कारन से अब भ्रष्टाचारियों के साथ आने में थोड़ी भी हिचक नहीं है । 

प्रश्न यह भी उठता है कि केजरीवाल की लड़ाई में उनके प्रतिद्वंदी सिर्फ एक ही दल है भाजपा क्यूंकि दिल्ली के शियाशी जमीं पर उन्ही से मुकाबला होना है इसके लिए उन्हें किसी भी दल और उनके प्रतिनिधि से किसी भी प्रकार का परहेज़ नहीं है चाहे वे भ्रष्ट क्यूँ ना हो। 

दिल्ली के लोग उनसे बड़े बदलाव का कोई अपेक्षा कभी भी नहीं किये थे ब्लिक लोग उन्हें एक ईमानदार और भ्रष्टचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाला एक प्रतिनिधि के रूप में देखते थे पर जब इस तरह का बदलाव भ्रष्टचार के प्रति उनमें देखकर, लोग खुदको ठगा महसूस करते होंगे। शायद ही केजरीवाल अपने अंदर के परिवर्तन से आश्चर्यचकित हुए होंगे पर दिल्ली के जनता अचम्भित है इस परिवर्तन को  देखकर और फिलहाल असहज होंगे जो कि भविष्य के चुनाव में अपना असर दिखाएँगे। 

फिलहाल लालू यादव खुदको पवित्र माने क्यूंकि केजरीवाल अपने गले लगाकर उन्हें ईमानदारी  ख्याति   दिया है क्यूंकि राजनीती के गंगा तो केजरीवाल खुदको ही मानते है बांकी तो सब मैले है, हालाँकि देश के जनता केजरीवाल को कितने पवित्र मानती यह कहना बहुत जटिल है।  इस परिदृश्य में वाकये ही संभव नहीं जब केजरीवाल उन्ही के बींच में है जिनके प्रायः अधिकतर  दल के  प्रतिनिधि  भ्रष्ट है जैसा वही कहते  थे और यही कह -कह कर दिल्ली  सत्ता तक पहुंचे ।

 दरअसल में राजनीती के गलियारों में जो परिपाटी बरसो से आ रही है उसी परिपाटी को केजरीवाल ने भी जीवित रखा है उनसे हटकर उन्होंने कुछ भी नया नहीं किया फिर भी खुदको अलग कैसे कह सकते है ? यद्दिप लोगों का उनके प्रति इस तरह का बदलाव होने के कारन अचम्भित होना स्वाभाविक है क्यूंकि आप जिनसे कुछ भिन्नता  आकांक्षा रखते है पर उसके अनुरूप वे नहीं देखँते है इस प्रकार का वाक्य आप को  विचलित कर देंते है और विचलित होना अस्वाभाविक नहीं है पर इसको स्वीकार करना ही पड़ेगा आखिकार यही तो राजनीती परंपरा है जो कि लोंगों को सिर्फ एक वोट बैंक के नज़र से देखना सिखातें है इसीलिए लोगों के भावना के प्रति राजनीती कदरदानों में तनिक भी जवाबदेही न ही दिखता और न ही कोई गलानी होती है, है ना !!!


सोमवार, 9 नवंबर 2015


 शाह के नीती, चाणक्य के जमीन पर गौण हुआ ?



बिहार चुनाव में जिस कदर सवर्ण ने नितीश कुमार के समर्थन में वोट दिया है इससे यह तो स्पष्ट होता है कि अब जनता जाति से ऊपर उठकर विकास परस्त सरकार को चुनती है। हालाँकि  बिहार के अधिंकाश लोग के मन में  डर था कि लालू के साथ नितीश है जिस कारन से विकासशील सरकार देना नितीश के लिए आसान नहीं होगा फिर भी नीतीश के दस साल के काम -काज को आंकलन करके उसी के आधार पर अपने मन के डर  को किनारे कर नीतीश के ऊपर  विश्वास बरकरार रखा।  हालाँकि नीतीश को अब बिहार के लोगों के आंकाक्षा पूरा करना इतना सहज भी नहीं होनेवाला है क्यूंकि लालू इनके इस नेक काम में अब तक सहयोगी का  भूमिका निभाते है यह कहा नहीं जा सकता है। वास्तव में लालू को विकास प्रेमियों के साथ नहीं भाता ऐसे में दोनों के बीच वैचारिक अशंतुलन होना स्वाभाविक है जिस कारण सरकार की भविष्य अधर में ही रहेगी कारणस्वरूप यह कोई वैचारिक गठबंधन की सरकार नहीं बनने वाली है ब्लिक यह एक मजबूरी का गठबंधन है जो कभी भी और कंही भी टूट सकता है बहरहाल इस गठबंधन के भविष्य को लेकर सदैव संशय का   वातावरण बनी रहेगी।

