सोमवार, 15 दिसंबर 2014



दिल्लीवाले माफ़ कर पाएंगे .........................?



 वैसे सभी पार्टी कुछ न कुछ नुश्खा अपनाते रहते है ताकि चंदा और वोट इकट्ठा करने में काम आये  लेकिन केजरीवाल का जो नुश्खा है वाकये में बेमिशाल है इसलिए तो अपनाकर जिस तरह इन दिनों डिनर और लंच पार्टी देने में व्यस्त है ये हैरतअंगेज कारनामा कहा जा सकता है। बेशक चुनाव-ए-दावत के माध्यम से चंदा तो इकट्ठा कर ही रहे है साथ में मीडिया का शुर्खिया मुप्त में बटोर  रहे है। इसे चंदा का फन्दा ही कह सकते है जिसके जरिये लोगो को उल्लू बनाकर खूब मोती रकम इकट्ठा किये जा रहे है।  जबकि दिल्ली के लोगो का मोह उनसे भंग हो गया इसी कारन से इस तरह के नुख्शा अपनाने पर आमादा होना पड़ा क्यूंकि जो मध्यमवर्गीय लोग तन मन , धन से आम आदमी को समर्थन कर रहे थे पर लोगो को जैसे ही ज्ञात हो गया कि इनके टोपी पर ही सिर्फ लिखा है आम आदमी अन्यथा इनके चरित्र और आचरण तो खाशमखस है ऐसे में अब इनको हमारी क्या जरुरत ? कारणस्वरुप जाहिर है पार्टी के प्रति जो स्थान लोग के दिल में था अब शायद कदाचित ही देखने को मिलें।

लोग का सोच वाकये में सटीक है क्यूंकि जो आदमी ३० हजार की थाली परोसने का दम  रखता है या जिनके साथ खाने के लिए कुछ खाश वर्ग के लोग तीस हजार तक चुकाने को तैयार है ऐसी परिस्थिति में इन लोगो को आम आदमी का संज्ञा देना तनिक भी मुनासिब नहीं है।  इसका तातपर्य है कि दिल्ली के ज्यादातर मध्यमवर्ग और गरीब जनता आम  आदमी पार्टी से बिमुख हो रहे है फिर केजरीवाल का चुनावी महा संग्राम में विजयी कौन बनायेगे क्यूंकि अपर क्लास तो पहले से ही इनको नाक्कार चुके है ऐसे में अपर मिडिल क्लास के ऊपर दारोमदार होंगे जो इनको दिल्ली के सत्ता पर काबिज करेंगे हालाँकि तादाद के आधार पर देखा जाय तो अथक प्रयास के उपरांत भी २ -४ सीट भी जीता दें उनका गनीमत होगा।

दरअसल में दिल्ली के जनता केजरीवाल के द्वारा दिए गए दुर्दशा को अभी तक बिसार नहीं सकें है और उनके द्वारा उठाये गए ऐसे अनेको कदम, जिसका हर्जाना दिल्ली के जनता पिछले एक साल से चूका रही है जिसके लिए शायद ही उन्हें माफ़ कर पायेगी। जो ख्याली पलाऊ उन्होंने गत चुनाव के दौरान पकाये थे खुद ही चुनाव के बाद उस पर रायता फैला कर भाग गए, नतीजा आज भी जनता भुगत रही है।  जो व्यक्ति विवेक और संवेदना से ज्यादा अहमियत अपनी आकांक्षाएं को देता है उनके पर आखिर जनता कैसे विस्वास करेगी।  जब चारो खाने चित्त हुए अन्य कोई विकल्प के आभाव में फिर से दिल्ली के तरफ रुख किये ऐसे में दिल्ली वासी क्यों उनको समर्थन करे। ऐसा भी हो सकता है कि फिरसे अचानक अहसास हो चले कि प्रधानमंत्री का प्रबल उम्मीदवार वही है इसके लिए बिना विलंब फिर दिल्ली से कँही और चला जाए तो फिर दिल्ली का क्या होगा ? क्या दिल्ली वालें इस तरह का  प्रतिकूल स्थिति के लिए पुनः तैयार है? हरगिज़ नहीं क्यूंकि  दिल्ली के ज्यादातर लोग  पढ़े लिखे और भद्र है जो व्यवस्था में आस्था रखते है और वे कतई नहीं चाहेंगे कि  किसी भी महत्वाकांक्षी के भेंट दिल्ली को चढ़ाये जाए।  जँहातक  लोक सभा चुनाव के बाद भारत के राजनीती का परदृश बिलकुल बदल गए है,  एक तरफ पुरे देश के छोटे -बड़े दल एक शख्श के इर्द -गिर्द सिमट कर रह गए  फिर बोन व असहज दिखाई दें रहे जबकि विपक्ष अपने वजूद को पुनसर्जित नहीं कर पा रहे है।  ऐसे में जंहाँ क्षेत्रीय पार्टी स्वंय को स्थापित करने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे है वही महागठबंधन की भी कवायद जोरो पर है हालाँकि अभी इसका सकारात्मक परिणाम का कयास लगाना अत्यधिक कठिन है क्यूंकि आज तक इस तरह का गठबंधन भारत के राजनीती को न कभी उपयुक्त दिशा और न हीं अनुकूल दशा दी है फिर भविष्य में कितना कारगर होगा यह अभी तय करना बेशक बेतुकी होगी।


 लोकतांत्रिक देश में लोकतान्त्रिक पार्टी अत्यधिक आवश्यक है फिर भी यदि पार्टी के अंदर ही उनके लोकतंत्र पर सवाल उठाये जा रहे हो फिर इस तरह के पार्टीयों के हाथ देश और प्रदेश का कमान कितना सुरक्षित है यह आत्मचिंतन का विषय है क्यूंकि एक लोकतंत्र देश में सदेव और सर्वत्र लोकतंत्र व्याप्त होना चाहिए इसके लिए सभी राजनितिक गणमान्य बांकुरों को सतत प्रयास करना चाहिए कि पहले अपने दल के अंदर फिर राजनीतिक परिवेश में लोकतंत्र को जीवित रखे। जिस तरह से आआप से एक - एक कर कई महारथी पहले तो पार्टी से खुदको अलग किये फिर पार्टी के अन्तरलोकतंत्र के ऊपर जो कटाक्ष व टिप्पणी किये इनसे साफ़ जाहिर है कि पार्टी के अंदर कुछ तो  है जिससे सबको राश नहीं आ रहा है अर्थात उसके लिए सर्वसम्मति नहीं रखते है।  जो पार्टी अपने चंद मुठ्ठी भर लोगो को खुश नहीं रख सकते है उसके लिए प्रदेश के आवाम को खुश रखना मुमकिन नहीं है।

 दिल्ली  प्रदेश के चुनाव शायद कुछ बढियां होने वाला है तो वह है कि इस बार कोई भी पार्टी झूठे वायदे करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे क्यूंकि दिल्ली वालें पिछले चुनाव से अगर कुछ सबक लिया तो वास्तव यही हो सकता है। आआप ने जाने कितने वायदे किये पर जब इस निभाने का वक्त आया तो बहाना  बना कर भाग गए जबकि अन्य पार्टी बेशक अनेकोअनेक वायदा करे पर निभाने का दम शायद ही किसी में हो अन्तः समस्या यथावत ही रहेंगी क्यूंकि पार्टी जब तक चुनाव नहीं जीतते तब तक उनके लिए जनता सर्वोपरि रहती है जैसे ही चुनाव जीत कर सत्ता पर काबिज़ होती है तो जनता से ज्यादा फिक्रमंद सत्ता और व्यवस्था के लिए हो जाते है क्यूंकि इनको हकीकत आहिस्ता -आहिस्ता समझ में आने लगती कि सत्ता है तो हम है और हमारे आस पास चकाचोंध और हमारी साख है वर्ना हमारे और आवाम में फर्क ही क्या  रह जायेगा ? अन्तः पहले सत्ता को और खुदको स्थापित कर सत्ता से चिपके रहने के लिए प्रयास और उस सोच को बल देती है फिर व्यवस्था को अपने अनुरूप बनाने के लिए अग्रसर दिखते है यद्दीप इन कामो के लिए अगर धन की जरुरत पड़ेगी इसके लिए जनता के जेबें ढीली करने लग जाती है अर्थात पार्टी जबतक सत्ताधारी न हो तब तक के लिए ही जनता की हितेषी बनी रहती है एक बार सत्ता क्या हाशिल किया फिर तो कँहा फुर्सत रह जाती है  जनता का सुध लें।


राजनीती धरातल वास्तव में इस तरह का धरातल है जँहा धरा का तो नामोनिशान नहीं परन्तु तल में सिर्फ दल -दल है, इसीलिए स्वालम्बी और संवेदनशील व्यक्ति वंहा पर बेहद असहज दिखते अन्तः कुछ तो खुदको एक कोने धर लेते है जबकि ज्यादातर सहज और सुगमता से उस माहौल  के अनुकूल अपने को ढाल लेते है।  नेता जो जन प्रतिनिधि होते हुए भी उस सम्मान को हाशिल नहीं कर पाते है जिसके लिए वह निरंतर प्रयासरत रहते है। जबसे दुनिया में लोकतंत्र का नींव रखी गयी है तबसे अनगिनित कदावर और दिग्गज नेता राजनीती के पृष्ठ भूमि पर अपनी शख्सियत का इतिहास लिखना चाहा पर इतिहास गिने चुने नेताओं को भुला नहीं  पाये व उनकी शख्सियत के सामने नतमस्तक हुए अन्यथा बाकियों के  शख्सियत को झुठला दिए। अब देखना यह है कि इतिहास भारत के मौजूदा नेताओं जो सब अपनी शख्शियत को स्थापित करने में लगे है और स्वर्ण अक्षर से अपनी शख्सियत लिखने में व्यस्त है, उन्हें याद रखते है या उनकी भी शख्सियत को झुठला देते है।


सोमवार, 1 दिसंबर 2014


 तीस हजार का थाली......................... ?

विस्मय करने वाली बात है जिस देश में आधी आबादी को पुरे दिन भागम भाग के वाबजूद भी रात में सुखी रोटी से निर्वाह करने पड़ते है उन्हीके देश में लोग एक वक्त के खाने के लिए तीस हजार बड़े फक्र से अदा कर रहे है। यहाँ सोचने वाली बात यह है कि जिस व्यक्ति के साथ खाने के लिए इतनी मोती रकम वसूली जाती है और वे व्यक्ति जो तीस हजार ख़र्च करके  सिर्फ खाने के लिए उनके सम्पर्क में पहुँचना चाहता है या जो व्यक्ति इस तरह का दावत दे रहे है बदले में धन समेत रहे उनके नियत और नीति क्या पुरे आवाम के प्रतिबद्ध होंगे या कुछ लोगो के इर्द- गिर्द ही सिमट कर रह जायेंगे, यह सवाल उठना भी लाज़मी है? 

एक बात औरहै जिसको जानने को लेकर सब कोई काफी अग्रसर होंगे, तीस हजार का थाली में आखिर किस तरह का पकवान से खातिरदारी कीये गए होंगे ? यदि आप जानने के लिए ललायित है तो चलिए हम को बता ही देतें है खाने के पकवान के नाम पर वही सब होंगे जो आप अपने घर के उत्सव में या किसी के दावत के व्यंजन के मेनू में देखते होंगे फर्क सिर्फ इतना होगा कि कुछ चिकनी- चुपड़ी बातों का तरका जरुर लगाया होगा जो कितनो को हज़म हुआ होगा और कितनो इसी कारण से बेहाज़मी का शिकार हुए होंगे। कुछ नामचीन मीडिया जो ऐसे महानुभाव के पीछे घूमने का आदत पाले हुए है उन्ही के कार्यकर्म के माध्यम से पता चला कि सभी व्यंजन शाकाहारी है जो आकाओं के पसंद को ध्यान में रख कर मेनू  तैयार किया गया ऐसे में जिनके दारोमदार पर शीघ्र चुनाव के लिए  एड़ी - चोंटी एक कर रखे थे उन्ही का पसंद को इस मेनू में रखना भूल कैसे  गए यह बात भी कइयों को हज़म नहीं हो रहे होंगे? 

ऐसे थाली का राज हम आपको बताते है दरअसल में थाली तो बस बहाना है इसके जरिये पूंजी इकट्ठा करना है, जो आगमी चुनाव में धन-बल के साथ उतरने के लिए सहायक होंगे। जो लोग इस तरह के दावत में शरीक होते है वे लोग का सपना ही कुछ और होता है वास्तव में उनके सपने में चार चाँद तब लग जाते है जब उनके पार्टी को सत्ता का कमान मिलता है। फिलहाल जो एक थाली के लिए तीस हजार का भुगतान कर रहे है सत्ता के प्राप्ति के पश्चात अनेको तीस हजार का वापसी हो जाता है जिसे रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट कहा जा सकते है। 

इस तरह का परम्परा अब धीरे -धीरे करके अन्य पार्टी भी अपनाने के फिराक में है क्यूंकि चुनाव के  लिए धन संचय करने का सरल और सूक्ष्म मार्ग है।  निर्वाचन आयोग का रवैया देखकर यही समझा जा सकता है कि निर्वाचन आयोग को इस बात का भनक नहीं है यद्दिप अब तो जगजाहिर है फिर चुनाव आयोग को क्यों नहीं है पता ?  फिर भी बिना विलम्ब के इसका संज्ञान धरे अन्यथा इसे भी पार्टी अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझने लगे अन्तोगत्वा  यह भी तो एक प्रकार गतिविधि है जिनके माध्यम से भ्रष्टाचार को ही बल मिलता है इस सत्य को हरगिज़ ठुकराया नहीं जा सकता है ? जरा सोचिये ............................... !!

रविवार, 16 नवंबर 2014

 अच्छे दिन ऐसे ही आएंगे ( भाग -२  ) ?




हम अपने आलेख के इस भाग में प्रशाशनिक के कुव्यवस्था और उनके अपने जिम्मेवारी के प्रति उदासीनता के मद्दे नज़र चर्चा करेंगे।  नई  सरकार आने के बाद देश के बड़े ओहदे पर बैठे नौकर शाह के व्यवहार में बदलाव को लेकर काफी आस्वत  थे परन्तु कोई सकारात्मक परिणाम नहीं देखने को मिल रहा है क्यूंकि मोदी के प्रशाशनिक कुशलता को लेकर कसीदे पढ़े जाते है  मिशाल के तोर पर गुजरात प्रान्त के प्रशाशनिक कुशलता को टटोला जा सकता है लेकिन केंद्र में अभी इस तरह कारनामा देखने के लिए उत्सुक है देश के जनता। 
 लोकतंत्र  का प्रमुख तीन स्तंभ व आधार,  विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। हमने भाग एक में न्यायपालिका के खामिया के ऊपर संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत किया था हालाँकि उसके ऊपर लिखने के लिए बहुत कुछ होते हुए भी नहीं लिखा क्यूंकि आज भी यही स्तम्भ है जिनके ऊपर लोकतंत्र का दारोमदार है बाकि अन्य तो अपने उत्तरदायित्व से मुख फेर रहे है। सर्वोच्चय न्यायलय का जो भी हाल में लिए गए संज्ञान हो अथवा फैसला बहुत ही संतोष जनक रहा जो अन्यन्त ही प्रसंशीय और सराहनीये है फिर भी न्यायपालिका के नीचले स्तर पर ढेर सारे खामिया जिसे अतिशीघ्र दूर  करने की आवश्यकता है। 
कार्यपालिका जो हमारे लोकतंत्र के दूसरा और अहम स्तम्भ है जिनके ऊपर देश का पूरा व्यवस्था निर्भर करता है  लेकिन  इस स्तंभ में  कई प्रकार के त्रुटियाँ देखे जा सकते है जैसे कि भ्रष्टाचार का दीमक, चाप्लूशी और चाटुकारी का सिरहण और कर्त्तव्य बिमुखता का दरार।  नौकरशाह जिसके ऊपर सरकार का पूर्णतः नियंत्र है परन्तु उनके कार्यशैली को लेकर सरकार कभी भी  गंभीर नहीं दिखे और न ही उनके काम काज को दुरुष्त करने के लिए सार्थक प्रयास किये नतीजन १ प्रतिशत नौकरशाह को छोड़ दे तो सभी के सभी अपने जिम्मेवारी से या तो भाग रहे है इसके प्रति लचीला रुख अपनाये हुए है।  बीजेपी के शुभ चिंतक होने के नाते जरूर शपष्ट करना चाहूंगा कि संजीव चतुर्वेदी के खिलाफ जो भी केंद्र सरकार का  भूमिका देखने को मिला वह अति कष्ट पहुँचानेवाला रहा है क्यूंकि हीरा तो देश में बहुत है इस तरह के कोहिनूर हीरा न के बराबर ही है अतः सरकार को चाहिए कि इनके स्वरुप और अस्तित्व को जीवित रखे नहीं तो सरकार और देश दोनों को  इसकेलिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।  कार्यपालिका का जैसे ही बात करते है जहन में इनको लेकर घृणायुक्त  भरम हिचकोले लेना शुरू कर देते है इसका मुख्य वजह है इनके अभी तक कार्य प्रणाली और उनके पहल। 



