सोमवार, 12 दिसंबर 2022



 दिल्ली का क्या होगा ?


दिल्ली में जो दर्दनीय घटना घटित हुई, इसके लिए मुख्यतः दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार दोनों जिम्मेवार है क्यूंकि लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के नेताओं ने अस्वासन दिए थे कि अवैद्य कालोनी में जो बंगला देशी है उन्हें सत्ता में आने के उपरांत पुनः बंगलादेश भेजा जायेगा परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ।  प्रायः  अधिकांश दिल्ली के लोग इससे इत्तेफ़ाक़ रखता है कि कांग्रेस का अवैद्य कॉलोनी में रह रहे बंगलादेशी पारंपरिक वोट बैंक है। हालाँकि आप पार्टी जबसे स्थापित हुई तबसे केजरीवाल इनके सरंक्षक के किरदार में बने हुए है और इस पार्टी के कई नेता ने खुलकर इनके समर्थन खड़े दिखे गए नतीजन इस तरह के लोगों का उत्साहित होना लाज़िमी है जिन्हे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मौका परस्तियों का समर्थन हासिल है जो भी हो परन्तु यह अत्यन्त दुःखद है जिस कारन से अधिकाधिक दिल्ली के शांतिप्रिय लोग त्रस्त है।  जँहा तक केंद्र सरकार  का मनसा को लेकर प्रश्न उठता है इसका मुख्य कारन है कि उनके अधीन दिल्ली पुलिस होने के वाबजूद इसका सदुपयोग करके इस तरह के आपराधिक तत्व को अपराध को रोक सकते थे अथवा उनके ऊपर लगाम लगाए जा सकते है पर केंद्र का भूमिका भी सकारात्मक नहीं देखा जा सकता मसलन रोज पंकज नारंग जैसे निर्दोष लोगों या  परेशान किये जाते है व हत्या कर दिए जाते है। 

दिल्ली पुलिस का भूमिका बेहद असंवेदनशील है क्यूंकि दिल्ली पुलिस इन तरह के अवैद्य कॉलोनी में आपराधिक लोगों से उगाही करती है और उनके सभी अपराध को नज़रअंदाज करती है।  जबकि दिल्ली के अंदर कई ऐसी गली या इलाके है जंहा पुलिस भी जाने से डरती नतीजन वँहा पर हर तरह के गैर कानूनी काम खुलेआम व भयमुक्त तरीके से किये जाते है।  ब्रेसेल में जिस कदर दहलाने वाली त्रासदी को अंजाम ऐसी ही इलाके के लोगो के माध्यम  दिया गया, जिनके डर से वँहा के पुलिस उनके इलाके में प्रवेश करने से परहेज़ करती  थी परिणामस्वरूप  बीते दिन फिदायीन हमला में तकरीबन पचास बेकसूर लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी.  दिल्ली पुलिस को चाहिए कि ब्रेसेल के घटना से सीख लेकर ऐसे इलाको नामांकित करके इनमें पनप रहे कट्टर वादी, आतंकवादी  और असमाजिक सोंच को रोके।

दिल्ली के पंकज नारंग के घटना को लेकर जो सक्रीय मीडिया का भूमिका रहा, इनसे प्रायः दिल्ली के ज्यादातर लोग दुविधा में है कि जिस मीडिया को चौथ स्तम्भ का दर्जा  दिया गया, क्या इसके काबिल है अथवा नहीं ?  वासतव में कई मौके पर मीडिया द्वारा नकारात्मक सोंच का उजागर होता जिससे उनके साख पर बत्ता लगना बिलकुल जायज़ है क्यूंकि मीडिया हमेशा सकारात्मक और सच के प्रतिबद्ध माना जाता पर इन दिनों  इन सब को भुलाकर बाजारू मीडिया के दौड़ में एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में व्यस्त, इसके लिए सच और सकारात्मक खबर को ही क्यूँ  न गला घोटने पड़े, इसके लिए बेहिचक तैयार है।  फिलहाल मीडिया को लेकर  लोगों के जो अवधारणा थे धीरे -धीरे से धूमिल हो रहे है जिस कारन बाज़ारू मीडिया को ज्यादा दिन तक तीके रहना मुमकिन नहीं है इसीलिए मीडिया को चाहिए कि यथसीघ्र पुनः अपनी साख को संचित करके खोये हुए विस्वास को हासिल करे ताकि लोगों का जो पुराने अवधारणा है फिर से कायम रहे।

 बरहाल दिल्ली के सभ्य और संवेदनशील जनता दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार दोनों के तरफ आँख पसार कर देख रही है कि पंकज नारंग जैसे निर्दोष लोगों के सुरक्षा के प्रति क्या -क्या कठोर कदम उठा रही है, ताकि भविष्य में इस तरह के दुबारा घटना देखेंने को नहीं मिलें?