अगर इस चुनाव में सबसे बड़ी हार किसी को  हुआ तो वह मोदी , अमित शाह और मोदी सरकार में बैठे नीतिकारों का ही हुआ है क्यूंकि नीतीश हारता, लालू  हारता तो देश के जनता के लिए शायद ही अपेक्षा से परे होते पर इस हार से मोदी सरकार की पूरी जड़ हिलनेवाले है क्यूंकि मोदी और अमित शाह के जोड़ी ने कई हिट फिल्म देने के बाद इस तरह के लगातार दूसरी फ्लॉप्स फिल्म दिया है कि इनके शाख और काबलियत के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगना तय है। भाजपा के अध्यक्ष  के तौर पर अमित शाह का परफॉरमेंस में वो बात नहीं रही  जिसके लिए वे जाने जाते रहे है  दरअसल में इनके नजर में कार्यकर्त्ता का कोई पूछ नहीं है यह सिर्फ एक बैशाखी है जिसका इस्तमाल सिर्फ चुनाव जीतने के लिए किया करते है और फिर बिसार देंते है नतीजा जो जोश भाजपा के कार्यकर्ता को लोकसभा के चुनाव के दौरान देखने को मिलता था अब ऐसा तनिक भी नहीं मिलता है।  एक तरफ अमित शाह को बुद्धजीवियों व पार्टी के बरिष्ठ  नेताओं ने चाणक्य  की संज्ञा दिए जा रहे है , दूसरी तरफ अमित शाह जमीन से जुड़े कार्यकर्ता  से कट रहे है नतीजा दिल्ली के चुनाव और फिर बिहार के चुनाव में करारी हार मिलना।  यद्दिप मोदी सरकार चाहते तो फिर भी इस खाई को भरी जा सकती थी परन्तु केंद्र सरकार के मंत्री ने मंहगाई को लेकर जिस कदर आँख मुंड लिए थे इस कारन भी जनता में आक्रोश है  इसका और भी प्रतिक्रिया देखनो को मिल रहे है और आगे भी देखने को मिल सकते है  ।


देश के जनता सरकार से हताश है और सरकार यदि यथाशीघ्र कई उपयुक्त और सकारात्मक कदम नहीं उठाती  है तो आगमी पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव में अनुकूल परिणाम मिलने का भी आसार नहीं है  क्यूंकि जनता के जहन में अब धीरे -धीरे यह बात घर बना रही है कि सभी दल का एक ही लक्ष्य है सत्ता हथियाना और एक बार सत्ता मिल जाता है फिर सबका व्यवहार एक जैसा ही हो जाता है मसलन कांग्रेस , भाजपा और आप, सबके काम करने की तोर -तरीके एक जैसे ही है। अब मोदी सरकार को जनता के जहन से इस बात को घर बनाने से पहले निकालने होंगे अन्यथा भविष्य में एक  भी चुनाव जीतना मुमकिन नहीं होने वाला है इसके लिए चुनाव के दौरान जो अच्छे दिन का जो नारा लगाये गए थे उसे बिनाविलम्ब अम्ल में लिए जाना चाहिए क्यूंकि समय बहुत ही कम है और काम बहुत ज्यादा किया जाना है।

सरकार को असहिष्णुता के प्रति गंभीर होने की जरुरत है यदि यह अफवाह है तो इसे उजागर किया जाना चाहिए यदि इसके पीछे कोई साज़िश है तो इसका भी पता लगाना चाहिए कारणस्वरूप सरकार के विरोधी ने इस तरह का परिवेश भी बनाने में कामयाब रहे है जिसका फायदा उन्हें बिहार के चुनाव में मिला, नतीजन हर गली नुक्कड़ में असहिष्णुता को लेकर बहश छिड़ी हुई है जबकि वास्तविक में लोगों के लिए शायद ही गंभीर मसला है सिर्फ मिडिया और उन्ही के इर्द -गिर्द नाचने वालों के सोंच के उपज है जिसे परिपक्ता से रोकना अत्यंत  आवश्यक है। अन्तोगत्वा बिहार का चुनाव मोदी सरकार के लिए सबक साबित होनेवाला जो इन्हे आगे की राजनीती को दिशा- दशा  देनें में अहम साबित होनीवाली है यद्दिप इस सबक को सकारात्मक दृष्टि में लेकर भविष्य की रोडमैप  सुनिश्चित करे।

















रविवार, 20 सितंबर 2015




 बिहार चुनाव में ये बेगाने कौन ?