कार्यपालिका किस तरह अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे है इसका इस आप बीती से बढ़कर शायद ही कोई दूसरा उदहारण होगा जिसका मैं खुदही भुगतभोगी हूँ अन्तोगत्वा आज भी नौकरशाहो के  असंवेदना और उदासीनता से प्रभावित होकर खिन्न हूँ ।  इन दिनों देश के ज्यादातर भागो में जिस कदर अवेद्द निर्माण जोरो पर है इसमें अधिकतर व्यसायिक स्वार्थ को साधने वाले  संगलगन है फिर भी इसे रोकने के लिए न ही सरकार और न ही प्रशाशन गंभीर है जहाँतक न्यायपालिका का भूमिका है वह भी इस मशले  को लेकर सजग  नहीं दिख रहे है यद्दिप सब कुछ जानते हुए भी अभी तक इनके ऊपर संज्ञान लेने से हिचकते है, कारन जो भी हो पर नतीजा बेहद चिंताजनक है। 

अवेद्द निर्माण को लेकर दिल्ली पुलिस, नगर निगम आयुक्त अथवा दिल्ली के उपराज्यपाल सबके यंहा शिकायत ईमेल के माध्यम से अथवा रजिस्ट्री के माध्यम से दर्ज करवाया गया।  एक महीना के उपरांत भी कोई ठोस करवाई होता नहीं देख और अवेद्द  निर्माण न रुकता देख दूरभाष के जरिये शिकायत के बारे जानकारी लेना शुरू किया हालाँकि कुछ अधिकारी इसको आगे जरूर किये थे पर इसको आगे करके भूल गए व निश्चिंत हो गए जबकि  संबधित विभाग इसके प्रति न कोई तत्परता दिखाये और न ही करवाई करते दिखे। जब एक महीना के उपरांत भी कोई सकारात्मक परिणाम आता न देख कर उपराज्यपाल के अधिकारियो से गुहार किये  गए अतिशीघ्र कदम उठाने के लिए। काफी आग्रह के बाद उपराज्यपाल के दफ्तर से उपायुक्त -नगर निगम  के दफ्तर से सम्पर्क किया और उन्हें फौरन करवाई करने को कहा फिर भी उपायुक्त (नगर निगम ) दफ्तर से कुछ होता न देख उपराज्यपाल के दफ्तर से पुनः सम्पर्क साधा गया और एक बार फिर उपराज्यपाल के दफ्तर ने उपायुक्त (नगर निगम ) को तुरंत करवाई के लिए कहा।  अन्तः उपायुक्त (नगर निगम) ने अपने जूनियर इंजीनियर को साइट निरीक्षण के लिए भेजा।  अचंभित करने वाली बात यह है जिसके निरक्षण के लिए हम लोग पुरेदिन बैठे रहे  और बार - बार राजनिवास से गुहार करते रहे पर वह आकर और अवेद्द निर्माणकर्ता से चुपके मुलाकात करके चले गए और इसका पता हमलोगो को तब चला जब वह साइट पर से जा चुके थे यह बात जब हमने उपायुक्त (नगर निगम ) को बताया और अपना संदेह प्रगट किया उनके कार्यशैली को लेकर तो उनके तरफ अस्वासन मिला कि वह अपडेट करेंगे जब वह सूचना देंगे पर काश हमलोंगो को वर्तमान स्थिति का जानकारी मिलता फिलहाल जो भी करवाई नगर निगम और सम्बंधित विभाग द्वारा हुआ है इसका मुख्य कारन है कि अभी तक किसी ने भी सुध नहीं लिया !

आलाधिकारी के यंहा जब आप शिकयत दर्ज करवाते है तो वह न आपको इसका जानकारी देंते है और न ही शिकायत के विरुद्ध जो भी कदम उठाते है उसे आप से साझा करते है इस तरह के व्यवस्था में पारदर्शिता का अपेक्षा करना कदापि संभव नहीं है और यह सिलसिला कई बर्षो से यथावत चलता आ रहा है।  वैसे भी कांग्रेस कभी भ्रष्टाचार के प्रति कठोर नहीं दिखे इसीका परिणाम था इनके ज्यादातर मंत्री व नेता इसमें संलिप्त  पाये गए।  बरहाल नई  सरकार से लोग बदलाव की अपेक्षा करते है जिन्हे पूरा किया जाना अभी भविष्य के गर्त में है, हालाँकि इसे निपटने के लिए प्रयाप्त समय की आवश्यकता है।  मोदी की रूचि  और व्यकित्व को देखते हुए लोगो को उनपर तनिक भी संदेह नहीं है कि इन सबको दुरुस्त करेंगे परन्तु उनके मंत्रिमंडल के बारे में पूछेंगे तो शायद जवाब इसके विपरीत ही होंगे। 
देश अनेको प्रकार के आतंरिक कलहो से झुंझ रहे है वह चाहे सामुदायिक रंजिश का हो अथवा अन्य अपराधिक मामला पर प्रशाशनिक भूमिका हमेशा सवालो के घेरे में रहे है यदि प्रान्त के आधार पर बात करे तो ज्यादा फर्क नहीं है सभी प्रान्त प्रायः इस तरह के समस्या से झुंझ रहे है।  इस कारन एक तरफ जँहा आपराधिक गतिविधि में संलिप्त लोगो को नैतिक समर्थन मिलता है वही आम आदमी इस तरह के तत्व से खुदको झुपते फिरते है कारन खौफ का मौहाल बना हुआ । 

 दरअसल में संदेह का गुंजाईश तब तक  कम नहीं होगा जब तक वितरण प्रबंधन और निगरानी तंत्र शशक्त नहीं होगा।  सरकार को चाहिए कि कार्य कौशलता के प्रशिक्षण के साथ नैतिक प्रशिक्षण भी मुहैया करवाये ताकि नौकरशाह ईमानदार और जवाबदेही हो सके। देश को प्रगति के पथ पर वाक़ये अव्वल लाना है तो पहले नौकरशाह यानि कार्यपालिका को दोषमुक्त करना होगा अन्यथा प्रगति सिर्फ दिग्भ्रमित करनेवाला होगा या क्षणभंगुर होगा जिसे दीघर्कालीन हरगिज़ नहीं कहा जा सकता है।  
वास्तविक में कार्यपालिका को जब तक स्वायत्ता के साथ जवाबदेही नहीं दी जाती तब तक इनसे अपेक्षाकृत परिणाम का परिकल्पना करना कतई मुनासिब नहीं। हालाँकि इनके कामकाज के निगरानी रखने के लिए जागरूक विभाग और अपील सम्बन्धी विभाग को भी चुस्त और दुरुस्त करने की आवश्यकता है।  स्वाभिक है एक तरफ काम करने वाले को आज़ादी मिलेंगी जबकि ऐसे लोगो के ऊपर अंकुश लगेंगे जो अपने उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी से निर्वाह नहीं करते है।  जितने भी शिकायत किये जाते है उसके लिए एक चैन सिस्टम डेटाबेस बनाये जाने की जरुरत है जिसका मुख्य केंद्रविंदु प्रदेश में मुख्यमंत्री और देश में प्रधान मंत्री हो ताकि प्रधानमंत्री के दफ्तर को इसके जरिये देश के कई मुलभुत समस्याओ से रूबरू होंगे जो उनके किसी तरह के स्कीम लाने और चलाने में मददगार साबित होंगे वही नौकर शाह भी चाहकर भी अपने कर्तव्य से बिमुख नहीं हो पाएंगे इसके लिए हमेशा अपनी जवाबदेही के प्रति सजग रहेंगे क्यूंकि उनको यह भली भांति ज्ञात होगा कि उनके हर एक हरकतें पर सीधे देश अथवा प्रदेश के मुखिया के पैनी नज़र है।  हालाँकि  इस तरह का खाका तैयार करना शायद मुमकिन नहीं है विशेषतः ऐसे परिदृश्य में जंहाँ सीधे तोर पर प्रदेश और देश के मुखिया की जिम्मेवारी सामने आती हो। यद्दिप इस तरह का शिकायत उन्नमूलन प्रणाली बनाये जाते है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा देश के आम लोंगो को होगा जिनका आवाज लचर व्यवस्था के कारन सुनी नहीं जाती व दम तोड़ देती है। कमोबेश सरकार से जरूर अपेक्षा कर सकते है  इस तरह के चमत्कार का जो सरकार और जनता के बीच की खाई को दूर कर सकेंगे। इनदिनों सरकार के तरफ से इस तरह का पहल भी किये गए है लेकिन ये अभी आधे अधूरे है क्यूंकि उनके इस पहल के माध्यम से सिर्फ सरकार के हर एक काम काज की जानकारी सीधे जनता तक पँहुच रही है  परन्तु  जनता की बात सीधे सरकार तक पहुँचे  इसका अभी  कोई आधारभूत संरचना नहीं हो पाया है। 

पिछली सरकार जिस कानून को लेकर पुरे कार्यकाल में  खुद ही अपनी पीठ को थपथपाती रही वह कानून आज भी अपना वजूद को ढूढ रहा है और कुछ विभाग को छोड़ दें तो इस कानून के अंतरगर्त सिर्फ आपको यही देखने और पढने को मिलेगा कि यह मान्य व नहीं या बाध्य नहीं है अर्थात आपके आवेदन को निरस्त किया जाता है।  जिस सूचना के अधिकार के कानून को लेकर सरकार दावा करती रही कि जनता को बहुत बड़ा हथियार दे दिया और काश यह बहुत बड़ा हथियार साबित भी हो पता यदि नौकरशाह इसका तोड़ नहीं निकाल पाते अर्थात इस कानून के माध्यम से जो जनता को अधिकार दिया गया उसे छीन तो सकते नहीं पर दिग्भर्मित व दबा जरूर सकते है। आख़िरकार सूचना के अधिकार के कानून का जनता को न पूर्ण उपयोग का अवसर दिया जा रहा है और न ही इसके माध्यम से सटीक सूचना मुहैया करायी जाती है फलस्वरूप सूचना के अधिकार का कानून सिर्फ चंद कदरदानो के रहमो करम आश्रित है। सूचना के अधिकार कानून को लेकर जो भय का वातावरण बना है वह न सिर्फ नौकरशाहों के दफ्तर में देखा जा सकता है ब्लिक इसी तरह का परिदृश्य राजनीती गलियारों में भी महसूस किया जा सकता है इसीलिए तो पिछली सरकार कानून में संशोधन करने  का मन बना ली थी परन्तु लोकसभा चुनाव के चलते असमंजश रह गई।
प्रश्न यह उठता है कि जिन नौकरशोहों और राजनीती के दिग्गज के काम काज को सरेआम करने के लिए सूचना के अधिकार का कानून का इस्तेमाल किया जा रहा  है क्या इस बात को राजनीती के दिग्गज हो अथवा नौकरशाह हज़म कर पा रहे है ? बेशक हज़म कर भी जाय पर इस कर्तव्य को कितने विनर्मतापूर्वक और ईमानदारी से निभा रहे  इसके लिए आज भी दुविधा लोगो के मन में जमी हुई है जो लाख कोशिश के वाबजूद   तश से मश नहीं हो रही है।  फिलहाल  लोकपाल कानून के बारे टिप्पणी करना उचित नहीं होगा व बहुत जल्दी होगा पर यह तो तय है कि कानून को जितना समय अपने रूप को अख्तियार करने में लगता  उनसे पहले ही हमारे बुद्धजीवियों इनका तोड़ खोज लेते है बस देखना है कि इस कानून का तोड़ मौजूद है अथवा अभी भी तलाशे जा रहे है। अगर एक शब्द में लोकपाल के संदर्भ में जरूर कहूँगा कि इस कानून में भी कई प्रकार के त्रुटियाँ है जो इनको कारगर होने से रोकेंगे और इनके भी लाभ से अधिकतर जनता बंचित ही रहेंगे। 

मौजूदा परिवेश में देश को कानून से ज्यादा व्यवस्था व तंत्र को दुरुस्त करने की जरुरत है अब यह निर्भर हमारे सरकार के ऊपर है कि कितने जल्दी और किस हद तक इसको दुरुस्त करती है।  

गुरुवार, 13 नवंबर 2014


 अच्छे दिन ऐसे ही आएंगे ( भाग -१ ) ?

 
मोदी के द्वारा सभी प्रकार के उठाये गए कदम अत्यंत ही सहरानीय है परन्तु इसका परिणाम आना अभी शेष है।  लेकिन प्रश्न ये उठता है कि क्या इस तरह का बातें करने से समस्या का समाधान हो जायेंगे क्यूंकि उनके ही इर्द -गिर्द ही ऐसे लोगो की कमी नहीं है जो बेशक प्रत्यक्ष रूप से तो विरोध करने से तो बच रहे है परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उनके सपने को साकार होने में बाधक का भूमिका निभा रहे है, इस तरह के परिस्थिति में मोदी का वह सपना जो भारत और भारत के लोगो के लिए देखें है व देख रहे है वह हरगिज़ पुरे नहीं होंगे क्यूंकि प्रबल इच्छाशक्ति के वाबजूद तत्परता अनिवार्य है अन्यथा आपके इच्छा शक्ति अद्भुत काम करने से वंचित रह जाते है और अंत में  उसका परिणाम असंतोष जनक ही रहता है ?

हालाँकि मोदी अपने आस -पास के परिदृश्य से भलीभांति वाकिफ़ है इसीलिए तो उन्होंने कुछ ऐसे शख्श  का चयन करके अपने मिशन से जोड़ रहे  है जिनका व्यक्तित्व फिलहाल परेणास्रोत एंव बेदाग रहे है। यदि मुझ जैसे लोग से पूछे कि हमारे प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए तो जवाब एक ही होगा कि आपको कुछ करने की जरुरत नहीं ब्लिक आप अपने अनुरूप कुछ ऐसे लोगो को सामने लाये  अथवा बनाये जो वाक़ये देश के प्रगति और समृद्धि के लिए प्रतिबद्ध हो क्यूंकि रचनात्मक सोच को हकीकत का जामा पहनना न ही सुगम और न ही असंभव है परन्तु इसके लिए हठ और समर्पण दोनों का अत्यधिक जरुरत होता है फिर भी इतना आसान नहीं होगा यदि आपके लक्ष्य को प्राप्त करने में बहुतों  का सहयोग न मिलें।

प्रधानमंत्री जन धन योजना हो अथवा स्वच्छ भारत अभियान बहुत ही सार्थक और स्वार्थ विहीन प्रयास है लेकिन इसको पूरा करने के लिए एक बहुत बड़ा जनसमूह को एक साथ आना होगा जो अपने कर्तव्य को पूरी सिद्दत से निर्वाह करें अन्यथा इनका प्रचार प्रसार बेशक़ जितना करलें पर जमीनी हकीकत इससे परे होंगे।

दरअसल  में जिस देश का प्रधानमंत्री सीधे लोंगो के साथ जोड़ कर अपने विचार का आदान प्रदान करने में रूचि ले रहा हो उसी देश के बाबुओं जनता से मुखातिर होने में गलानी समझते है ऐसे में आज तक बापू और नहेरु का सपना तो अधूरे हुए पड़े है फिर मोदी का सपने कैसे पुरे होंगे? जिस देश में भ्रष्टाचार लोगो दिनचर्या बन चूका है,  जिसे नक्कार नहीं सकते ऐसे में उनसे किसी भी जवाब देहि और ईमानदारी का अपेक्षा करना सरासर बेईमानी मानी जाएगी।  हमारे देश के प्रधानमंत्री चाहे जितना जोर लगा ले पर लालफीताशाही तस से मस नहीं हो रहे है क्यूंकि उन्ही के ऑफिस में बैठे ऐसे भी बाबुओं है जो इस मुहीम में उनका संग कदापि नहीं देंगे इसीलिए इन्वेस्ट मौहाल को लेक, भारत को सौ तक सूचिआंक में जगह नहीं दिए गए, वावजूद हमारे प्रधान मंत्री अपने  कोशिश में कँही भी कोताही नहीं दिखाए। फिलहाल विश्व के समक्ष आज भी जिस तरह से हमें देखे जा रहे है उसके लिए सरकार, प्रशाशन और न्यायपालिका  तीनो ही बराबर के जिम्मेवार है। न्यायलय को क्या कहना, उसमें भी निचली अदालत में सिर्फ लोगो को तारिक ही मिलते है। उदहारणस्वरुप   ललित नारायण मिश्र का हत्या आज से चालीस पूर्व हुए थे उस मुकदमा का फैसला अब आया है वह भी निचले न्यायलय में जबकि अभी अनेको विकल्प मोहजूद है जँहा पुनः गुहार करने का गुंजाईश है।  ऐसे में कैसे सुनिश्चित होगा  कि असली दोषी को सजा मिलेगा ?, शायद कोई भी नहीं क्यूंकि व्यक्ति के औसतन आयु  ७५-८० साल होता है ऐसे में अगर कोई भी अपराधी गुनाह १५- २० साल के दौरान करते है जबकि चालीस में निचली अदालत से आरोप सिद्ध होता है उसके पश्चात ऊँच न्यायलय है तत्पश्चात सर्वोच्य न्यायलय इन दोनों न्यायालय से फैसला आने में तकरीबन १० साल तो चाहिए। इसी अवधि में आरोपी स्वर्ग सिधार जाते है  और मुकदमा बर्खाश्त हो जाता है  जबकि ललित नारायण मिश्र का  मामला काफी ही हाइ प्रोफाइल था …  ऐसे में आम आदमी को तो इनसे भी ज्यादा समय लगेगा क्यूंकि न्यायलय में मामला श्रेणी चिन्हित करके ही सुनवाई की जाती है या फैसला सुनाये जाते है। अन्तोगत्वा न्यायलय के प्रति आस्था और श्रद्धा रखना बहुत ही कठिन कार्य है।
वास्तव में सबसे पहले न्यायलय को सुधारने की जरुरत है हालाँकि न्यायलय सुधारक विधयेक लाया जा चूका है फिर भी कई प्रकार के अभी भी खामियाँ  जिनके ऊपर पुनः विचार करने की जरुरत है ताकि आमलोगों को  बिना विलम्ब के संतोषजनक न्याय मिल सके।

यह आलेख अभी जारी है अपने दूसरे भाग में …………………………………… .।

 केजरीवाल आखिर चुप क्यूँ है ?