बिहार में शिवशेना और ओबैशी चुनाव लड़ेंगे आखिर चुनाव के जरिये क्या टोटलने का प्रयास में लगे है दोनों पार्टी  या इनके मकसद चुनाव जीतनका नहीं बल्कि कुछ और ही है ? क्या चुनाव के जरिये ओबैशी आगामी उत्तर प्रदेश के चुनाव के रणनीति  को जोरकर तो नहीं देख रहे है क्यूंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम की जनसँख्या लगभग में १ ५-१७  प्रतिशत है जिसमें से ज्यादात्तर लोग ओबैशी को अपने रोल मॉडल मानते है ऐसे ही लोगो के झुकाव को देखते हुए ओबैशी उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव लड़ने की जुर्रत करेंगे अन्यथा इन्होने बिहार और उत्तर प्रदेश के मुस्लिम भाइयों के लिए अभि तक कुछ  भी नहीं किया और जँहातक इनसे कुछ उम्मीद करना भी मुनासिब नहीं होगा क्यूंकि इनके फिदरत में कुछ करने की चाह है ही नहीं, वे सिर्फ अलगाववादी राजनीती के हिमायती है, जो धर्म और महजब के नाम पर जहर उगलते है और इस जहर को लोगो के बीच परोसकर अपना उल्लू सीधा करते है।

दूसरी तरफ शिवशेना भी बिहार के चुनाव  के लिए कमर कस ली है  यद्दपि जीतने के लिए तो कतई नहीं पर अन्य पार्टी की चुनावी समीकरण को तहश -नहश करने लिए हो सकता कुछ सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारे  जो कि  भाजपा और उनके गठबंधन के अंकगणित बिगाड़ सके।  वास्तविक में राजनीती में शर्म और हया के लिए कोई जगह नहीं होता है एक तरफ शिवशेना मुंबई में प्रवाशी बिहारी को नीचे दिखाने व पीटने का कोई मौका नहीं छोड़ते वहीँ बिहार चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारने के लिए काफी अग्रसर है आखिर किस भोरषे, क्या बिहार के मतदान में मराठी मानुष वोट गिराने के लिए तो नहीं आने वाले है?  अनुमानतः  भाजपा के साथ कटुता रही है इसी खातिर जो थोड़ा बहुत परेशान कर सकते उसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते है शायद इससे बेहत्तर मौका फिलहाल मिलने है भी नहीं फिर क्यों छोड़ें ? हालाँकि शिवशेना यंहा जीतने के लिए  कदचित्त चुनाव नहीं लड़ेंगे यद्दपि भाजपा का एक दो प्रतिशत भी वोट काट काफी आघात पहुँचा सकते है और   महाराष्ट्र के चुनाव में भाजपा ने जो रणनीति अपनाई थी  उसका खामियाज़ा किस हद भाजपा से वसूल की जाती है इस बिहार के चुनाव में और ये भी सहज नहीं होगा कि इसकी  भरपाई कँहा और कैसे कर पायेगी ?  अब देखना यह भी है कि बिहारियों  के बीच में शिवशेना क्या छवि है, और कितने सीट पर  शिवसेना ज़मानत बचा पाती है क्यूंकि बिहारियों को भी ठाकरे बंधू के खिलाफ खीश है और हो सकता वे भी इसी चुनाव के माध्यम से बदला लेने में सफल हो जाये और ठाकरे बंधू को सबक सिखा पाये।

बरहहाल बिहार के चुनाव में कितने दोस्त दुश्मन बन जायेंगे और कितने दुश्मन दोस्त बन जायेंगे फिलहाल इनका अंदाजा लगाना आसान नहीं पर जो भी हो बिहार के चुनाव से पुरे भारत की राजनीति की तस्वीर और तक़दीर बदलने वाली है।  हाल में ही जनता परिवार महा गठबंधन में से सपा अलग हो गयी जो इस गठबंधन के लिए बहुत बड़ा झटका है अब इनसे जनता परिवार को कितना नुकशान होगा यह चुनाव के बाद ही निश्चित होगा पर इस बिखराव से महागठबंधन के विस्वनीयता के ऊपर ग्रहण तो लग ही गए।  अंतोगत्वा बिहार का चुनाव कई मायने से दिलचस्प होने वाले है अब देखना है कि  एक बिहारी सब पर कितना भारी है?