केजरीवाल के बेटी को लेकर जिस कदर का खबर मीडिया में आ रहे है इसके लिए केजरीवाल को कठोर करवाई नहीं करना चाहिए उनके खिलाफ जो उनकी बेटी के बारे में अभद्र टिप्पणी करते है क्यूंकि किसी भी महिला के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करना गैर कानूनी है ऐसे में केजरीवाल  टिक्का टिप्पणी करने वाले के खिलाफ कुछ नहीं करना और माफ़ी दे देना क्या उनकी राजनीती का हिस्सा ही तो नहीं जो पुरे सुनिजीत तरीके से अंजाम दिए जा रहे है ? सवाल तो उठेंगे ही क्यूंकि अभी तक राजनीती के हिट के लिए कई बार इस तरह के काम किये जो लोगो के सोंच से परे है। इन्होने राजनीती में बढ़ते वंशवाद परंपरा का कत्तर विरोधी खुदको मानते थे पर अपने दो साल की  राजनीती के विरासत को संभालने के लिए नाबालिग बेटी को राजनीती में ले कर आना  और सक्रिय करना भी लोगो को अचंभित करता है इससे एक बार फिर अपने जुबान से फिसल गए केजरीवाल। फिलहाल लोग उनके किसी भी बात पर यंकी नहीं करना चाहते है इसी कारण हतोत्साहित हो कर कुछ इस तरह का अनाप -सनाप हरकतें तो जान बूझकर नहीं कर कर रहे ताकि जनता का ध्यान आकर्षण कर सके ? लोगों संदेह और लोग चाहते की अब भी अपने परिपक्कता का उदहारण दे पर उनके हरकतें देखकर तो लगता है कि ऐसा कभी भी मुमकिन नहीं है और आने वाले दिन में कुछ इस तरह का कारनामा करते दिखंगे जो लोगो को अचरज में डालेंगे।

दरअसल में केजरीवाल की राजनीती फिलहाल दो राहे  पर खड़ी है, एक रास्ता जो सीधे उनको खोये हुए शाख को पुनः जीवित करने का काबलियत रखता है जबकि दूसरा रास्ता इनके राजनीती के भविष्य को गर्त मिला सकता है। केजरीवाल अपनी राजनीती के अनुकूल रास्ता को चिन्हित करने में लगे जो सीधे उन्हें फिर से सत्ता पर काबिज कर दे परन्तु उनका यह लालसा उनके ऊपर इस कदर प्रबल  है कि उचित और अनुचित दोनों को तिलांजलि देकर सिर्फ सत्ता के उस कुर्शी पर केंद्रित कर रखे है। बिलकुल  उसी भांति जैसा अर्जुन को  पंछी के आँख नज़र आते थे उसी तरह इनदिनों केजरीवाल को सिर्फ दिल्ली की गद्दी नज़र आते है अन्यथा बिना विलम्ब के अपनी बेटी के ऊपर टिका टिप्पिणि करनेवाले के खिलाफ कठोर कदम उठाते है क्यूंकि जो बाप अपनी बेटी की अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकते उनसे देश की जनता क्या अपेक्षा करेगी ? आखिरकार केजरीवाल जी अब भी तो  कुछ कीजिये……… !!


सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

स्वच्छ भारत किसकी जवाबदेही ?


बड़े -बड़े मंत्री हो या बाबुओ,  प्रधानमंत्री  के इस जन अभियान के आध में खुदके लिए अच्छी खाशी पब्लिसिटी बटोरने में लगे है नतीजन १५ मिनट्स के इस अभियान के लिए रंगारंग  कार्यक्रम प्रायोजित कर रहे है जिसके कारन लोगो के जेब पर झाड़ू चला रहे है। जिस कदर मोती रकम झाड़ू खरीदने के लिए खर्च किये जा रहे है जो कि देश के जनता का मेहनत की कमाई है, लाइव ब्राडकास्टिंग करने के लिए पहले से  मीडिया के टीम को बुलाई जाती है आखिरकार लाइट, कैमरा और एक्शन के बीच में मंत्री हो या बाबुओ मुस्किल से पंद्रह मिनट्स अपने हाथ में झाड़ू थामकर फोटो अथवा वीडियो शूट कराते है औ र बड़ी सी गाड़ी में बैठ कर वंहा से निकल लेते है ।  आखिर बात यह उठती है कि अगर स्वच्छ भारत के अभियान को काया कल्प देश के आम आदमी को ही करना है तो इस तरह का प्रचार -प्रसार करना कितना औचित्य है या  इस तरह के ढकोशला की क्या आवशकता है ? बिलकुल नहीं , क्यूंकि इन प्रचार -प्रसार में देश के लोगों का ही जेब को ही सफा किये जायेंगे ।

मानिए प्रधानमंत्री के इस पहल पर बेशक उंगली उठाने का गुंजाईश तनिक भी नहीं है क्यूंकि इस जन अभियान के प्रति जो उनके सोच है वे देश के समर्पित व अभूतपूर्व है और उनके यह प्रयास भी अतयंत  प्रशंशिय है पर उनके इस जन अभियान के प्रति उन्हीके बाबुओ और मंत्रीयो के समर्पण पर लोग का विस्वाश हरगिज़ नहीं है क्यूंकि स्वच्छ भारत के अभियान के लिए जो इच्छा शक्ति की आवश्यकता है वह किसी भी बाबुओ और मंत्रीयो में नहीं देखे जा सकते है और यदि इस अभियान से जुड़े है तो सिर्फ अपने स्वार्थ और मज़बूरी के चलते जो कतई इस अभियान कामयाब नहीं बना सकते है अर्थात हमारे प्रधानमंत्री जी को चाहिए कि सबसे पहले इन अभियान से जुड़े हुए निकटम लोगो को प्रेरित करे क्यूंकि वे अगर इस अभियान में सलग्न है तो मुफ्त में देश का सेवा नहीं कर रहे ब्लीक ये उनका कर्तव्य में से ही एक है जिसको वे जवाब देहि के साथ पूरा करे।

देश में ग्रामीण क्षेत्र में वास्तव में कोई ऐसा संस्था नहीं है जो स्वच्छता के प्रतिक हो पर शहरी क्षेत्र में नगर निगम एक ऐसा  संस्था है जिनका प्रमुख काम होता है सफाई का पर वे सचमुच में थोड़े भी प्रयासरत होते तो आज हमारा शहर कचड़े के ढेर पर नहीं बैठे होता। प्रधानमंत्री को चाहिए एक ऐसी पालिसी बनाये जिसके अंतर्गत नगर निगम के काम - काज के ऊपर निगरानी रखी जाय क्यूंकि शहर के गन्दिगी के लिए अगर कोई बहुत बड़ा कसुरबार है तो वह नगर निगम के अधिकारी, पार्षद और कर्मचारी जो अपने कर्त्वय से विमुख है। जिस देश के  नगर निगम में भ्रष्टाचार अपने सोलह कलाओं के साथ व्याप्त हो उस देश के गन्दिगी को कौन सफा करेंगे? अगर देश को स्वच्छ बनाना है तो सबसे पहले नगर निगम को स्वच्छ बनाना होगा जो सरल नहीं है।  सरकार चाहती है सब कुछ जनता खुद करे यह हरगिज़ मुनासिब नहीं है अगर देश के जनता अपने मेहनताना का एक बड़ा हिस्सा सरकार को कर के रूप में देती है इसीलिए कि सरकार देश के जनता को बुनयादी सुबधाएं मुहैया कराये।  सरकार वास्तव में चाहती है कि स्वच्छ भारत बनाये तो सबसे पहले व्यवस्था को दुरुस्त करे इसके लिए नगर निगम और प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड को जवाब देहि बनाये क्यूंकि देश के ७० फीसदी गन्दिगी के लिए ये दो ही संस्था सीधे तोर पर जिम्मेवार है क्यूंकि ये अपना काम-काज  पूरी ईमानदारी से नहीं करते जबकि ३० फीसदी कसुरबार देश के वे जनता है जो गन्दिगी फैलाती है। एक तरफ देश के जनता को प्रेरित करके गन्दिगी को रोकी जा सकती  है जबकि सिविक बॉडी को जवाबदेही बनाने की जरुरत है ताकि वे अपने कर्तव्य का निर्वाह पुरे निष्ठा और श्र्द्धा से करे।

दरअसल में गन्दिगी से अगर सबसे ज्यादा कोई प्रभावित कोई होता है तो हम आम आदमी ही है जो इस कारन से अनेको बीमारी का शिकार होते है , साथ ही पुरे विश्व के पतल पर हमेही इनके लिए शर्मसार होना पड़ता है। अन्तोगत्वा  जिम्मेवार कोई भी हो पर स्वच्छ भारत का अभियान हम सबके लिए जरुरी है क्यूंकि स्वच्छ भारत ही हमें न कि पुरे विश्व में सम्मान दिलाएंगे ब्लीक इनके कारन से फैलानेवाली बीमारी से भी बचाएँगे। इसीलिए आओ चले भारत को स्वच्छ बनाये, गांधीजी के सपना को साकार करे ।

सोमवार, 22 सितंबर 2014



यही जीवन-सार है !!

जीवन तो धारा नहीं जो निरंतर होता रहे प्रवाह,

 अल्प आयु निर्मित जिनका निश्चित है अंत!

जीवन तो हारा नहीं अगर न चखे स्वाद सफलता के,

 नस्मष्टक होगी प्रकृति यदि जारी रखेंगे प्रयन्त !!


जीवन तो चाँद - तारा नहीं जो औरो के अस्तित्व से निखारे खुदको,

ये तो वह दीपक है जो जल-जल  कर रोशन करे अपनेको !

जीवन तो द्वारा नहीं जो तृप्ति करे अपनी सभी हवश को,

जीवन तो एक सहारा है जो प्राप्त करे अनगिनित सपनेको !!


जीवन में शर्म के लिए कोई जगह नहीं क्यूंकि,

आये है नंगावस्था में ही निर्लज्जित हो कर !

करके जतन सदेव ताकि खुदको गोरवाविंत समझंगे,

जब अंतिम विदाई हो सुसज्जित हो कर !!


पञ्चतत्व का यह काया, पंचतत्व का उधार है,

कर सम्मान उन्हिको बाकि जीवन बेकार है !

एक दिन सब अपना -अपना हिस्सा लेंगे,

तेरे पल्ले कुछ न पड़ेंगे यही जीवन-सार है !!








गुरुवार, 18 सितंबर 2014

*ना जाने कितने अर्शे से यह उम्मीद लिए था कि तुम आओगे कि  फिर से जिंदिगी में आएगी बहार*
*तुम आये और आकर चले गए, मुझे तो खबर नही, खैर जिंदगी आज भी कर रही उस लम्हे का इंतज़ार**

सोमवार, 8 सितंबर 2014



आने वाला विधानसभा चुनाव बिहार का टर्निंग पॉइंट……!! 


हाय रे नितीश बाबू, चूहा खाने वाले शख्श के हवाले बिहार और बिहार की जनता को करके खूब मजाक किया है। बेशक, आप अपने को सोशल इंजीनियर कहते हो पर ये जो मांझी है, जरूर आपके नैया को बीच मझधार में डुबोयेगा उस त्रासदी से न लालू और न हीं मैडम आप को किनारा लगा पाएंगे जिस कदर विकाश और शुसाशन का मसीहा बनने के खातिर उत्तावलापन आप में कूट -कूट  कर भरा था अन्तः आज वही महत्वांक्षा ने आप को नेस्तनाबूद कर दिया और जिनको वर्षो आप कट्टर विरोधी मानते थे और जिनके लिए सदेव अभद्र भाषा का प्रयोग करते रहे थे अचानक उनके गोद में जा कर बैठ गए हैं हालाँकि वे आज भी राजनितिक समझोता के तहत उनके  अपनी गोद में बिठा रखा है अन्यथा मज़बूरी नहीं होता तो उनको  दुत्कारने के आलावा  कुछ नहीं देता।  वास्तविक में ज्यादातर लोग नितीश बाबू के इस हैरतअंगेज कारनामे को देखकर सन्न है क्यूंकि बहुतो को ये समझ यह नहीं आ रहा है कि आखिर लालू और नितीश के बीच जो गठजोड़ है इसको नैतिक कैसे कहे?, जो कि न ही वैचारिक और न ही मौलिक तालमेल रखता है।  अगर इन दोनों के बीच में कुछ समानता है तो वह सिर्फ अल्प संख्यक  वोट को हासिल करने की होड़ अर्थात कांग्रेस , आरजेडी और जेदयू के बीच महा गठजोड़ मौका का तकाज़ा है जो अवसरवादी व मौकापरस्ती राजनितिक का जीता जागता  उदहारण है जो पूरी सिद्दत से हमें यह सिखाता है कि राजनीती में सब कुछ जायज़ है जहाँतक विचार अथवा सिद्धांत सिर्फ दिखावे के लिए होता और जो मौका और अवसर के नीचे दब कर दम  तोड़ देते है।
यदि कांग्रेस और आरजेडी से कुछ सीखा जाय तो केवल ये सीखना अहम होगा कि परदे के पीछे से अपने आशाएं और आकांक्षाएँ को कैसे पूरा किया जाता है?, इसीलिए ज्योंही आम चुनाव के पश्चात नितीश बाबू के सपने पर पूर्ण विराम लग गया, बिना बिलम्ब के परदे के पीछे से राजनीती करना शुरू कर दिए हालाँकि इनसे यह तो साफ़ जाहिर हो गया कि अब सीधे जनता से रूबरू होना उनके लिए सहज नहीं है क्यूंकि जनता इस कदर उनके महत्वाकांक्षी इच्छाए  को जलाकर राख कर दिए, इसी लिए तो बौखलाकर जतिन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस और आरजेडी के द्वारा अतीत में किये गए राजनीति से ही प्रभावित होकर उनके नक़्शे - कदम पर आगे की राजनीती करने निश्चय किया इसी कारन से परदे के पीछे की राजनीती को अपनाया। आरजेडी ने यह कारनामा तब किये थे जब लालू को चारा घोटाला के आरोप में जेल जाना पड़ा था उस समय उन्होंने ही रावडी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर परदे के पीछे की राजनीती की नींव रखी और कांग्रेस ने पिछले दस साल से भारत के आवाम को इसी तरह का ही राजनीती से केंद्र  के सत्ता पर काबिज़ थे मसलन मुख्या कोई और फैसला किसी और का अर्थात फ्रंट पर कुर्सी काबिज़ शख्श सिर्फ रबड़ मोहर का काम करते है, यद्दीप कांग्रेस और आरजेडी को इसके बदले बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी , नतीजन कांग्रेस आज सेंटर में लीडर ऑफ़ अप्पोज़ीशन के पद से भी मेहरूम है वही आरजेडी का कमोबेश यही हाल बिहार में रही है। अब देखना है कि शुसाशन बाबू का क्या हाल होता है ?

जनता को अभी तक समझ में नहीं आ रही है जो नितीश बाबू लालू को फूटी आँख सुहाते नहीं थे आज क्या चमत्कार हो गया जो एक -दूसरे का पूरक का काम कर रहे  है।  ये मोदी का तूफ़ान ही था जो दोनों एक साथ एक छत के नीचे लाकर खड़े कर गए या भविष्य में होने वाले परिवर्तन का आभाष मानिये जो इन दोनों को इस कदर भयवित कर गए कि सबको न चाह कर एकत्र होना पड़ रहा है। जहाँ तक मौका परस्ती के इस गठजोड़ की आयु निर्धारण करना बहुत ही कठिन है क्यूंकि लालू को लेकर सुविचार हैं यह है की वह अभी उपयुक्त समय को तलाश रहे है ताकि एक साथ कई दुश्मनो से सामना कर सके उसमें जेदयू अग्रिम पंक्ति में अंकित है जिसका आभाष सबको यथाशीघ्र  होनेवाला है। फिलहाल इतने खुद ही दुर्बल है कि अपनी सामर्थय के बढ़ोतरी में लगे हुए है और खोये हुए साख को पाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे है।

 नितीश बाबू ने जो अपने ड्राइविंग लाइसेंश पर जतिन राम माझी को फोटो चिपका दिए है यह शायद उनकी राजनीती  जीवन के  दूसरे सबसे बड़ी भूल साबित होने वाली है क्यूंकि कम से कम ऐसे योग्य आदमी के हवाले बिहार के लोगो को करते जो अपनी जिम्मेवारी को जवाबदेही के साथ निर्वाह करते न की अनाप -सनाप बयानंबाजी करकर बिहार के जनता और बिहार को शर्मसार करने में लिप्त पाये जाते।  हद ही कर दिया जब अपने शुविचार से सबको अवगत कराया जो कि  कालाबजारियों के प्रति समर्पित था हालाँकि यह सहानभूति का मखमूल जवाब वँहा के आवाम को ही देने होगे क्यूंकि प्रान्त के मुख्या का इस तरह का विचार लोगो को हतोतसाहित करने के आलावा और कुछ नहीं हो सकता जिसका परिणाम काफी भयानक सिद्द होनेवाला है जो व्यवस्था के प्रति आस्था को झकझोरने का काम करेगा।

बरहाल बिहार में जितना राजनितिक उठल पुथल इनदिनों देखने को मिल रहे है कदाचित अतीत में कभी नहीं देखा गया होगा क्यूंकि बिहार की राजनीती का शायद आने वाला विधानसभा चुनाव टर्निंग पॉइंट साबित होने वाला हैं जो कई यथावत बरसों से आ रहे शियाशी परम्परा को अस्तित्व विहीन करने वाला है, जो न कि बिहार के भविष्य के राजनीती की बुनियाद को स्थापित करेगी ब्लीक कई ऐसे राजनीती घराने जो दशको से बिहार के राजनीती में अहम किरदार निभा रहे थे  उनके राजनीती विरासत का आगे के स्वरूप चिन्हित करेगी और यह तय करेगी कि कल बिहार विकास के कसौटी के लिए आतुर है या फिर से वही जाति और महजब के बीच  में उलझ कर विकास के पथ से बिमुख होगी। आखिकार कई अनसुलझे सवालों का जवाब देश के लोगो को बिहार के विधान सभा चुनाव के उपरांत मिलना शुनिश्चित है।


सोमवार, 11 अगस्त 2014

कानून नहीं व्यवस्था को दुरुस्त करो ................ !!!

तत्कालीन परिस्थिति में समाज में कोई भी त्रासदी होती है तो इसका जिम्मेवार लचर कानून को ठहराया जाता है जबकि व्यवस्था को कभी भी दुरुस्त करने को लेकर बहुत ज्यादा उत्साह न ही संसद के पतल पर और न ही इन्साफ के मंदिर में देखा जाता है। इनदिनों समाज में कई तो ऐसे है जिन्हे इन लचर कानून से जरा भी डर नहीं लगता जबकि कई ऐसे भी है जो इस लचर कानून के भेंट चढ़ जाते है। 

देश में जब भी कोई बहुत बड़ी अनहोनी अपनी आखरी अंजाम तक नहीं पहुँच जाती है और इसका दुष्प्रभाव के कारन लोगों का आक्रोश सड़को पर और उनकी आवाज़ संसद के चार दीवारों से जब तक नहीं टकराती है तब तक सरकार और उनके सिपाह -सलाहकारों के कानों में जूं  तक नहीं रेंगते है। लोगों का आक्रोश को पहले तो कुचलने का भ्रशक प्रयास करते दिखे जाते फिर भी लोगों का आक्रोश जब जनांदोलन का रूप अख्तियार करने लगता है ऐसे परिस्थिति में सरकार अपने सामने कोई अन्य विकल्प न पाकर आवाम के आगे पास्ट होकर या तो शख्त कानून बनाने का अस्वासन देते है या  कानून को संशोधित करके सदन में पारित करवाने का। न जाने सरकार ने कितने बार कई कानून में संशोधन करके काफी शख्त बनाने का प्रयन्त की हो पर गुनहगारों के अंदर खौफ पैदा करने में असफलता ही हाथ लगे इसीका परिणाम है कि समाज में पनप रहे वृकृतियों को रोकने में ना कामयाब ही रहे ...!!!
कामयाबी तो कदाचित नहीं कहा जा सकता, जिस कदर हाल में महिलाओं के विरुद्ध अपराध में बृद्धि हुई है हालाँकि बलात्कार और यौनउत्पीरण जैसे घिनोने करतूत रोकने के लिए बहुत ही शख्त कानून बनाये गए पर नतीजा बलात्कार जैसे घटनाये  में गिरावट होने के वजाय बढ़ोतरी ही देखे जा रहे है। शायद ही कोई ऐसा दिन हो जिस दिन बलात्कार और महिला यौनउत्पीरण के घटनाएँ सुनने को न मिले, अर्थात इस तरह के वारदात यथावत जारी है फिर शख्त कानून बनाने से क्या फायदा? 

भ्रष्टाचार रोधक कानून हो अथवा घरेलू हिंशा जैसे संवेदनशील मसला कानून इतना शख्त कि शायद ही दोषी बरी होने का रास्ता ढूँढ पाये लेकिन इस तरह के कानून जँहा दोषियों को अन्ततः निर्दोष साबित होने से नहीं रोक पाते वही बेकसूर लोगों को हवालात के हवा खिलाने से नहीं चूकतें। आज एक तरफ अधिकाधिक  महिलाये  घरेलु हिंशा और यौनउत्पीरण का शिकार हो रही है वही ऐसे भी लोग का तादाद कम नहीं है जो बिना किसी अपराध के अथवा साज़िश के तहत इस कानून के शिकार हो रहे। 

दरअसल में इनदिनों देश को शख्त कानून का नहीं ब्लिक वव्यस्था में सुधार की जरुरत है जिसके पुलिस और न्यायपालिका को दुरुस्त किया जाना चाहिए।  न्यायपालिका के नीचले पायदान पर भ्रष्टाचार इस कदर विद्द्मान है कि लोग उनसे दूर ही खुदको रहना मुनासिब समझते है। इन्साफ के आस में न जाने बरसो एड़ी घिसवा कर जब इंसाफ का उम्मीद धीरे -धीरे करके टूटने लगती है पीड़ित अब शायद इंसाफ का गुहार भुलाकर आँशुओँ के फुहार से इतने नरम हो जाते है कि सांत्वना के लिए तो बेशक इंसाफ को स्वीकारा जा सकता पर वास्तविक में इनके अहमियत कुछ खाश रह नहीं जाते ऐसे में सरकार और सर्वोच्य न्यायपालिका प्रतिबद्ध होकर एक किसी भी मामला के लिए एक सिमित अवधि तय करे जिसके दरमियान बिना किसी विलम्ब के पीड़ित को इन्साफ मिल सके। 

चाहे कानून कितना भी शख्त क्यूँ न हो पर प्रशाशन के लचीले रवैया के कारण उन्हें सफलतापूर्वक लागु करना हरगिज़ मुमकिन नहीं है अर्थात प्रशाशनीय ढाँचा को सुधार के बिना किसी भी कानून को लागु करने के बारे में सोचना कटई उचित नहीं होगा। अगर कानून और व्यवस्था दोनों में एक साथ सुधार नहीं किया जाता तो कदापि सरकार के रुख को कभी भी सकारत्मक और अपेक्षाकृत नहीं समझा जा सकता बेशक एक से एक शख्त कानून पेश करते रहे। व्यवस्था और कानून एक दूसरे का पूरक है जो समाज में अनुशाशन बनाये रखते है। शख्त कानून होने के वाबजूद, व्यवस्था को अगर लकवा मार दिया हो तो कानून को दिशा और गति कौन देगा ?, अर्थात कानून कैसा भी हो पालन करवाने के लिए मजबूत व्यवस्था की दरकार है जो ईमानदारी और जवाबदेही के साथ अपने जिम्मेवारी का निर्वाह कर सके।

आजादी के बाद लोगों के जहन में व्यवस्था को लेकर कई बार उबाल आया और कुछ लोगों ने इनका भरपूर फायदा उठाया नतीजन इसके बदौलत सत्ता पर तो आसीन हो गए पर जब बारी आई इस व्यवस्था को दुरुस्त करने का तो ताल मटोल करके कानी काट गए आख़िरकार देश के आवाम अभी भी व्यवस्था को लेकर असंतुष्ट ही है। हालाँकि पिछले कुछ बरसों में जनता व्यवस्था को लेकर सजग है और सरकार को बीच -बीच में आगाह कर रही है की दुरुस्त करो वर्ना अंजाम अवांछित होगा इससे तो जरूर आभाष होता है कि व्यवस्था को लेकर सरकार अपनी उपेक्षाकृत इच्छाशक्ति को तिलांजलि देकर अतिशीघ्र कारगर कदम उठाएगी। क्यूंकि पुलिस रेफ़ोर्मेशन और भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था जब तक नहीं होगा तब तक देश के आवाम असली लोकतान्त्रिक सुख से वंचित ही रहेंगे क्यूंकि पुलिस का व्यवहार और कार्यशैली दोनों में वदलाब की जरुरत है। सबसे अहम पुलिस को सत्ता के पुजारी के गिरफ्त से मुक्त करना और जवाबदेही के साथ ऊर्जा और स्फूर्ति की जरुरत है जबकि भ्रष्ट और कर्तव्यविमुख अधिकारीयों के लिए शख्त कानून भी अत्यंत आवश्यक है ताकि ऐसे अधिकारीयों के ऊपर नकेल कस सके।

न्यापालिका को चाहिए कि खुद ऐसे मामलों का संज्ञान ले जो समाज के संरचना को धवष्ट करने पर आमादा है।  देश में बहुत ऐसे कानून है जिसके अंदर अनगिनित खामियाँ है जिन्हे चिन्हित करके संशोधन करने का आवश्यकता है।  यदि कानून -व्यवस्था को दुरुस्त किये कोई सरकार हमें सुपर पावर बनाने का सपना दिखाते है तो मानों रात में सूरज दिखाने का बात कहना जो कभी भी सच से रूबरू नहीं होगी इसीलिए सरकार को सबसे पहले चाहिए कि व्यवस्था को दुरुस्त करे ………………!!!!

रविवार, 13 जुलाई 2014

दिल्ली में बिजली गुल  !!

इन दिनों दिल्ली जिस कदर बिजली की किल्लत से जूझ रही है शायद अतीत में दिल्ली के लोगों को इतने बुरे हलात से शायद ही रूबरू हुए होंगे। इसकेलिए केजरीवाल तो मुख्य दोषी है जबकि बची -खुची कसर देश के तत्कालीन सरकार पूरी कर दिए। दरअसल में दिल्ली का इनदिनों सुध लेनेवाला  कोई नहीं है केजरीवाल का केजरी नाच का स्वाहा हो चूका है और उनके द्वारा किये गए करवाई का ही खीश कहिये जो इनदिनों बिजली कंपनी दिल्लीवासीयों पर निकाल रहे है।  अतीत में एक घंटे की कटौती के जगह इनदिनों ६ से ८ घंटे बेझिझक कटौती कर रही है।

वास्तविक में दिल्ली के उपराज्यपाल हो अथवा केंद्रीय बिजली मंत्री के पास इतनी फुरसत कँहा कि दिल्ली वालों का खबर लें, जब जनप्रतिनिधि ही जनता के प्रति उदासीनता दिखा रहे हो तो ऐसे में बिजली कंपनी के सर्वोचय पदो पर विराजमान महानुभाव व सरकारी दफ्तर का शोभा बढ़ा रहे बाबुओं उनको किस बात का फिक्र होगा। अन्तः जनता फिरसे खुदको कोस रही है इसका परिणाम कितना गंभीर होता है यह सचमुच कांग्रेस पार्टी भलीभांति जान चुकी है और इनदिनों सत्ता पर आसीन पार्टी को भी जान लेनी चाहिए अन्यथा जनता प्रायश्चित करने के लिए भी नहीं छोड़ती जैसा कि हालमें  केजरीवाल का किया है।

बरहाल मोदी और उनकी सरकार कितना भी पीठ क्यूँ न थपथपा ले परन्तु हक़ीक़त लोगों के समझ से परे है।  जबकि बिजली मंत्री बड़बोलेपण ही कहा जायेगा, जो देश के लोगों को बिजली की समस्या से निजात दिलाने की बात कहते अथवा अस्वासन देते फिरते है यद्दीप दिल्ली जैसी छोटी राज्य में बिजली की समस्या को  दुरुस्त करने के लिए अभी तक सामने भी नहीं आये और न ही उनके तरफ से कोई कारगर कदम उठाये गए मसलन दिल्ली के अधिकाधिक लोग असंतुष्ट और आशाविहीन है और उनके संजीदा को लेकर असमंजस है। अन्तोगत्वा इसका परिणाम सकारात्मक हरगिज़ नहीं होगा और अच्छे दिन की बात करने के वजाय प्रतिबद्धता के साथ प्रत्यनशील होना चाहिए ताकि दिल्ली की बिजली की समस्या का हल निकाल कर दिल्लीवासियों को बिजली की किल्लत से राहत मिलें।

शनिवार, 12 जुलाई 2014


 बावन, कुकुर, हाथी अपने ज़ात केर खाती!!

वाकये ई कहावत यथार्थ अछि, आई जे ब्राह्मण के हाल अछि ओकरा लेल ब्राह्मण स्वंय जिम्मेवार अछि।  कारन जे आइयो ब्राह्मण प्रबुद्धता और विलक्षणता  म  इस्वर के कृपा से जन्मजात अव्वल प्राप्त होयत अछि लेकिन सदैव कनि व तनिक लाभ के लेल ओकर दुरपयोग करैत म अगुआ नतीजा आई हास्य पर अछि।  देश में जतेक जाति आओर वर्ग छैक ओकर समुदाय में कोनो -कोनो संगठन धुरी क कार्य कय रहल अछि मुद्दा जखन ब्राह्मण समाज के बात करब त एहि प्रकार के कोनो संगठन चिन्हित कयल जा सकैत अछि पूरा ब्राह्मण समाज क बाँधी में सक्षम हुआ।  एकर सिर्फ एक ही कारन अछि जे ब्राह्मण अपन जाति के उठावय कम पर गिरयावे ज्यादा अग्रसर अछि।  आब समय आवि चुकल ह आओर सब गोटे एक जुट भ जाऊ अन्यथा विलुप्त हो में कोनो कसर नहीं रहत। पिछुलगुआ बनैत स बढियां अछि जे अपन आत्मसम्मानक लेल अपन जाति संग जुडी कियाकि जनसंख्याके आधार पर त  मुट्ठी भर छी , जेना आहिस्ता आहिस्ता सरकार म अथवा सरकार के सुधी स बेदखल भय रहल छी ओहिना  हर तरहेँ स बेदखल भ जायब आओर आई आरक्षण के माध्यम स त काइल  सरक्षण के माध्यम स आहाँकेर आत्मसम्मान और अस्तित्व क चुनौती दैत। अपन प्रतिकिर्या जरूर साक्षात कराएब।

कौनो समाजकेर  तरक्की म अत्यंत योगदान होयत अछि जे सब कियोक मिलेकेर अपन समाज म पिछड़ल लोग केर उत्थान में समाज के प्रबुद्ध वर्ग अहम योगदान दय क लेल सम्प्रीत होइ मुद्दा ब्राह्मण आओर ओहिमे मैथिल ब्राह्मण होइ त कानी काटे में माहिर अछि एही कारन स ब्राह्मण समाज दिन पर दिन पीछेड़ रहेईल अछि हालाँकि दोसर जाति के ऊपर ई परिवेश भिन्न अछि बहुतो जाति आरक्षण के माध्यम स सरकारी -नौकरी पेशा म खूब तेजी स पहुँच रहल अछि।   बनिया, गुजराती आओर पंजाबी समाज के उन्नतिक मूल मन्त्र किछु अछि त अछि ओहि समाज केर लोग में एकता आओर अखंडता ईयाह ओहि समाज क कुशलता केर सर्वोपरि मापदंड मानल जायत अछि। यदि मैथिल ब्राह्मण सब कियो मिलके अपन समाज केर अग्रिम समाज के श्रेणी म ल जायके इच्छुक छि तहन मिलजुल केर आगू आउ समाज केर प्रति प्रतिबद्धता दर्शाबैके चेस्ता करू।  जय मैथिलि ब्राह्मण समाज।



शुक्रवार, 20 जून 2014

पुनः मूषक भवः (केजरीवाल चरित्रमानस्  )


बेशक राजनीती के पृष्ठभूमि पर एक नए अध्याय का शुरुआत माना जा रहा था, सभी ने ये मान लिया था कि अब पारंपरिक राजनीती से हत कर आम आदमी के उम्मींद को पुरे करने के लिए ' मैं हूँ आम आदमी' का नारा लेकर हमारे बीच जो आये है वह प्रदूषित राजनितिक परिवेश को अन्तकरण  से शुद्धि करेंगे इसलिए लोगों ने उनके तमाम बातों पर यंकी करके अपने मत के जरिये अभय वरदान दिए ताकि किये गए वादों को पुरे करे।  हालाँकि  लोगों को तो यह पता था कि राजनीती दूषित हो गयी जिसे शुद्धिकरण की जरुरत है पर यह भूल गए कि राजनीती एक ऐसा परिवेश है जिसमें कोई भी जाकर लोगों के उम्मीद को पूरा करने के वजाय  खुदको  ज्यादा तहजीब देते है और अतीत में किये गए सब वादों को भूलकर अपने भविष्य को सवारने के लिए हर एक  हथकण्डे अपनाने लगते है जो लोगों के सोंच से परे होते है। जो अतीत में सुचिता और नैतिकता का पाठ पढ़ाते है जब राजनीती के मौहाल में पँहुचते है तो सबको बिसाड़ कर सत्ता के लार में फिसलकर संवेदना और विनर्मता को पीछे छोड़ देते है अन्तः उनके मस्तिक में सिर्फ एक ही चीज रह जाती है कि किसी तरह कैसे सत्ता उनके अधीन हो ? उदाहरणस्वरूप यदि किसी चूहा को शेर बना दिया जाय तो वह अपने अतीत को भुलाकर सिर्फ शिकार के बारे में सोचना शुरू कर देते है अचानक उनके सामने वह व्यक्ति भी आ जाय जो उन्हें चूहा से शेर बनाया था उन्हे भी नहीं छोड़ेंगा , जैसा कि निम्नलिखित कहानी में उल्लेख  किया गया है :-


एक जंगल में एक चूहा रहता था।  एक रोज उनका सामना एक बिल्ली से हुआ, जैसे ही बिल्ली उनके ऊपर प्रहार करने के लिए दौड़े फौरन चूहा वहाँ से भागे और भाग कर तपस्या में लीन मुन्नीवर के समीप पँहुच कर  उनसे विनती करने लगे। मुन्नीवर को उनके ऊपर तरस आ गया मुन्नी ने पूछा" क्या है तुम्हारे दुःख का कारण?"