जँहातक  समर्थन  की बात है तो मैं भी चाहता हूँ कि बिहार में भाजपा की सरकार हो पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है क्यूंकि इसका मुख्य वजह भाजपाई का अत्यधिक आत्मविस्वास जो इनके लिए नुकशानदेह हालाँकि  इसी प्रकार का आँकलन  दिल्ली के चुनाव भी दिया था पर किसी ने भी इनपर विस्वास नहीं कर पाया नतीजा सबके सामने है। कभी- कभी अत्यधिक आत्मविस्वास भी निराशा का कारण बनता है और यही हुआ था दिल्ली के चुनाव में पुनः एक बार यह देखने को मिलेगा बिहार के चुनाव में  यदि यथाशीघ्र जरुरी कदम नहीं उठाया गया।  बिहार के चुनाव का परिणाम लोगों को झकझोड़ देने वाले होंगे इंतज़ार कीजिए उस क्षण को जब कल्पना से परे सबकुछ होनेवाले है।  यदि भाजपा को फायदा मिलेगा तो एक ही कारण  से कि नीतीश जो  लालू के साथ गए अन्यथा सब कुछ वँहा पर विरुद्ध ही जा रहे है। यद्दपि  टिकट वटबारें को लेकर भी भाजपा को आगाह करना चाहूंगा कि बाहरी और अयोग्य उम्मीदवार को जीतना बड़ी मुश्किल है पचास प्रतिशत ही उम्मीद किया जा सकता है कि इस तरह का उम्मीदवार चुनाव जीत पाएंगे।  एक बात तो शुनिश्चित है कि बिहार चुनाव के परिणाम आने के बाद बड़े -बड़े ज्योतिषिचार्य और अंकगणित विशेषज्ञ का सभी सभी के जोड़ -घटाऊ का हवा निकलनेवाला है। वेट एंड  वॉच ......................... !!!


शुक्रवार, 4 सितंबर 2015


घर की मुर्गी दाल बराबर..........?

"घर की मुर्गी दाल बराबर" वास्तविक में इन दिनों यह कहावत का तातपर्य रह नहीं गया क्यूंकि इनदिनों लोग मुर्गी नहीं दाल के लिए तरस रहे है।  मंहगाई के मार में प्रायः अधिकतर लोगो के घर इनदिनों दाल नहीं गलते इसीलिए तो दाल और मुर्गी के मूल्यों में तुलना करेंगे तो पाएंगे कि मुर्गी खानेवालों के लिए मुर्गी सस्ती हो गयी और दाल मंहगा।  सरकार क्या करे? जमाखोरों ने जो लागत लगाये थे चुनाव के दौरान उस ऐवज़ में मुनाफा तो वसूलेंगे ही, क्यूंकि बिना फायदा का तो बाप भी बेटा का भला नहीं करते फिर चुनाव में करोडो -अरबो का खर्च के लिए पार्टी फण्ड में जो चंदे दिया उसके बदले में कुछ फायदा तो बनता ही है।
फिलहाल मुर्गी खाने वाले भी खुश नहीं है, क्यूंकि क्या करे, मुर्गी से ज्यादा मसाला भारी है नहीं समझे तो समझने  कोशिश कीजिये, फिर भी नहीं समझे , चलो  बता ही  देते है, " दो रुपये की मुर्गी नौ रुपये का मसाला" ऐसे में कौन मुर्गी खाए?, जनाब, बिना प्याज के सब्जी का स्वाद नहीं लगता फिर बिना प्याज का मुर्गी का स्वाद क्या होगा?, बरहाल मुर्गी भी नहीं खा सकते फिर क्या करेंगे नमक रोटी खा कर गुजारा कर लेंगे लेकिन बिना प्याज के नमक रोटी भी गले से नीचे उतरने में शरमाते हालाँकि चीनी के मिठांस का  मजा लिया जा सकता पर सिर्फ चीनी का ,  मिठाई का नहीं क्यूंकि मिठाई का मूल्य में दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है बेशक चीनी शुष्ट पड़ी हो वस्तुतः चीनी का भी ज्यादा मजा नहीं लिया जा सकता क्यूंकि इनका साइड इफ़ेक्ट का कोई तोड़ नहीं है और एक बार इन्होने अपनी ताक़त का अजमाइश कर दिया तो जिंदगी भर आपको  भुगतना पड़ सकता है ऐसे में चीनी से ज्यादा करीबी, नुकशानदेह है,  सावधान रहे!

दरअसल में एक तरफ ईंधन के मूल्य में गिड़ावत वही सभी प्रकार के रोजमर्रा के वस्तु हो अथवा खाद्य प्रदार्थ उनके दाम नीचे जाने के बजाय आसमान को छूने में लगे हुए है ऐसे परस्थिति में सरकार और वृत्त मंत्री  के योजना पर प्रश्न चिन्ह  लगाना कतई अनुचित नहीं है क्यूंकि किसी भी तरह के उत्पाद वस्तु हो व आनाज अथवा साग सब्जियों का मूल्य जिस तरह से बेहताशा इजाफा  हो रहे है अत्यंत  चिंता का विषय है क्यूंकि देश के अधिकाधिक लोग के आमदनी में बढ़ोत्तरी काफी जद्दोहद के वाबजूद शुनिश्चित नहीं है कि होगी ही , जबकि मंहगाई रोज एक नयी कृतिमान स्थापित करने में लगी है। यद्दीप सरकार को सब कुछ ज्ञात है इसीलिए तो केंद्रीय कर्मचारी को मंहगाई के आधार पर DA में बढ़ोत्तरी करती रहती है पर ज्यादात्तर गरीब और किसान लोगों का क्या होगा?, जो कि   ८० से ८५ प्रतिशत जनसख्या के लिहाज से है, क्या वे इस बेइंतहा महंगाई से प्रभावित नहीं हो रहे है?, क्या सरकार को इनके लिए कोई जवाबदेही नहीं बनती है?, अगर सच में सरकार इन लोगों प्रति संवेदना रखती है तो क्यों न यथाशीघ्र कारगर कदम उठाती है सरकार और अफसरशाहों  सरक्षण में ही जमाखोरी का खेल हो या उत्पाद वस्तुओं का दाम बढ़ाने का प्रतिस्प्रधा संभव है  अन्यथा सरकार पूरी सिद्दत  से इनके ऊपर नकेल कसें तो इस तरह अन्यास दामों में बढ़ोत्तरी को रोकी जा सकती है , पिछले एक साल में ज्यादात्तर दवाइयों  के दाम में  २० से ४० प्रतिशत  बढ़ोत्तरी देखे गए है इसीलिए  लोग मंहगाई से लड़ने  में असमर्थता के कारण बीमारी से लड़ते रहते है हालाँकि सरकार छोटी -छोटी बातों का ख्याल कहाँ तक करे कारणस्वरूप जनता को उनके हाल पर छोड़ दिए है। 