चूहा ने रोते हुए कहा" मुन्नीवर, मै अपनी जान  बिल्ली से किसी तरह बचाकर आपके पास आया हूँ अर्थात आपसे विनती है कि हमें बिल्ली बना दे ताकि मैं बिल्ली के भय से मुक्त होकर जंगल में रह सँकु।

मुन्नीवर उनके विलाप से द्रवित होकर कहा " यथास्तुः।." 

चूहा मुन्निवर से वरदान प्राप्त करके जंगल को लोट आये और रहने लगे। कुछ समय के पश्चात उनका सामना शेर से हुआ पहले तो उनको  लगा कि वह डटकर उनका मुकावला कर सकते है पर शेर के हमला से लहूलुहान हो कर फिरसे मुन्निवर के आश्रम में जा पंहुचे।  मुन्निवर को अपनी आपबीती सुनाई और उनके चरणो में पड़ कर गिरगिराने लगा।  मुन्निवर का दिल उनके करुणामय विनती से सुनकर पसीज गया मुन्निवर ने उनको फिरसे यथास्तु के साथ उनको शेर बना दिए। 

कई बर्षो के उपरांत मुन्निवर उसी जंगल से गुजर रहे थे जँहा चूहा से बने शेर रहा करता था। अचानक मुन्नी के नज़र आगे खड़े शेर पर पड़े। मुन्निवर निर्भीक होकर चलते रहे क्यूंकि वह जानते थे कि वही चूहा है जिसे उन्होंने ही शेर बनाया था। परन्तु शेर ने दहाड़ कर मुन्निवर के ऊपर आक्रमण किया, झट से मुन्निवर पीछे हटे और कहा " तुम शायद भूल गए हो कि तुम्हे हमने ही शेर बनाया है। "

"सचमुच आपने ही हमें शेर बनाया है पर अब मैं शेर हूँ और भूखा हूँ इसलिए आज मैं आपका शिकार करूँगा" चूहा कहते हुए मुन्नीवर के ऊपर से फिर से प्रहार करने आगे बढे। 

मुन्नीवर ने कहा" पुनः मूषक भवः" और वँहा से चल दिए।  कुछ ही पलों में शेर फिर से चूहा बन गए।


केजरीवाल का राजनितिक चरित्र और चूहा के चरित्र  के बीच में काफी समानतायें है। राजनितिक परिविश में नैतिकता के मापने के लिए जो भी पैमाना (मापदंड) होते है अगर उसके आधार पर भी यदि केजरीवाल के राजनीती कार्य शैली को मापे तो शायद इतने खामियाँ से रूबरू होंगे जिसे सहज रूप से नज़रंदाज़ करना कतई आसान नहीं होगा। केजरीवाल ने वाकये राजनीती जमीं को तलाशने के लिए काफी जद्दोजहद किये और इसी जद्दोजहद के दौरान उन्होंने RTI कार्यकर्ता के रूप में खुदको साबित किया परन्तु उनके जीवन में राजनीति घुमाव का श्रीगणेश अगर हुआ तो जनलोकपाल आंदोलन के ही जरिये हुआ। हालाँकि केजरीवाल जब नौकरी पेशा छोड़कर समाज सेवा के पथ पर आगे बढे तो सिर्फ एक ही मंसूबा जहन  में लेकर कि आगे चलकर इसी के माध्यम से राजनीती पतल पर अपना भविष्य को चिन्हित करना है। 

जनलोकपाल आंदोलन में अन्ना के मुहीम के संग पहले खुद को शामिल करना, फिर अन्ना के सिपाह-सलाहकार के सूचि के पहले पंक्ति में अपनेको उपस्थित करना, अन्ना के अनशन के दौरान मीडिया हो अथवा सरकार के नुमायन्दे उनके साथ वार्तालाप करना और अपने एजेंडा को रखना और धीरे -धीरे करके जनलोकपाल आंदोलन को एक अहम धुर्व अन्ना के सामने खुदको दूसरा धुर्व के रूप में स्थापित करना, बहुत सी ऐसी बातें है जो केजरीवाल का पूर्वनियोजित और पूर्वनिर्धारित राजनितिक मनसूबे के तरफ ईशारा करते है। 

लोकतंत्र में यदि कोई मुन्निवर होता है तो वह जनता जो लोकतंत्र में किसी भी नेता का राजनितिक भविष्य को तय करती है और अपना मत जिन भी नेता या दल के पक्ष में प्रदान करती है तो नेताओ का सभी आकांक्षाएं साकार होते है और वास्तविक में वह राजनीती के शेर व शंशाह कहलाते है उसी भांति हिन्दू धर्म में ऋषि ( मुन्नी ) भगवान के समकक्ष सम्मान दिए जाते है और उनके तप-जप के प्रभाव के अनेकोअनेक उदाहरण बुर्जगो सुने होंगे अथवा इतिहास में पढ़े होंगे कि मुन्नीयो का अत्यंत योगदान का नतीजा है कि हमें ज्ञान और बिज्ञान विरासत में मिला है और उनके ही कृपा से आज भी हमारे समाज में कई परम्परा है जो हमें अपने मर्यादा में रहने का सींख देते है और अनुशाशन में रहने के लिए प्रेरित करते है।

 दरअसल में केजरीवाल को भलीभांति ज्ञात था कि लोकतंत्र में अगर जनता का दिल जीत लेते है तो वाकये में सियाशी शेर बनने से कोई नहीं रोक सकता है, इसीलिए जनलोकपाल मुहीम को एक जनांदोलन का रंग दिए उसके उपरांत बढ़-चढ़ कर लोगों को जोड़ते गए इस आंदोलन से। इसीका परिणाम है कि कांग्रेस सरकार प्रारम्भ में इस आंदोलन को भाव देने के पक्ष में नहीं थी पर दिन -ब -दिन लोगों के तादाद में भारी बढ़ोतरी के वजह से सरकार सोचने के लिए बाध्य हो गयी कि अति शीघ्र आंदोलन को रोक नहीं गया तो पूरा व्यवस्था इस कदर चरमरा जायेगा जो बाद में नियंत्र से बाहर हो जायेगा। जिस केजरीवाल को सरकार कभी सुनने को तैयार नहीं थी अचानक उनको और उनके टीम के सदस्य को जनलोकपाल स्टैंडिंग कमिटी में शामिल कर लिया जो केजरीवाल के लिए जनता का पहला आशीर्वाद माना जा सकता था, जो इन्हे चूहा से कैट (बिल्ली) बना दिया पर सरकार में बैठे लोग खुदको निर्वाचित जनता के प्रतिनिधि समझते थे और केजरीवाल टीम को बार -बार अहसास दिलाते थे कि यदि नई कानून लाना अथवा लागु करना है तो इसके लिए पहले चुनाव लड़ कर और जीत कर आना होगा। इस लिए टिपण्णी करते नहीं थकते कि  केजरीवाल को यह हक़ जनता ने नहीं दिए है कि नए कानून स्वरुप तैयार करे। कांग्रेस सरकार में बैठे लोगों का बड़बोलापन था व अंहकार अपितु केजरीवाल ने जनता के समक्ष कांग्रेस सरकार इस कथन को बड़े जोर -सोर परोशा जिसे जनता सहजता से बर्दाश्त नहीं कर पाई। केजरीवाल ने बिना विलम्ब किये उसी मंच से एलान कर दिए कि अब वह राजनितिक पार्टी बनायेगे और चुनाव लड़ेंगे और उसके बाद जनलोकपाल कानून लाएंगे। 

जनलोकपाल आंदोलन बिना मुकाम के ही अधर में रह गए। अन्ना के टीम दो खेमे में बँट गए थे, एक जो राजनीती पार्टी बनाने के पक्ष में थे जबकि दूसरा खेमा जो इनके पक्ष में हरगिज नहीं थे। केजरीवाल ने दिल्ली विधान सभा चुनाव की तैयारियाँ आरम्भ कर दिया इसीलिए बीच -बीच में कई छोटे -मोटे जनांदोलन करते रहे और मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार को मान कर लोगो से जनसम्पर्क कायम करते रहे। दिल्ली एक तबके में केजरीवाल को लेकर सुगबुहात शुरू हो गयी। वैसे भी पुरे देश में कांग्रेस के विरुद्ध मौहाल बन चूका था ज्यादातर लोग कांग्रेस के तानाशाह रवैया और भ्रष्टाचार युक्त किर्याकलाप से त्रस्त थे। दिल्ली चुनाव का घोषणा के बाद केजरीवाल ने आआपा का प्रचार -प्रशार खूब जोर से किया और लोगों से आग्रह किया कि यदि बिजली-पानी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याऍ से निजात होना है तो आआपा को वोट दें।

चुनाव परिणाम के उपरांत यह साबित हो गया कि केजरीवाल राजनीतिक शेर (बिग कैट ) बन चुके थे। इस तरह अप्रयाशित जीत से जँहा कांग्रेस पार्टी अर्श से फर्श पर पँहुच चुकी थी वंही इनके विपरीत आआपा देश के राजनीति के पृष्ठ भूमि पर सफलता के नए ईमारत बना चुके थे। केजरीवाल के लोकप्रियता के बदौलत आआपा को मिली अचानक कामयाबी जँहा कांग्रेस को दिल्ली की राजनीती से बेदखल कर गयी थी वंही भाजपा के तीन राज्य में बड़ी जीत के वाबजूद दिल्ली में पूर्ण बहुमत के आभाव में हक्के -बक्के कर गए थे।

जो केजरीवाल कभी सौगंध खाकर लोगो को यंकी दिलाये थे कि वह दिल्ली के मुख्यमंत्री हरगिज़ नहीं बनेगे अब शायद उस सौगंध को भूल चुके थे। कांग्रेस भी इस करारी हार को पचा नहीं पा रही थी और उन्होंने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए आआपा को बिना शर्त के समर्थन देने का घोषणा कर दिए। आआपा जो लोगो को यह अहसास दिलाते नहीं थकते थे कि सत्ता के भूखे नहीं है अचानक सत्ता करीब देखकर उनके मुंह से भी लार टपकने लगे।  केजरीवाल ने सरकार बनाने के लिए तैयार हो गए और कांग्रेस के समर्थन के बल पर विधानसभा में विस्वास मत भी हाशिल कर लिए। वास्तविक में केजरीवाल को लेकर लोगों का दुविधा का  शुरुआत मुख्य मंत्री बनने के तुरंत बाद हो गये क्यूंकि एक खेमा ऐसा भी थे जो कदापि नहीं चाहते थे आआपा कांग्रेस से समर्थन के बुनियाद पर सरकार बनाये। अब केजरीवाल का सोंच और प्रकृति में बदलाव होना शुरू होने लगे थे इसीका नतीजा था कि उनके ही दल में से उनके खिलाफ बग़ावत का शुर सुने जा रहे थे और लाख कौशिश के वाबजूद केजरीवाल अपने असंतोष  विधायक  को शांत नहीं कर पाये इसीका परिणाम था कि उनके पार्टी में राजीनीति के सूझ-बुझ रखनेवाले विनोद कुमार बिन्नी बागी बन चुके थे।  केजरीवाल में ज्यादातर ऐसे विधायक थे जिनके पास अनुभव के नाम पर कुछ नहीं था नतीजन सरकार चलाने में जो अनेको प्रकार के अर्चन आते है उनका सामना करने में केजरीवाल हो व उनके टीम के अन्य नेता हो वे असफल रहे।  मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्हें धरने को ही अहमियत देते नज़रआये क्यूंकि उनको लगा कि अब भी वे धरने के माध्यम से लोगों का सहानभूति हाशिल कर पाएंगे लेकिन ये भूल चुके थे कि अब वह आम आदमी का टोपी नहीं पहनने वाले  आम आदमी नहीं रहे ब्लिक हालत बदल चूका है। हालाँकि वह कभी भी आम आदमी थे ही नहीं  फिर भी टोपी के जरिये मैं आम आदमी हूँ प्रचार - प्रशार कर रहे थे पर इसके लिए भी वे अब मान्य नहीं रहे क्यूंकि अब वह संवैधानिक पद पर थे जबकि  हमारे संविधान किसी भी प्रान्त के मुख्यमंत्री को इस तरह का धरने पर बैठने की अनुमति नहीं देते है। अन्तः देश का मीडिया हो अथवा प्रदेश के लोग इसके लिए केजरीवाल को ही कौसतें रहे और उनके सूझ-बुझ पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे ।


मुख्यमंत्री तो बन गए थे पर राजनीतिक सूझ -बुझ के आभाव में बड़े- बड़े फैसला नहीं ले पा रहे थे जबकि उनका असल मुकाम तो आम चुनाव था जिसमें बड़ी जीत को जोह रहे थे इस लिए जनलोकपाल कानून को असंवैधानिक तरीके से दिल्ली के सदन में पास करने के फिराक में थे पर बुद्धजीवियों और उपराज्यपाल ने जब इसका विरोध किया तो मसककर रह गए वही सिर पर बजट सत्र था जिसमें बिजली और पानी के ऊपर दिए गए सब्सिडी के लिए फण्ड का एलोकेशन करना था। केजरीवाल अब यह जान चुके थे इस तरह के विषम परिस्थिति में सरकार चलाना सरल नहीं है इसलिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। वास्तविक में उनके इस तरह से अन्यायस इस्तीफा से  लोगों में हताश का वातावरण बना दिया था जबकि आआपा अपनी मज़बूरी दिखाकर लोगों से शाबाशी बटोरने की निरथक प्रयास कर रही थी। लोगों को अब इनके ऊपर से प्रायः विस्वास उठता ही जा रहा था। 

आगमी आम चुनाव  के लिए प्रचार  में चोटी का जोड़ लगाने में केजरीवाल ने कोई कसर न छोड़ा,  इसके चलते कभी गुजरात की गालिया तो कभी मुंबई , तो कभी उत्तर प्रदेश के हाई प्रोफाइल निर्वाचन क्षेत्र  अमेठी में नुक्कड़ सभाए करने लगे। मोदी एक रणनीति के तहत वाराणस से चुनाव लड़ाने का फैसला लिया गया। जैसे मानों केजरीवाल इसी फैसला का इंतज़ार में था क्यूंकि उनके जहन में कंहीनकंही ग़लतफ़हमी ने जड़ जमा चुकी थी कि शीला दिक्षित को जिस कदर दिल्ली के विधान सभा में मात दिए, उसी तरह से मोदी के ऊपर भी भारी पड़ेंगे। अब उन्होने अपना अहम मुद्दा भ्रष्टाचार को तिलांजलि देकर नये मुद्दा को लेकर वाराणस में  परिवार सहित डेरा डाल चुके थे। प्रचार और प्रशार से यदि चुनावी जंग को फ़तेह किया जाता तो केजरीवाल का विजय सुनिश्चित आलिंगन करता पर काश ऐसा हो नहीं  सका इसका तातपर्य था कि लोगों का दिलो दिमाग में यथावत अब वह स्थान केजरीवाल के लिए नहीं रहा था अब केजरीवाल के नाम का परत उनके जहन से उतर चूका था, लोगों उनके ऊपर विस्वास करने में जिझकने लगे थे, लोगों के उनके कावलियत और विस्वनीयता के ऊपर संदेह होने लगेथे, बार -बार अपने बयान से पलटने और मौका परस्ती के लिए लोग अब उनको कोसने लगे थे। अन्तः इस चुनाव में लोगों ने उनके ऊपर से अपना आशीर्वाद वापस ले लिए थे नतीजन केजरीवाल अर्श से फर्श पर पंहुच गया था तकरीबन वही हालत उनके पार्टी का भी हुआ। यदि पंजाब के चार सीट को छोड़ दें तो सभी सीटों पर करारी हार ही मिली थी, अधिकतर सीटों पर जमानत जब्त हो गयी आआपा के बड़े -बड़े सूरमाओं का हवा निकल चुकी थी।


 केजरीवाल जो खुद को प्रधानमंत्री के प्रमुख दावेदार समझ रहे थे अब उनके महत्वाकांक्षी इच्छाएँ का अंतिम संस्कार हो चूका था। जिन्हे  कुछ महीने पहले राजनीती के शेर जानने लगे थे अब वह ढेर हो चुके थे अर्थात पुनः मूषक भवः के भांति ही उनके भी बुलंदी गर्त में मिल चूका था। फिलहाल इनदिनों दिल्ली में फिरसे से खुद को स्थापित करने के लिए प्रयासरत है पर जनता के बीच उनके प्रति असंतोष साफ़ देखा जा सकता है, यही कारन है कि अब वह चुनाव शीघ्र कराने के पक्ष में नहीं है क्यूंकि दिल्ली प्रदेश के चुनाव में भी दिल्ली के लोगों का आक्रोश का ही सामना करना पड़ सकता है जो निराशाजनक परिणाम का ही रुझान देता है ऐसे में केजरीवाल टीम के ज्यादातर सदस्य चाहते है कि किसी तरह केजरीवाल दिल्ली में सरकार बनाये ताकि चुनाव से बचा जाय इसीलिए परदे के पीछे से कई शीर्ष नेता कांग्रेस के सम्पर्क में है जबकि अन्य विकल्प को भी तलाशने का काम जोरो पर है। आखिकार चुनाव के पश्चात ही दिल्ली प्रदेश में आआपा का करिश्मा अब भी बरकरार है या कुछ भी नहीं बचा है सभी तरह के अनसुलझे सवालों का जवाब खुद -ब - खुद  देश के सामने आ पाएंगे। फिलहाल केजरीवाल के द्वारा आनेवाले दिनों में कठोर परिश्रम करने की जरुरत है जबकि पार्टी के अन्तरकलह को सुलझाने से फुर्सत उन्हें मिले  तो फिर से लोगों के दिलों में अपना खोया हुआ जगह हाशिल करने का कशिश करेंगे जो न ही आसान है और न ही अतिशीघ्र मुमकिन है ……। 

शनिवार, 7 जून 2014


 

समाजवादी सरकार में समाज की ही अस्मत खतरे में!