आखिरकार कब तक एक वर्ग के लोगो के हित का उपेक्षा की जाती रहेगी क्यूंकि सियाशी दाँव -पेंच में संवेदना और विवेक भूल जाते है जिस कारण इनलोगों को सरकार के प्रति उदासीनता भलीभांति देखि जा सकती है जो कि भविष्य में एक क्रांति का जन्म देने के लिए काफी सिद्ध होगी। 

 
आपका क्या प्रतिक्रिया है मंहगाई के संदर्भ में जरूर अवगत करायेगा अपने टिप्पणी के माध्यम से।

गुरुवार, 3 सितंबर 2015


मानिये प्रधानमंत्री,
मैं आपसे अनुरोध करना चाहता हूँ कि इन दिनों ईंधन  के मूल्य और चीनी के मूल्यों काफी गिड़ावत  हुई वाबजूद इसके न मिठाई का दाम कम  किये गए और न रोजमर्रा के जरुरत के चीजों  के दामों  में गिड़ावत दर्ज देखे गये, मसलन सस्ते ईंधन होने का फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा है जबकि मुनाफाखोरों ने आम आदमी के जेबों को ढीले करने में लगे हुए है इसका मुख्या कारण  है कि  हमारे देश में  कॉमन प्राइस कंट्रोल कमिटी का न होना इसीलिए  खुदरा मुनाफाखोरों अपने सहूलियत के हिसाब से  वस्तु  का मूल्यांकन करते है।  दरअसल में जैसे  ईंधन का मूल्य बढ़ जाता है तो तुरंत मूल्यों में बढ़ोतरी करने से बाज़ नहीं आएंगे जबकि मूल्य घटाने के नाम पर कनि काट जायेंगे।  अन्तः  मैं देश के प्रधानमंत्री से सादर निवेदन करूँगा कि देश हित  व देश के  लोंगो  के हित को ध्यान में रख कर एक  कॉमन प्राइस कंट्रोल कमिटी का संरचना करने का  कृपा करे जो खुदरा जैसे रोजमर्रा के वस्तु, मिठाई  व पब्लिक परिवहन के किराये के ऊपर नियंत्रण रखे और ऐसे मुनाफाखोरों के ऊपर लगाम कसे जो अपनी सहूलियत के हिसाब से किसी भी वस्तु के मूल्य तय कर रहे है वे भविष्य ऐसा न करे।  जय हिन्द …। 

आजादी  तो हमने हाशिल कर लिए हैं पर आज भी हमारे बीच में बहुतो है जिनको  यह रास नहीं आते है पर   हम फिक्र क्यूँ करे इन अवसरवादी और ख़ुदगर्जों का,  आज़ादी हमारे पुरखो की विरासत है जिन्होने इसके खातिर क़ुरबानी दी है इसलिए आज़ादी हमारा मौलिक अधिकार है जबकि इनको बरकरार रखना हमारा कर्तव्य है, जय हिन्द, जय भारत!!