उत्तर प्रदेश में महिलाये व आधी आवादी सुरक्षित नहीं है हालाँकि पुरे देश का कमोबेश यही हाल है पर हद तो तब हो जाता है जब प्रदेश के सबसे कदावर नेता को ये कहने से थोड़ा भी संकोच नहीं होता है " क्या बलात्कार का सजा  फांसी देना सही है?, अपने लड़के है लड़के से गलती हो जाता तो क्या उनको फांसी पर लटका दोंगे यदि केंद्र के सत्ता पर काबिज़ होंगे तो ऐसे कानून का संशोधन करेंगे।" जनाब आप तो प्रदेश के बुजुर्ग नेताओ में से एक है और आपका ही सपूत है जो प्रदेश के मुख्या है ऐसे में  इस तरह का बयान से प्रदेश के लोगो में हताश होना स्वाभिक है जबकि इस तरह के कथन सुनकर बहसी और दुराचारी लोगो के उत्साह में चार चाँद लगना लाज़मी है। फिर भी आप ने जो कह दिया सो कह दिया न आप को इसके लिए मलाल और न ही शर्म अन्यथा अभी तक आप सार्वजानिक रूप से  अपनी गलती का इजहार करके माफ़ी मागने का कृपा करते पर आपके शब्दावली में शायद माफीनामा का कोई शब्द नहीं। हालाँकि आपके निरथर्क बयान का ही असर है इसे माने अथवा न माने परन्तु उस बयान का परिणाम ही है जो एक तरफ प्रदेश के महिलाये को सूझ नहीं रहा है कि आखिर अपनी अस्मत को तार-तार होने से कैसे बचाये है? वहीँ दूसरी तरफ अस्मत लूटनेवाले को मानों खुली छूट मिल गया हो और इसीलिए तो रोजाना महिलाये अथवा किशोरी के अस्मत लुटे जाते है  पर आपके सपूत मानिये मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव के कानो में जू नहीं रेंगते है। समस्त विश्व आपके संवेदनहीनता पर अफसोश जता रहे है और अपने नागरिक को सावधान कर रहे है कि भारत जाने से बचे। बदायूँ  के घटना से कि प्रदेश के लोग आहत में है ब्लिक देश और देश से बाहर के लोग भी सन्न है कि आखिर ये क्या हो रहा है ? यह सिर्फ मानसिक विकृति का नतीजा है अथवा सरकार के आराजकता के कारण समाज में बढ़ रहे दबंगई का नतीजा है ? सचमुच में कारन जाने बिना ही इनका समाधान ढूढना अत्यंत आवश्यक है क्यूंकि इसका उनमूलन अगर जल्दी से नहीं किया जाता तो निश्चित ही इस तरह के वारदात हमारे समाज के संरचना को तहश -नहस कर देगा।  इसीलिए तो यूनाइट नेशन के अध्यक्ष को भी इसके लिए भर्त्सना करना पड़ा जबकि नेताजी के द्वारा दिए गए बयान पर कटाक्ष करने से नहीं चुके।  वाबजूद इस तरह के निंदा पुरे विश्व में हो रहे है पर प्रदेश के सरकार अपनी गिरबान में झाकने के बजाय मीडिया के ऊपर लाछन लगाने में व्यस्त है क्यूंकि सरकार को गलतफहमी हो चला है कि मीडिया चढ़- बढ़ा कर प्रदेश के घटना को दिखा रहे है जबकि अपनी प्रशाषण को दुरस्त का जहमत अभी तक नहीं उठाई।

वास्तविक में यदि मीडिया के नज़र नहीं पड़ी तो सरकार और प्रशाषन मामूली घटना बतलाकर यूँही नजरअंदाज कर देते है और यदि मीडिया के नज़र से नहीं बच सके तदुपरांत मीडिया इसके लिए जद्दोजहद करके पीड़िता  के लिए इंसाफ की सिफारिश करते है, वैसे में सरकार के तरफ से दो- पांच लाख का सहयता राशि का घोषणा करके चुप्पी साध लेती है।  यदि उत्तर प्रदेश के पुलिस के काम काज का लेख -जोखा करे तो शायद यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि देश के सभी प्रदेश के मुकावले फिसड्डी ही है क्यूंकि उनके काम काज में राजनीती दखलंदाज़ी इस कदर हावी है कि पुलिस कुछ जरुरत के फैसले भी अपने हुक्कुमरनो से पूछकर लेती है अपितु उनके सामत आनी सुनिश्चित है ऐसे में पुलिस के पास एक ही विकल्प है कि अपने आकाओं को सदेव खुश रखे। हालाँकि फिलहाल सरकार और उनके नेता मीडिया के ऊपर जोरदार हमला कर रहे है ताकि मीडिया प्रदेश में अपराधिक कारनामे को दिखाने से परहेज़ करे।

दरसअल  में जज और वकील का बलात्कार दिन दहाड़े किये जाते है जो आम आदमी को झकझोरने वाली ही खबर कही जा सकती है। यद्दीप कुछ लोग का मानना ये भी है कि इनदिनों उत्तर प्रदेश सिर्फ एक ही जाति के लिए उत्तम है जिसे सरकार के तरफ से कोई पावंदी नहीं है और वह अपनी दबंगई को निसंकोच बिना किसी भय का अपराधिक नए -नए कारनामे पेश कर रहे है जबकि प्रशाषन को भी हिदायत दी गयी है कि इनके दबंगई के खिलाफ कोई भी शिकायत मिलती है तो बिना पड़ताल किये खारिज कर दें ऐसे में पुलिस वाला तमाशबीन बनके सब कुछ देखने को बाध्य है।

फिलहाल केंद्र सरकार में गृह मंत्री उसी प्रदेश के व्यक्ति है और सरकार के सभी हरकतों से भलीभाँति वाक़िफ़ है। इसीलिए प्रदेश सरकार को चाहिए की कानून व्यवस्था को अतिशीघ्र दुरुस्त करे नहीं तो केंद्र सरकार उनके खिलाफ शख्ती  कर सकते है जो गृह मंत्री का पूर्णतः अधिकार क्षेत्र में आते है। वायदबे केंद्र सरकार चुप्पी   साध कर प्रदेश में हो रहे सभी प्रकार के जातियता और लचर कानून व्यवस्था के ऊपर नज़र गड़ाये हुए है और आनेवाले दिनों में कई प्रकार के कारगर कदम उठाये जा सकते है। जब तक देश के सभी नागरिक खुदको सुरक्षित नहीं महसूस करेंगे तबतक अच्छे दिन आने का परिकल्पना करना कदाचित उचित नहीं होगा।  अन्तः केंद्र सरकार बिना विलम्ब के प्रदेश सरकार के ऊपर अत्यधिक दबाब बनानी चाहिए ताकि प्रदेश के कानून व्यवस्था में सुधार हो और अपराधी के जहन में डर का गुंजाईश हो।

गुरुवार, 29 मई 2014





 चुनाव परिणाम का साइड इफ़ेक्ट जारी है …!!





मोदी ने ममता और जयललिता को संकेत दे दिया है कि सुधर जाओ वर्ना देश की राजनीती में शून्य से ज्यादा अहमियत नहीं मिलनेवाली है इसीलिए तो उनकी ख़ुशीका परवाह किये बिना बंगला देश के प्रधानमंत्री और श्रीलंका के राष्ट्रपति को सादर आमंत्रित किये और सम्भावना है कि वे खुद व उनके प्रतिनिधि सपथ समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करेंगे। बेचारी ममता और जयललिता अपने -अपने प्रान्त में जीत का परचम तो लहराया पर दिल्ली के गलियों में फिर भी कोई उन्हें भाव देने को तैयार नहीं। हालाँकि ममता को यह भलीभांति ज्ञात है कि दिल्ली में उनकी लोकप्रियता के नाम पर ५०० लोग भी इकट्ठा नहीं सकते और ऐसा ही हुआ था जब उन्होंने आम चुनाव से पहले अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की गुस्ताखी की थी। बरहाल दिल्ली में मोदीजी के ताजपोशी के तैयारी जोरो पर है।  ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


कांग्रेस के बड़े -बड़े पहलवान आम चुनाव के दंगल में चित्त हो गए है। एक तरफ सोनिया गांधी को कुछ सूझ नहीं रहा हालाँकि राहुल गांधी अपनी काबलियत का दिलाशा देकर अपनी माँ को सान्तवना देने का पुरजोर कोशिश में लगे है तदोपरांत माँ को उनके क्षमता पर यकीन नहीं हो रहा है और अन्य विकल्प को लेकर आत्मचिन्तन कर रही है। इन्ही गहमा -गहमी के बीच कई बकरे तैयार किये जा रहे है जो राहुल गांधी के दीर्घायु और पुनः खोये हुए ताकत को सृजन के खातिर बलि दिए जाना है।  फिलहाल कांग्रेस कोर कमिटी ने आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हारका का घड़ा राहुल गांधी के बदले सबके सिरे फोरने पर हामी भर दिए है।  ऐसे में बड़े- बड़े बड़बोले को चुप करने के लिए रणनीति बनायीं जा रही है जबकि राहुल गांधी के नए सिपाह - सलाहकार के भर्ती के लिए यथाशीघ्र बिज्ञापन दिए जायेंगे क्यूंकि दिग्गी राजा  इन दिनों कंही और व्यस्त है जबकि बाकि चुनाव में जमानत जब्त करवा कर काफी हतोत्साहहित है इसीलिए ज्यादातर ने तो इंडोनेशिया और शेष स्विट्ज़रलैंड जाकर गहन सोच -विचार करने का मन बना लिए  है।  ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

आम चुनाव के पश्चात यदि सबसे ज्यादा नुकसान किसी भी व्यक्ति को उठाना पड़ा है तो वह नितीश बाबू जो पिछले महीने तक प्रधानमंत्री बनने के हसींन सपने देखा करते थे पर जब आँखे खुली तो सच्चाई से रूबरू होना ही पड़ा नतीजन प्रधानमंत्री बनने का सपना सपना ही रह गया जबकि हकीकत में मुख्यमंत्री के भी कुर्सी खिसक गई। बेचारे नितीश बाबू कल तो उनके गाल फूल जाता था अगर कोई किसी और व्यक्ति के तारीफ उनके सामने करते पर आज जो अपने वे भी इन्हे ही कोसतें है पर क्या करे?, सब कुछ बदल चूका है हालात भी और बात भी। वक्त का मारा हुआ सुशाशन बाबू उनके ही दामन थामे जिनसे २० साल पहले नैतिकता और वैचारिक टकराव के चलते अलग होकर समता पार्टी का गठन किये थे। जॉर्ज फर्नाडीज के आत्मा भी नितीश के करतूत पर जरूर खिन्न होंगे क्यूंकि उस विपरीत परिस्थिति में अकेला वही थे जो नितीश बाबू के साथ थे पर जब उनको नहीं बक्शा तो औरो को उनसे उम्मींद करना ही मूर्खता होगा। हालाँकि मांझी के सहारे उन्होंने अपनी नैया पार लगाने को सोच रहे है मगर मांझी के लिए भी इतना आसान नहीं है क्यूंकि एक नाव में लालू और नितीश दो सौतन ही मानों सवार है जिनकी मज़बूरी है कि किसी भी हालत में इस किनारे से उस किनारे जाना है अन्यथा अभी तक कमाए हुए रुशुख का मटिया पालित होना सुनिश्चित है जिसे ये दोनों इतने आसानी हरगिज़ नहीं जाने दें सकते है। हालाँकि अपने रुशुख को बचाने के चलते दोनों एक ही नाव पर तो सवार हो गए है लेकिन अंदेशा का गुंजाईश है कि कही मझधार में ये दोनों फिर से उलझ गए तो नाव का डूबना तय मानों फिर मांझी तमाशबीन बनके देखतें रह जायेंगे और लाख प्रयन्त करने के वाबजूद भी बचा नहीं पाएंगे। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


 अब एक नज़र उत्तर प्रदेश पर जँहा भी राजनीती के खूब उथल -पुथल है। आज़म खान ने तो वेचारे बेजुबान होकर चुप्पी साध लिए है अब तो कई दिनसे कुछ कहने के हिमाकत नहीं किये है, उधर अबु आजमी तो इन दिनों सहमे-सहमे हुए है जबसे मिडिया ने उनके पुराने दोस्तों में से के एक का जिक्र छेड़ा है जो एक इंडियन मुजाहिद्दीन के आंतकी है नाम है फैजान, जिसको इस साल फरवरी में दुबई में गिरफ्तार किया गया था और इनदिनों यहांके खुफिआ एजेंसी के हिरासत में है। मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को कुछ खरी -खोटी सुनाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बरक़रार रखा यद्दीप जितने भी जिला और ब्लॉक स्तर के पदाधिकारी थे उनको नहीं बक्श पाये हालाँकि ३६ ऐसे सर्वमान्य लोगोंको भी लालबत्ती उतारने के लिए फरमान जारी कर गए, अब देखना है कि उनके फरमान को ज्यादा तज़्ज़्वो उनके ही गणमान्य नेताओं देतें है अथवा अन्दरन्दाज करके खारिज करते है। ख़ुशी की बात यह रही कि आम चुनाव में बेशक सपा को पांच सीट ही मिल पाये हो पर मुलायम सिंह यादव के परिवारका का उत्तर प्रदेश के राजनीती में दबदबा अभी भी कायम है नतीजन पांच सीट ही सही पर परिवार के कोई भी सदस्य हार की मुंह नहीं खायी। 