ब्राह्मण वर्तमान परिदृश्य में  सबसे नीच जाति है और शायद इसी के काबिल भी है  क्यूंकि ये सिर्फ खुदको लेकर ज्यादा चिंतित होते है जबकि  उनके आत्मसम्मान और विवेक अपनी जाति और धर्म के प्रति  तनिक भी शेष नहीं बचा ऐसे में जिस हाल में है इसके खुद ही जिम्मेवार है।  क्यूंकि चाहे शाशन हो या प्रशाशन आज भी इनके परामर्श के बिना कोई आरक्षण व कोई अन्य राजनितिक प्रेरित आत्मज्ञान इन आरक्षण के पुजारी हो अथवा राजनीती के दिग्गज हो ही नहीं सकता। मसलन एक हार्दिक पटेल पुरे  पाटीदार समुदाय को एक मंच पर  ला कर खड़ा कर देता है चाहे आरक्षण के समर्थन में ही क्यों ना हो पर यदि हम सवर्ण जो आज भी देश के बुद्धजीवियों में अच्छी खाशी तादाद में है, होने के वाबजूद भी  एक मंच पर नहीं  आ रहे जबकि यह लड़ाई पुरे देश के हिट में है क्यूंकि आरक्षण युक्त महापुरुष पद तो हाशिल कर लेते पर उसके गरिमा के साथ पूर्णतः न्याय नहीं कर पाते है नतीजा  देश में तीव्र दिम्माग के लोग मुंह तक्कु बने रहते है जबकि आरक्षण के कृपा से ऐसे लोग शीर्ष पदो पर आशिन होते है जिनके  निर्णयन लेने के क्षमता के प्रायः अनुकूल नहीं है। दरअसल  मैं  काफी जद्दोजहद के बाद ये विचार किया की क्यों ना  एक ऐसा मंच तैयार किया जो आरक्षण का वरोध करे इसके लिए मैंने आपको लोगो को भी सन्देश भेजा पर आपलोगों  का जिसतरह का प्रतिक्रिया मिला वह किसी भी स्थिति में  इसके पक्ष  में  नहीं थे अर्थात मंच को लेकर आज भी अंसमंजस में हूँ और गहन आत्ममंथन कर रहा हूँ क्यूंकि बिना समर्थन का कुछ भी संभव नहीं है।  जहाँ तक मैं इस मंच पर एक साथ देखना चाहते वे न सिर्फ ब्राह्मण ब्लीक पुरे सवर्ण को एक साथ ला कर एक जन आंदोलन का आगाज़ करना चाहता हूँ ताकि सरकार आरक्षण को लेकर पुनः विचार करे और इसे पूर्णत व धीरे -धीरे बंद करे नहीं तो सवर्ण सरकार को तब तक आयकर का भुगतान नहीं करे, जब तक सबको सामान्य कैटगरी का दर्जा  नहीं देती है व आरक्षण को पूरी तरह निरस्त न कर देती, तबतक यह लड़ाई जारी रहेंगे। इसके लिए सभी जाति  जो सवर्ण कैटगरी में आते है एक साथ -एक मंच पर आकर तब तक लड़ाई लड़ना होगा जब तक उनके मांग को मान नहीं ली जाती है।  यदि आपलोग वाकये इसके पक्ष में है तो आप अपना समर्थन देने का वायदा करें , जो हजार नहीं लाखो में हो इसके लिए अपने सम्पर्क में जितने सवर्ण जाति के लोग है उनको शामिल होने के लिए  प्रोत्शाहित करे और अपना समर्थन like, cooments के साथ रिप्लाय करे।  ध्यानबाद !!!


 केजरीवाल और जनता परिवार…………………… 


केजरीवाल  वाकये में आज की राजनीति के सबसे मजे हुए खिलाडी खुदको साबित करने में लगे है, जनाब जिन्होंने कांग्रेस के नीतियों के खिलाफ शंखनाद करके राजनीती के पृष्ठभूमि पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई हो लेकिन वही महान व्यक्ति आज कांग्रेस और उनके सहयोगी के साथ भविष्य की राजनीति की ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे हो, इस तरह महत्वाकांक्षी सोच रखनेवाले आदमी से कोई सकारात्मक अपेक्षा रखना शायद ही उपयुक्त हो क्यूंकि राजनीती में छूट और अछूत को परिभाषित करना  कभी भी सहज नहीं रहा फिर भी जिनके नीति और नियति पर प्रश्न चिन्ह लगाकर खुदको जन हितेषी बताकर अपनी राजनीती के सितारे को बुलंद करते रहे है बाद में उन्ही पार्टी के साथ अनैतिक सांठ -गाँठ करके आगे की राजनीती को दशा और दिशा देने के तत्पर हो   अब उन्हें किसी भी तरह के लोगो से परहेज़ नहीं है, ऐसे लोगो से आम आदमी का भला कतई संभव नहीं परन्तु ऐसे लोगो से  देश और प्रान्त के नुकशान शुनिश्चित है इनमें किसी तरह का संकोच नहीं होनी चाहिए।