दरअसल में हाल के आम चुनाव में ने तो अनेकोअनेक दिग्गज और दल ने अपनी साख और धाख गवां चुके है पर बसपा का तो जो हाल हुए है शायद मायावती कभी सपने में भी नहीं सोची होगी। सुफरा साफ़ हो गया यानि खाता ही नहीं खोल पाये जबकि चुनाव परिणाम के पूर्व कयास ये लगाये जा रहे थे की यदि किसी भी गठबंधन को न बहुमत मिलने के आसार में यदि थर्ड फ्रंट सरकार बनाने का दावा पेश करता है तो प्रधानमंत्री के रेस में बहन मायावती भी सुमार है पर इस तरह का परिणाम होगा ये किसी ने भी सोचा नहीं। मायावती इनदिनों अपनी खीश कांग्रेस पर निकाल रही है जो किसी भी दशा में तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है। वास्तविक में धर्म निरपेक्ष के आध में सियाशी मेवा सब खाने के लिए लार टपका रहे थे पर जनता ने उनके मनसूबे पर पानी फेर दिए तो एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप लगाने पर आमादा हो गए। 
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 आआपा के संयोजक माननीय केजरीवाल हाल के आम चुनाव में पराजित होकर इस कदर सर्मसार हो गए है कि लोगों से आँख मिलाने से बेहतर जेल में ही रहना पसंद कर रहे है अन्यथा उनको ये पता होना चाहिए कि देश में कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है ऐसे में वे खुदको क्यों कानून से ऊपर समझ रहे है? इसके ऊपर बुद्धजीवियों का आत्मंमंथन जारी है और अतिशीघ्र केजरीवाल के मंसूबा जगजाहिर होंगे पर लोगों ने उनका सुनना बंद कर दिए इसीका नतीजा है जिन केजरीवाल के लिए ज्यादातर दिल्ली वासी सड़क पर उतर जाते थे आज उनके अपील को अनसुना कर रहे है। वाकये में केजरीवाल के अच्छे दिन गए लोगो को उनका मौकापरस्ती ही दीखता है इसीलिए लाख प्रयन्त के वाबजूद लोग उनके झांसे में नहीं आ रहे है। केजरीवाल वास्तविक में जनाधार और लोकप्रियता पर खुद ही ग्रहण लगा गए।  दिल्ली के लोगों ने उनको अपने आँखे और दिल में बैठने का जगह दिए पर लोगों को क्या पता था की दरअसल में केजरीवाल को सिर्फ जुबाँ पर बैठने की आदत है जो उन्हें दिल्ली में रहकर संभव होने वाले नहीं है इसीलिए तो अचानक दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर वाराणसी के तरफ कूच कर गए मोदी से दो-दो हाथ करने के लिए पर जितने उत्साह के साथ वाराणसी गए थे जब वापस आये थे उतने ही मायूस दिखे क्यूंकि जो भी था सब खो चुके थे हार-थक के उन्होंने गहन विचार करके दिल्ली में पुनः सरकार बनाने के लिए प्रयास में जुट गए पर कांग्रेस ने इस बार समर्थन देने से मना कर दी। आखिरकार कांग्रेस के सब कुछ पहले ही लूट गई और फिलहाल खोने के लिए कुछ भी नहीं है ऐसे में केजरीवाल को क्यों समर्थन दे?, जिनके बदौलत ही दिल्ली में अर्श से फर्श पर पंहुच गई। केजरीवाल को नितिन गडकरी के ऊपर अथवा अन्य नेता के ऊपर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे इस तरह प्रतिकूल मौहाल में भारी पड़ रहा है क्यूंकि कसी भी आरोप को साबित करने के लिए सबूत की जरुरत होती जो केजरीवाल ने न्यायलाय के समक्ष नहीं रख सके, ऐसे में निजी बॉन्ड भरने के लिए न्याय उनको आदेश दिए पर वे इसके पक्ष में नहीं दिखें क्यूंकि उनको ये लगता है कि उन्होने आरोप लगाकर कोई गलती नहीं किये इसीलिए निजी बॉन्ड भरने का मतलब होता है कि उनका दोष साबित होना, यह केजरीवाल साहेब का मानना है। यदि केजरीवाल ने बिना सबुत के किसी के ऊपर आरोप लगाये है तो वास्तव में वे दोषी फिर भी अगर नहीं मान रहे है तो इसका एक ही मतलब होता है कि फिरसे लोगो का ध्यान अपने ऊपर आकर्षित करने के लिए निर्थक का ड्रामा कर रहे है जो लोगो को हज़म नहीं हो पा रहा है। यद्दीप हाल में मनीष तिवारी माफ़ी मांग चुके है क्यूंकि उन्होंने भी बिना सबुत के उन्ही व्यक्ति के ऊपर इसी तरह के आरोप लगाये थे जैसा कि  केजरीवाल साहेब लगा चुके है फिलहाल मनीष तिवारी के माफ़ी के बाद वह मामला उसी वक्त खत्म कर दिए गए। ऐसे में केजरीवाल क्यों नहीं संयम काम ले रहे और बिना तिल के तार बनाये हुए मामला ख़त्म करना चाहते है? 
सचमुच में केजरीवाल को भरम हो चूका है कि इस तरह के कारनामे को अंजाम देने से मिडिया का मुफ्त का पब्लिसिटी मिलेंगी जो दिल्ली के आगामी के विधानसभा के चुनाव में कारगर साबित होगा। बरहाल दिल्ली के आम आदमी बड़ी ही दिलचस्पी केजरीवाल के नौटंकी का लुप्त उठा रहे और बड़े ही उत्सुक से उनके आगे के खेल का इंतज़ार कर रहे है।








 अच्छे दिन वाकये में आनेवाले है !!


इस बार के चुनाव जँहा धर्मनिरपेक्ष के वकालत करनेवाले का हवा निकाल दिए वही जातिवाद के जरिये राजनीती के शीर्ष पर मौजूद आकाओ को भी लोगों ने बक्शा नहीं नतीजन बसपा, जदयू , सपा , राजद, सबको दहाई के भी अंक नसीब नहीं हुए जबकि बसपा अपनी खाता भी नहीं खुल पाये। कांग्रेस का तो लोगों ने ऐसा हाल किया कि कांग्रेस की कुर्सी भी गयी और विपक्ष में बैठने की औकाद भी गवांयी। असल में इसीको लोकतंत्र कहते है जँहा लोकशाही और तानाशाही के लिए कोई जगह नहीं दीखता, वाकये में इस चुनाव के परिणाम ने बड़े -बड़े सुरमा को धूल फाँकने पर विवश कर गया। कई ने तो अपना जमानत जब्त करावा लिए तो कई ने सिर्फ अपनी साख गँवा कर बिल में घुस गए। बड़े -बड़े बड़बोले की बोलती बंद हो गए  अब तो पता ही नहीं चलता है कि यही वे है जो बड़े -बड़े डिंग हाकतें थे।

मैंने अपने पिछले ब्लॉग में लिखा था की मोदी लहर नहीं सुनामी चल रही है जिनसे आज़ाद भारत के लोकतंत्र के कई नए अध्याय लिखे जायेंगे फिर भी यह अंशका मेरे जहन में भी जरूर था कि यदि अल्पसंख्यक वोट नहीं मिला तो ऐतिहासिक जीत को पाना संभव होगा पर अन्तः मुमकिन हुआ क्यूंकि मेरा अंदाज़ा था की लोग इस बार जात -पात से ऊपर उठकर देश के विकास के लिए मतदान करेंगे और वैसा ही हुआ। मोदी के सुनामी में बड़े-बड़े राजनीती के चट्टान कहे जानेवाले के अरमान ढह गए। नितीश, माया, शरद पवार, मुलायम, लालू, करूणानिधि जैसे दिग्गजों का मटिया पलित हो गए या यूँ कहिये कि कांग्रेस के गोद में बैठे सभी को कांग्रेस के समेत मोदी के सुनामी ने बहाकर ले गई। जो केजरीवाल, शीला दीक्षित के विरुद्ध चुनाव जीतने से इस कदर गड -गड थे कि मोदी के सख्सयित को समझते हुए भी नज़र अंदाज़ करने की हिमाकत की नतीजन न खुद का साख बचा पाये और न ही पार्टी के साख बचा पाये मसलन दिल्ली में खाता भी नहीं खोल पाये विडम्बना तो तब हो गया कि इनके ज्यादातर शीर्ष नेता के  जमानत जब्त हो गयी।

शायद मोदी के लिए अब संसद में कुछ ज्यादा जद्दोजहद करने के लिए कुछ रह नहीं गया क्यूंकि सिर्फ और सिर्फ वह अपना पूरा ध्यान विकास पर ही केंद्रित रखेंगे। हालाँकि इनके लिए उन्हें ईमानदार और कर्मठ सदस्य के जरुरत पड़ेंगे जिन्हे वे खुद ही तलाश कर तराश सकते है। नई सरकार के विरासत में जो भी मिलनेवाला है मोदी को इनसे निपटने के लिए काफी मसकत करना होगा क्यूंकि मंहगाई के त्रासदी के बीच इस तरह कई फैसले लिए जाना बाकि है जो किसी हद तक मंहगाई को बढ़ायी गई न कि मंहगाई को काम करेगी। अन्तः लोग मंहगाई से पहले ही त्रस्त होकर मोदी के तरफ निहार रहे है की मंहगाई से निजात दिलाएंगे वैसे में मोदी को कई कठोर फैसले इस तरह के लेने होंगे जो कंही न कंही लोगो को आहात करेंगे इसलिए अब मोदी अपने सूझ-बुझ का किस तरह से इस्तेमाल कर लोगों के ऊपर मंहगाई का मार दिए बिना इन सभी समस्याएँ को दरकिनार कर अच्छे दिन आने का दस्तक सुनाएंगे, इस पर भी सबके पैनी नज़र है।

दरअसल में कांग्रेस सरकार ने जाते -जाते कुछ इस कदर के फैसले कर गए जो जनता के हिट में कतई नहीं है। कांग्रेस ने गैस का कीमत बढाने पर राजी थी बस चुनाव के चलते इसे रोके थे इसी कारण रिलायंस इंडस्ट्रीज ने सरकार को लीगल नोटिस भी भेजा था परन्तु चुनाव के दौरान सरकार में बैठे आला अफसर हो या मंत्री इनको शायद आभास था फिरसे उनको मौका नहीं मिलने वाला है इसीलिए तो खामोश होकर आनेवाली सरकार के मत्थे मङने का काम कर गए।  दूसरी तरफ रेलवे ने भी यात्री किराये में भारी बढतोरी के सिफारिश अपने मंत्रालय को भेज रखे बस नई सरकार के गठन होते ही फैसला लिए जाना है। मोदी के लिए रेलवे मंत्रालय सबसे बड़ी चुनौती होनेवाली है क्यूंकि UPA-२ के कार्यकाल में ५-६ बार इनके मंत्री बदले गए थे, किराये में बेंतहा बढ़ोतरी के उपरांत भी सुरक्षा और सुविधा के नाम पर यात्री ठगा ही महसूस करते रहे जबकि इन्ही के मंत्रीको पद्दोन्नति के बदलें रिस्वत लेने का आरोप भी लगे है।  ऐसे में रेलवे मंत्रीके लिए योग्यता के साथ - साथ ईमानदारी भी जरुरी है ताकि इस तरह के आरोप से बचा जाय।

बरहाल देश के जनता को कांग्रेस के कहर की परेशान अभी तली नहीं है जबतक नई सरकार के द्वारा राहत के अनेको-अनेक कदमें यथाशीघ्र नहीं उठाई जाती है।  एक तरफ असुरक्षा जो लोगों के दिलो-दिमाग में पैठ बना लिया है उसके लिए कई कारगर कदम उठाने है और इसकेलिए सबसे पहले देश से बंगलादेशी को बेइज्जत निकालना होगा क्यूंकि बंगलादेशी ने देश के तमाम शहरों में तकरीबन पचास फ़ीसदी क्राइम को अंजाम देते है अगर इनको इन शहरों से भगाया जाता है तो शहर में पचास फ़ीसदी क्राइम में निश्चित कमी दर्ज़ होगी। अभी तक कांग्रेस हो, आआपा हो अथवा अन्य पार्टी वोट के लिए इनके हिमायत किया करते थे और इनको अपना सरक्षण देते रहे थे पर लोगों के लिए अच्छा होगा कि इन बांग्लादेशी को बिना बिलम्ब इस देश से बाहर का रास्ता दिखाया जाय ताकि इनको दिए जानेवाले सहूलियत देश के जनता को मिलें और देश जनता को इनके द्वारा रोजमर्रा के आतंक से राहात मिलें।
सुरक्षा के संदर्भ में सबसे पहले पुलिस सुधार कानून को लागु किया जाना अतयंत आवश्यक है, जिसका खाका पहले सी तैयार है क्यूंकि पुलिस को जब तक जवाबदेही और उनके काम काज को लेखा -जोखा के लिए निगरानी कमिटी नहीं बनाई जाती है तब तक लोगों के जहन से  असुरक्षा का भावना निकालना कदापि संभव नहीं है।

आखिकार जनता ने अपनी वोट को जिम्मेवारी और जवाबदेही के साथ प्रदान की है इसीलिए सरकार का अब दायित्व बनता है कि सरकार जनता के सपने को साकार करे और किये गए सभी वदाओं को पुरे करने के लिए अभी से कटिबद्ध हो जाये ताकि जनता को दिलाशा मिले की सचमुच में अच्छे दिन आने वाले है।

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सोमवार, 19 मई 2014


क्या अल्पसंख्यक समुदाय फिरसे मौका गवां दिए ?



 इन दिनों प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो अथवा सोशल मीडिया सब जगह यह आत्ममंथन करने में लगे है कि यदि मोदी लहर चल रह था, वाकये में इंदिरा गांधी के देहांत के उपरांत राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के सन्दर्भ में लहर देखा गया था उनसे भी बढ़कर था तो वह वोटो में तब्दील क्यों नहि हुआ ? वास्तविक में मीडिया के द्वारा एक्सिट पोल से लहर व सुनामी क आभाष  नहि किया जा सकता है पर ये भी संकेत दे रहे है कि एनडीए गंठबंधन को सरकार बनाने की मेजोरिटी मिल रही है जो आज के परिवेश में काफी है क्यूंकि पिछले दो दशक में किसी भी पार्टी को इतने सीट नहि मिलें जितने इस बार भाजपा को मिलता दिख रहा है।

दरअसल में मोदी लहर आजाद भारत में अभी तक के सबसे बड़ा सत्ता परिवर्त्तन का लहर है जिसमें सिर्फ बहुसंख्यक वोट एक मुस्त होकर किसी एक दल को मिला यदि अल्प् -संख्यक लोग भी भाजपा को समर्थन देते तो एक्सिट पोल तथापि एक्चुअल परिणाम १९८४ से चुनाव परिणाम के भाँति अव्वल ही होते है। इस चुनाव परिणाम से भाजपा और आरएसएस के पूर्णतः ज्ञात हो जाना चाहिए कि देश के अल्पसंख्यक क़िसी भी हाल में उनको वोट नहि दे सकते, यदि एक तरफ़ त्रासदी और तानाशाह देने वाली पार्टी हो जबकि दुसरे तरफ़ भाजपा हो तो ऐसे आफद के घड़ि में अल्पसंख्यक भाजपा को चित्त करने के लिये आफद और त्रासदी से प्रेरित पार्टी को ही वोट करेँगे।  फिर भी बिहार, उत्तर प्रदेश और पस्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक से उम्मींद सिर्फ दिल को तस्सल्ली देने के लिये ही  किया जा सकता है।

हालाँकि गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक में भाजपा के प्रति सकारात्मक रवैया देख जा सकता है जिस कारण उन प्रांतो में भाजपा क्लीन स्वीप कर सकती है। देश में अल्पसंख्यक क वोट लगभग  २० -२२ प्रतिशत है जो यदि एक पार्टी के पक्ष में दिया जाता है तो उन पार्टी को हराना कतई  आसान नहि है। चाहे क्षेत्रीय पार्टी हो अथवा राष्टीय पार्टी हो  अल्प-संख्यक  का वोट अगर उनके पाले में जाता है उन्हे जीत पक्की मानी जाती है। इसीलिए देश के जितनें भी क्षैत्रिय पार्टी वह खुदको धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़ा पुजारी के रुप में सैदेव अल्प संख्यक सामने पेश करते रहते है जबकि राष्ट्रीय शियाशी दल अनेकौ प्रकार के ताना -बाना बुनते रहते है ताकि अल्प संख्यक वोट किसी भी हाल में न खिसके। जबकि देश के अल्प संख्यक अपने एक मुस्त वोट सिर्फ़ भाजपा को हरानेवाली पार्टी को पड़ोसते आरहे है इसिलिये तो सिर्फ़ बार जाति और क्षैत्रिय स्वार्थ को छोड़कर पुरे देश एक सरकार का सपना देखेँ जो उन्हे विकास और समृद्धी की ओर ले जाए ऐसे में अल्प संख्यक समुदाय से भी सकारात्मक योगदान का आपेक्षा करना वाजिव था।

आज के परिदृश्य में उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक मौजूदा सरकारके खिलाफ जो आक्रोश था उसीका  नतीजा है कि अल्पसंख्यक समुदाय के नकारात्मक झुकाव के वाबजूद भाजपा अपने पिछलें सभी रिकॉर्ड को ध्वस्त करके इस चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन करने जा रही है।  एक तरफ परिवर्तन के महायज्ञ में सबने बड़े उत्साह के साथ अपनी-अपनी आहुति देने क काम किये है फिर भी कोइ समुदाय चुक गये तो वह हो अल्प-संखयक समुदाय का बड़े तबक़े जो देश के इस बदलाव के बीच अपने व्यक्तिगत खीश को तज्जुब दी इन्हीके चलते देश के समृद्ध और संप्रभुता सरकार की  बात करने वाले लोगो को अनदेखी करके अपने बहुमूल्य वोट को उनको दें दिये जिनके कार्यशैली से तकरीबन समस्त देश हतोत्साहित थे।  यद्दिप इस चुनाव में अल्पसंख्यक के लिये एक बेहतरीन मौका था जिनको न कि खुद हि गंवा दिये ब्लीक एक बार फिर ये साबित कर गये कि उनके लिये देश से पहले उनका निजी हित ही सर्वोपरि है जिसे किसी भी हाल में छोड़ा नहि जा सकता है।