केजरीवाल  आज के राजनीती के शायद पहला मुख्यमंत्री जो बिना स्टेपनी के एक कदम भी नहीं खिसकते है। उनके यह सावधानी से जरूर सीख मिलते है कि इक-इक  ग्यारह होते है इनसे अपनी सोच और कार्य करने की क्षमता पर  काफी बल पड़ता है इसीलिए तो शोले में जय और वीरू की जोड़ी और आजके राजनीती के परिदृश्य में सिशोदिया और केजरीवाल की जोड़ी काफी हिट है।  केजरीवाल ने अब नीतीश कुमार के साथ मिलकर लालू यादव के पद चिन्ह पर चलकर भविष्य की शियासी समीकरण को नज़र में रखते हुए जाति और प्रान्त आधारित राजनीती की अंकगणित को दुरुस्त करने में लगे  है  फलस्वरूप  प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लालू और मुलायम से अब केजरीवाल को दिक्कत नहीं और वे दिन  दूर नहीं जब केजरीवाल भ्रष्टाचार के स्तम्भ के साथ मंच साझा करते दिखे।  वैसे भी राजनीती के स्तर का कोई मापदंड तो कुछ  चिन्हित होता नहीं फिर भी राजनीतज्ञ को कुछ तो अपने विवेक का लिहाज़ रखनी चाहिए ताकि आखरी पड़ाव में जब राजनितिक जीवन का आकलन करे तो खुद ही शर्मसार अपने किये हुए पर न होना पड़े।

दरअसल में केजरीवाल को भलीभाँति ज्ञात हो गया की मुलभुत मुद्दा अब रहा नहीं, किये गए वायदे को पूरा करना कतई संभव नहीं है यद्दीप  लालू और मुलायम की राजनीती को अपनाने से ही दीर्घकाल तक सत्ता का स्वाद चखा जा सकता है।  बिहार और उत्तर प्रदेश से आये हुए भरी तादाद में लोग को ध्यान में रखकर जनता परिवार का जो गठबंधन है उनके इर्द-गिर्द घूम रहे है क्यूंकि बिहार और उत्तर प्रदेश से आये हुए लोगो का समर्थन मिलता रहे तो शायद ही  कोई सत्ता से वंचित रख  सकता , वस्तुतः बिहार के ३१ प्रतिशत और उत्तर प्रदेश के लगभग ४० प्रतिशत दिल्ली के मतदाता है जो किसी भी पार्टी को सत्ता पर काबिज़ करने के लिए काफी मन जा सकता है यदि इनको रीझां पाये तो केजरीवाल की राजनीती सितारे सदैव चमकते रहेंगे और इनको रिझाने में लालू , नितीश और मुलायम अहम रोल निभा सकते है।  इस समीकरण को ध्यान में रखकर केजरीवाल ने जनता परिवार के साथ  जाने में थोड़ी भी संकोच नहीं है।

वास्तविक में लालू, मुलायम और केजरीवाल की राजनीती में कुछ भी भिन्नता नहीं है क्यूंकि इन तीनो का राजनीती करियर का आगाज़ कांग्रेस को खात्मा के लिए होते है पर समय के साथ इन सबका नजरिया बदल जाते है और ये लोग कांग्रेस के साथ मिलकर कांग्रेस के मुलभुत विपक्षी को अपना दुश्मन मान कर एक खेमे में आकर खड़े हो जाते है हालाँकि इस तरह का अनैतिक गढ़बंधन समय के साथ- साथ  अपना स्वरुप बदलते रहते है क्यूंकि इस तरह के गठबंधन का भविष्य सुनिश्चित नहीं होती है क्यूंकी इस गठबंधन के प्रति लगाव तभी तक रहता है जबतक ये मददगार हो जैसे ही मौका निकल गया फौरन एक फिर अन्य गठबंधन का ताना -बाना बुनने लगते है।  फिलहाल  केजरीवाल और नितीश एंड कंपनी का वर्तमान में जो करीबी है भविष्य में देखना है की कबतक रह पाते है और किस हद तक रह पाते है ।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015



 हार बड़ी या जीत ?


चाहे लोक सभा का चुनाव हो अथवा दिल्ली के विधान सभा का चुनाव हो लहर में नौसिखुआ जहाँ फ़तेह कर पाने में कामयाब रहे वही सूरमाओं ने पटकनी ही खा कर पस्त हो गए  इस तरह के परिणाम से अब यह भी तय हो गया कि जनता अब पार्टी और नेता के कद देखने के वजाय उसे सबक़ सिखाने से हिचकते नहीं अर्थात अब सभी प्रदेश व देश के सरकार को इससे सबक लेकर बिना विलम्ब सभी वायदे को पूरा करने का पुरजोरकोशिश करनी चाहिए अन्यथा कुर्सी से हाथ ढोने को तैयार रहनी चाहिए।  लोकतंत्र का इससे बढियां स्वरुप शायद ही कोई और होगा जो सभी प्रकार के विभिन्नता को पीछे छोड़ किसी एक पार्टी को  ऐतिहासिक जीत दिलाने में प्रति समपर्ण हो।  हालाँकि ये जीत को सरलता से नहीं लिया जाना चाहिए क्यूंकि जनता सिर्फ वायदे के आधार पर यदि किसी भी पार्टी को पक्ष में मतदान करती है इसका तात्पर्य यह है कि जनताके  अपेक्षा पर खड़े उतरे नव गठित सरकार।