बरहाल १६ मई को पुरे आवाम को बड़े वेसर्बी से इन्तज़ार है जिस रोज रुझान वास्तविकता से रूबरू होंगे।  वस्तुतः  चुनाव परिणाम आने के बाद ही सरकार के शक्ति का  आँकलन करना मुमकिन होगा क्युँकी जितनें छोटी गठबंधन क स्वरुप होंगे उतने ही अपेक्षित और दीर्घायु सरकार का  कल्पना की जा सकती है और भावी सरकार के लिये भी सम्भव होगे कि जनता के उम्मीद पर बखूबी उतरने का प्रयास करेंगे।

मंगलवार, 13 मई 2014



ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे………………………

टूटे मर्यादा तो टूटे 

रूठे अपनो तो रूठे 

बिन सत्ता के सब है झूठे

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे 

पतली गली से होकर 

सत्ता के गलियारी में पहुँचना आसान नहीं

भइया, सत्ता के गिरफ्त में सब 

अपितु सत्ता के खातिर इतना घमासान नहि 

सत्ता कोइ कामधेनु गाय नहि 

फिर भी बंधे है इन्हिके खुंटे

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे………………………

मंदिर हो या मस्जिद

भरे पडे है सत्ता के चाहनेवालो से

अल्ला हो या राम

उनको भी बाँट रहे है अपने सवालो से 

फिसल रहे है मुददा हाथोँ से 

अबकी बार तूँ - तूँ , मैं -मैं के ही बूते  

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे………………………

बनारस में जमबाड़े है दिग्गज का 

जनता को गर्मी में पिला रहे बिन दही के लस्सी 

कोई बाहुंबली तो कोइ सपने का सौदागर 

फांसने की करली तैयारी बस ज़नता ठामे रस्सी

सावधान, कोइ फिरसे आपको न लूते

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे………………………

सत्ता से है सबको प्यार 

सत्ता के दंगल में सब है, बुर्जग हो या बच्चे 

दागी से परहेज़ नहि 

चुनावो में तो दागी ही लगते है अच्छे 

खुदके हड्डी में जोर नहि, तो चल पड़े है बैसाखी के बूते 

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे……………………… 

बेचारे जनता करे तो क्या करे,

चुनना ही पड़ेगा अन्यथा कोइ विकल्प नहि 

NOTA तो सिर्फ़ सांत्वना है 

फिर करें क्या जिनका खुद ही कोइ सँकल्प नहि 

मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी हो या बेरोजगारी 

इनके उपर गाली- गलोज पड़े है भारी

जनता तो तमाशबीन बनी है 

नेताजी पी रहे खुदही आम्ल के घुटें

ऐसे में सत्ता हाथ से कैसे छूटे………………………

 









इस चुनाव परिणाम के लिये सब है बेक़रार !



पुरे देश को गर्मी ने बुरा हाल कर रखे है जबकि चुनावी सरगर्मी भीषण गर्मी के भारी पर रही है नतीजन लोग गर्मी को दरकिनार कर इतने उतावले और दिसचस्पि से, गर्मियो से बेखबर होकर सिर्फ़ चुनावी परीणाम को निहार रहे है। कई ने तो नई सरकार के लिए स्वागत गान भी लिख डालें और इंतज़ार उस सुभमूर्हत को जब अपने मुखारविंदू से गुनगुनाएंगे। जहाँ कई मंत्री और संत्री अपने बूरिया -बिस्तर समेतने में व्यस्त है तो कईयो नये चेहरे ने अभी से ही मंत्री के सपथ पत्र  पढनें का अभ्यास करने लगे है। हमारे वर्तमान के प्रधानमंत्री इन दिनों केवल नये घर को डेकोरेशन और शिफ्टिंग को लेकर ही गंभीर है और इतने उतावले से लोग तो ७ रेस कोर्स में शिफ्ट होने के लिये नहि होंगे उससे कहीं ज्यादा हमारे प्रधानमंत्री यहाँ से विदा होने के लिये उतावले दिख रहे है। दरशल में जबसे संजय बारु ने अपने पुस्तक में प्रधानमन्त्री के कार्यशैली को लेकर प्रश्नचिन्ह लगाये थे तबसे प्रधानमंत्रि को अपने इर्द -गिर्द जमे लोगो पर से विस्वास ही ऊठ गया इसलिए तो इनदिनों गंम्भीर मौन मुद्रा में है और हो सकता है कि नये घर में निवास के उपरांत ही अपने मौन मुद्रा को त्यागेंगे।

लालूजी को ही देखिये, कुछ दिन पहले जब लालूजी जी जेल में थे बुद्धजीवियो ने मान लिये थे उनका राजनीती करियर बिल्कुल खतम हो गयी और रजद के लालटेन से रोशनी से गुंजाईश नहि पर सब तर्क मिथ्या हीं साबित हुए क्यूंकि फिलहाल न लालूजी जेल मेँ है हलांकि रजद के लालटेन के रोशनी से चकाचोंध कर रखे अन्यथा लालूजी को इतने ऊर्जा कंहाँ से मिलता कि रावडी देवीं के गाडी और सूटकेस के जॉंच करने वाले अधिकरी को जूता से पिटने की बात करतें?

दरअसल  में राजनीती में  वक्त का पहिया बहुत ही तेजी से घूमते है यहाँ लोग अर्श से फर्श पर चंद मिनटों  में पहुँच जाते है उसी तरह लोग फर्श से अर्श पर पहुँचने में ज्यादा मस्कत नहीं करने पड़ते है। इसलिए तो नेता किसी भी दल के क्यूँ न हो पर शियाशी फायदे के लिये चाहे कितने भी लांछन एक -दसरे पर लगाते दिखते हो पर निजी ज़िंदगी में किसी को किसी से भी परहेज़ नहीं है ऐसे में राजीनीति के नुमायँदे निभीर्क हो कर तामाम ऐसे कारनामे को अँजाम देतें है जो न सामाजिक दृष्टिकोण से और न ही संवैधानिक दृष्टीकोन से ज़ायज मानें जाते है। फलस्वरूप राजनितिक दिग्गज को अपने कुकर्म पर शर्मसार होने के वजाय उसे हीं राजनैतिक रँग देने में लगे रहते है। इसलिए दिन -ब - दिन दागदार नेताओ का भरमार होते जा रहे है जबकि संवैधानिक पदो पर बैठे लोग भी इन्हे ही पसन्द करते है क्यूंकि इनके बदौलत ही उन्हे भी सरक्षण मिलते है।

१६ मई के बाद दागदार नेताओ के आगे के रास्ते क अनुमान लग पाएगा, यदि इस चुनाव में जनता दागदार नेताओं के उम्मीदवारी को खारिज कर देती है तो इनके राजीनीतिक करियर का अन्त होना सुनिश्चित हो जायेगी लेकिन यदि चुनाव जीत कर आते है तो यह और धारदार हो जायेंगे जो देश और जनता दोनों के लिये घातक शिद्ध होने वाला है।  इस चुनाव में दागदार नेताओ क़ी बड़ी लम्बी सूचि है, कोइ भी पार्टी हो इससे अछूत नहि हाँलाँकि दो-चार पार्टी को छोड़ दें तो ज्यादातर पार्टी में ऐसे ही लोगों का बोलबाला है। ऐसे में नई सरकार से लोगों को काफी उम्मींद है कि दागदार लोगो को राजनीती में सक्रियता पर अंकुष लंगायेगी।

वर्तमान परिवेश को देखतें हुए बुर्जग राजनीतिज्ञ दिग्गज को कुछ करने  के लिये खास बचा नहि है ऐसे में उनके राजनीती मंच पर दीर्घकाल देखना मूमकिन नहि है कुछ ने तो पहले से ही सन्याश का एलान कर दिये जो नहि कर पाये उनके सन्याश चुनाव के उपराँत एलान करनेका आसार है। देश के तमाम राजनीती के भविष्य वक्ता के साथ -साथ आम जनता भी अपने सांस को थामे हुए है क्यूंकि जनता एक तरफ़ अपने इच्छाएँ और आकांक्षायें आने वाली सरकार से जोड़ कर रखी है वही भविष्य वक्ता के भी साख आनेवाली सरक़ार से जूडी है क्यूँकि देश तकरीबन सभी ने मान लिये है कि देश बहुत बड़ी बदलाव को स्वागत में है ऐसे में कुछ असंभावित हो जाता है तो उनके पूर्वानुमान के उपर प्रशन चिन्ह लगना तय है।  यदि इस चुनाव में किसी राजनीती घराने के छवि दांव पर लगे है तो वह है गांधी परिवार जिनके आगे के भविष्य इस चुनाव पर ही  निर्भर है कहना कदापि असत्य नहि होंगे क्यूंकि इन चुनाव के बाद जहॉं कांग्रेस के स्थिति देश के पतल पर होंगी वही गाँधी परिवार का भी भविष्य सुनिश्चित होगी कि उनके पीढ़ी में दमखम है जो कांग्रेस को आगे के रास्ता का मार्गदर्शन कर पाएंगे अपितु कांग्रेस पार्टी गाँधी परिवार को अलग- थलग करके खुद ही अपना मार्ग परस्त करेगी।

केजरीवाल और उनके तरह के नेताओं के लिये भी चुनाव अहम होनेवाले है क्यूँकि इस चुनाव के परिणाम के आधार पर ही उनके आगे के भविष्य का आकलन किया जाना सम्भव होंगे। वास्तविक में इस चुनाव का परीणाम शायद अतीत के सभी चुनाव परिणाम से अहम और अति प्रभावशाली होनेवाला है और चुनाव परिणाम के पश्चात देश के जनता शाक्षात् होंगे कि देश के लोगो आज भी महजब व जातीं के नाम पर पाराम्परिक वोट करते आये है या इस बार भ्रष्टाचार, मंहगाई , बेरोजगारी और ग़रीबी को मुद्दा मान कर प्रगतीशील सरकार के हेतु वोट डाले है। 

गुरुवार, 1 मई 2014

कांग्रेस की आखरी बाजी

भाजपा को रोकने के लिए जिस कदर कांग्रेस दिल्ली में आआपा को समर्थन दी थी, बेशक ४९ दिनों के लिए ही सही केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने में कांग्रेस अहम रोल अदा की थी, आआपा के सभी कूटनीति कांग्रेस के आगे धाराशाही   हो गयी आखिरकार आआपा इस तरह से विवश हो गयी फलस्वरूप आआपा खुद ही हथियार डालकर अन्तः  इस्तीफा देना ही पड़ा आआपा के सरकार भी गयी और जनाधार भी गया। उसी तरह किसी भी हालत में कांग्रेस नहीं चाहेगी कि केंद्र में भाजपा की सरकार बने। फिलहाल जो भी स्थिति दिल्ली प्रदेश सरकार के लिए लोगों के सामने बनी हुई है अगर इस तरह का स्थिति केंद्र सरकार को लेकर देश के समक्ष हो तो इसमें  कोई भी हैरत नहीं होना चाहिए क्यूंकि इस तरह के स्थितियों से एक तरफ कांग्रेस को फायदा मिलता है जबकि उनके विपक्षी दलों में मायूसी ही दिखतें है। इसी के तहत कांग्रेस अपने प्लान के ऊपर जोर-सोर से काम करना शुरू कर दिए है।  भाजपा को रोकने के लिए इन्हे वामदलों को समर्थन देने और लेने से भी से भी परहेज़ नहीं है कांग्रेस ने तो मोदी के रोकने के लिए दो तरह के  प्लान की तैयारी कर रहे है। प्लान -A के तहत वामदलों को छोड़कर खुद ही सरकार के अगुआई करेंगे जिनमें सपा, बसपा , डीएमके, एनसीपी, टीएमसी, BJD और अनेको छोटी-छोटी और क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन बनाएंगे और इसको सेक्युलर गठबंधन का संज्ञा देकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करेंगे और सभी दलों के उनके सीट के आधार पर कैबिनेट मंत्रालय में जगह दिए जायेंगे यद्दिप इसके लिए कांग्रेस को चाहिए कम से कम १४० सीट।

 जबकि प्लान-B के अनुसार कांग्रेस थर्ड फ्रंट को बाहर से समर्थन दें सकती है। हालाँकि थर्ड फ्रंट का अहम भूमिका होगा सरकार के स्वरुप को तैयार करके सरकार को चलाये जबकि कांग्रेस किसी भी दशा में सरकार में शामिल नहीं होगी। सरकार कांग्रेस बनाये अथवा थर्ड फ्रंट दोनों ही स्थितियों में कांग्रेस के ऊपर सरकार का दारोमदार होंगे जिसके दरमियान कांग्रेस अपनी खोई साख को सृजन करने को पुरजोर कोशिश करेगी । गैर एनडीए सरकार बनाने के अथक प्रयास इसलिए भी कांग्रेस करेंगे क्यूंकि कांग्रेस को पता है यदि एनडीए के सरकार बनती ही दस साल के सभी घोटालों का लेखा -जोखा जनता के समक्ष होंगे जबकि इनके दस साल के दौरान मंत्री रहे अधिकतर नेता कारागार में होंगे जिनसे कांग्रेस पार्टी को अत्याधिक नुकशान उठाना पड़ेगा, जिसका भरपाई करने के लिए व पुनः स्थापित होने के लिए बरसों लग जायेगा,  इस कारण कांग्रेस पार्टी कभी भी नहीं चाहेगी कि भाजपा के अगुआई वाली सरकार केंद्र में आये। हक़ीक़त में दोनों प्लान की ब्लू प्रिंट सरलता से तो तैयार किये जा रहे है परन्तु आसान नहीं होगा जब इनके ऊपर काम करना होगा क्यूंकि पहले ही इस तरह के कवायद पर विराम लग जायेगा जैसे ही एनडीए गठबंधन को २७२ सीट के करीब या उसके ऊपर मिलते है अपितु थर्ड फ्रंट को एक सूत्र में बांधकर ज्यादा दिन रखना कदापि सहज नहीं है। वाबजूद सरकार थर्ड फ्रंट की ही बने पर कई छोटे -छोटे पार्टी होने कारण सामंजस्ता और संतोष के आभाव में बहुत ही जल्दी बिखरने का अंदेशा बनना स्वाभविक है फिर भी कांग्रेस अपनी आखरी बाजी तो खेलेंगे ही।

दरअसल में महाराष्ट्रा के मुख्य मंत्री के संकेत से साफ़ जाहिर होता है कि कांग्रेस के नेताओं ने दोनों प्लान के ऊपर काम करना तभी से शुरू कर दिए जब उनको ज्ञात हो गया था कि यूपीए गठबंधन के  चुनावी परिणाम काफी प्रतिकूल होने वाला है और यूपीए गठबंधन हरगिज़ सत्ता के आस-पास नहीं पहुँच पा रहे है , ऐसे में नए प्लान के बदौलत ही सत्ता हासिल की जा सकती है अथवा एनडीए गठबंधन को सत्ता से दूर रखे जा सकते है। फिलहाल सबकी नज़र १६ मई के परिणाम पर ही है, उसके उपरांत ही सत्ता के लिए जोड़-तोड़ की राजनीती का असल क्लाइमेक्स देश के सामने आएंगे।  वास्तविक में कांग्रेस इस तरह के राजनीती में माहिर है जिस कारण ही १९९६ में अटल बिहारी वजपेयी को १३ दिन के पश्चात इस्तीफा देना पड़ा था क्यूंकि सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाये थे । परिणाम स्वरुप कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर दो साल में भारत के दो प्रधानमंत्री दिए यद्दिप उनके यह चाल उनके ही उलटे पड़ गए नतीजन १९९८ में एनडीए गठबंधन सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरे अन्तः अटल बिहारी वाजपेयी के अगुआई में सरकार का गठन हुआ जिनके आयु १३ महीने रहे उसके पश्चात देश को फिर से मध्यावि चुनाव का सामना करना पड़ा हालाँकि इस बार एनडीए गठबंधन इतने सशक्त सरकार दिए जो कि  गैर कांग्रेसी सरकार केंद्र  में पहली बार बनी जो अपनी पांच साल का कार्यकाल पूरी कर पाई।

बरहाल कांग्रेस और बीजेपी दोनों जद्दोजहद में लगे है कि अपनी-अपनी सरकार बनाये पर इन्ही जद्दोजहद के बीच कांग्रेस के एक समूह उन सभी विकल्प के ऊपर आत्म मंथन करने में लगे है कि कांग्रेस यदि बीमार भी हो जाये कि किसी भी दृष्टि से सरकार का बोझ उठाने के काबिल न रहे फिर भी  थर्ड फ्रंट या कोई अन्य विकल्प को तलाश रहे है जिनके माध्यम  से सत्ता के बागडोर उनके ही हाथ में हो। जबकि भाजपा एनडीए गठबंधन को मजबूत करने में लगे हुए ताकि किसी भी हालत में सरकार बनाने का मौका हाथ से जाने न दिया जाय। अन्तः देश लोग भी बड़ी ही बेशर्बी से १६ मई का  इंतजार कर रहे है क्यूंकि चुनाव परिणाम आने के पश्चात ही इन पार्टियों का दशा और दिशा समझ आ पाएंगे  … ................।