दरअसल में जनता को अब चेहरा और पार्टी का मतलब समझ में नहीं आती सिर्फ उनके उपलब्धि को सामने रखकर वोट करती है।  जिस कदर लोकसभा चुनाव में आप को सबक सीखने के लिए दिल्ली के सभी सीटों पर बीजेपी को जीत दिलायी गयी उसी तरह इस विधानसभा में बीजेपी को सबक सीखने के लिए आप के पक्ष में ज्यादातर दिल्लीवासी वोट डालें नतीजन ७० में से ६३ सीट आप ने प्राप्त की। दिल्लीवासी में अधाधिक वे लोग है जो रोजमर्रा के परेशानी और मंहगाई से त्रस्त से जिन्हे शायर मार्किट का उछाल हो अथवा जीडीपी ऑन ट्रैक हो के बारे में क्या लेना देना है क्यूंकि बेशक ईंधन के मूल्य में भारी गिरावट दर्ज हो पर चावल-दाल का रेट घटने के वजाय ऊपर ही जा रहे है इसीलिए तो लोंगो ने बड़े बड़े कूटनीतिज्ञ को चित्त कर दिए।

आखिरकार कुछ ऐसे भी लोग है जो अपने दम पर मुखिया का चुनाव नहीं जीत सकते लेकिन देश की हर छोटी बड़ी नीति उनके ही घर के कोनो में बनते -बिगड़ते है जिसको सिर्फ अपने स्वेच्छा के आधार पर मूल्यांकन करते है जिसे जनता न ही समझ पाती  है और न ही लाभ उठा पाती जबकि ऐसे लोगो खुद ही मियाँ  मिट्ठू बनकर फिरते है जो देश और जनता के लिए ही नहीं ब्लिक वे खुद के पार्टी और पार्टी में काम करने वाले के हजारों कार्यकर्ता लिए घातक है।  यदि दिल्ली विधानसभा के चुनाव को गंभीरता से नहीं लिए गए तो आने वाले दिनों में बिहार और बंगाल के चुनाव और भी हताशा से भरे मिलेंगे जो बड़े - बड़े बांकुरों को खाक मिला देंगे।राजनीती के दिग्गज को यह भलीभांति ज्ञात होनी चाहिए कि जनता वह पारसमणि है जो भंगार लोह को  भी सोने में तब्दील कर सकते है व बिलकुल सूर्य के भांति है जिनके रहमो करम पर चाँद सितारे की तरह रोशन कर सकते है और जैसे ही बिमुख हुए आपका चमक तो गायब होगी ही साथ में आपके नामोनिशान ढूढने पर नहीं मिलेंगे।  बरहाल जीतनेवाले को भी आत्म मंथन करके विन्रमता से जनता से किये हुए वायदें को पूरा करना चाहिए जबकि हराने वाले को आत्म चिंतन करके अपने खामियों को दुरुस्त करना चाहिए।


 सूट है या सुहानुभूत ?

 


जिस सूरत शहर के नामचीन उद्योगपति एक सूट के लिए चार करोड़ से ज्यादा खपत कर सकते, जँहा तक मेरा निजी अनुभव है  वँहा  के लोग मुफ्त में एक पैसा खर्च नहीं कर सकते क्यूंकि जिस कदर एक नामी ग्रामी उद्योगपति का व्यवहार मैंने देखा है जिनको तीस से चालीस लाख रुपैया का भुगतान करने के लिए पिछले एक साल से लगातार आग्रह करने के वाबजूद न ही रकम अदा कर रहे है और न ही नुकशान के भरपाई करने के लिए इच्छुक है। जँहा के लोगों के ऐसी प्रवृति है जो बेहद मनी माइंडेड है, क्या वे शौक के खातिर इतना खपत कर सकते है पर कर जाय तो  सवाल तो उठाना लाज़मी है क्यूंकि बोली लगानेवाले ज्यादातरलोग आयकर विभाग के निशाने पर पहले से रहे है? ऐसा तो नहीं है कि ये लोग इस बोली के जरिये प्रधानमंत्री का सुहानुभूति अर्जित करना चाहते हो जिसके बल पर अपनी काली कमाई का सरक्षण कर पाये ।  जो भी हो अधिकाधिक लोगों के इस तरह के कारनामों से काफी हैरान है और सबके जहन में एक ही प्रश्न उठ रहा होगा, क्यूंकि ये बोली अन्यत्र भी लगाये जाते पर गुजरात और उसमें भी सूरत को ही क्यूं चयन किया गया? बरहाल इसका सवाल अतिशीघ्र मिलना शायद मुमकिन न हो पर ज्यादा दिन इसको ढूढने में नहीं लगेंगे………………………!