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016




 दिल्ली की सरकार और तुगलकी फरमान 


क्या सत्ता एक नशा है जिसे कोई भी पचा नहीं पाते नतीजन जैसे ही सत्ता पर काबिज होते है फिर क्या है मनमौजी की तरह हरकतें करने शुरू कर देंते है?, तानाशाहों की भांति अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा दूसरे पर थोपना आरम्भ कर देतें  है, हद तो तब हो जाते है जब मिशाल पेश करने के चाह में हर एक मर्यादा को लांघ देंते है।  प्रश्न अत्यन्त ही गंभीर है क्योंकि लोकतंत्र में इस प्रश्न का समाधान जब तक नहीं ढूंढा जाता तब तक लोकतंत्र को सुरक्षित नहीं माना जा सकता है कारन स्वरुप आप झूठे वायदे और जनता को दिग्भर्मित करके चुनाव जीतन के पश्चात जनता का हित का ख्याल से ऊपर अपनी महत्वाकांक्षा को रखना लोकतंत्र के लिए विनाशकारी सोंच है जिसे यथाशीघ्र त्यागना होगा अन्यथा वे दिन दूर नहीं जब जनता के बीच हताशा और आक्रोश का ऐसा उबाल देखनो को मिलेगा जो निश्चित रूप से अलगाववादी नीतिकारों के पक्षधर होंगे।

दरअसल में दिल्ली में दो सरकार रहती है और दोनों का एजेंडा बिलकुल आपस में मेल नहीं खाते है पर इसे अस्वाभिविक नहीं कह सकते है क्यूंकि दोनों सरकार अलग -अलग पार्टी के हाथों में  और दोनों के नीती और नज़रियाँ  भिन्न हो सकते है, हालाँकि प्रश्न यह है कि दोनों के नीती और नज़रियाँ भिन्न है किन्तु इनके नीती और नज़रियाँ जो भी, पर जनता के प्रति जवाबदेही होनी चाहिए उसे कैसे भुला सकते है?, सत्ताधारी पार्टी उसमें शामिल महापुरुषों ने भ्रष्टाचार से निजात दिलाने बात कह कर सत्ता पर तो काबिज हो गए हो परन्तु सत्ता हथियाने के उपरांत जनता का हित का ख्याल का ध्यान न करके सिर्फ अपनी तुगलकी फरमान जनता पर थोपना शुरू कर दिए, क्या लोकतंत्र में इसे स्वीकार किया जा सकता है? हरगिज नहीं क्यूंकि जनता ने आपको चुना है इसीलिए क्यूंकि आपने जनता को अस्वासन दिया था कि आप जनता को सर्वोपरि समझकर ही कोई फैसला लेंगे फिर अचानक जनता को नज़रंदाज़ करके आप कोई भी फैसला कैसे ले सकते है?  अगर फैसला आप लेते है तो आप जनता के साथ विश्वासघात कर रहे है।

इनदिनों दिल्ली सरकार ने दिल्ली जनता के ऊपर न जाने कितने ऐसे कानून और सोंच थोप रही है जिससे दिल्ली के जनता काफी विस्मय है। प्रदुषण रोकने के लिए जरुरी है कि आप कठोर कदम उठाये फिरभी जनता के परेशानियों से मुंह कैसे फेर सकते है, क्यूंकि प्रदुषण रोकने के लिए कई उपाय करना आवश्यक है पर सभी विकल्प को नजरंदाज करके एक ही विकल्प को अपनाते है जो दिल्ली के जनता के परेशानी का सबब बन पड़ा है इससे यही निष्कर्ष निकला जा सकता है कि जनता वेचारे है और न चाह कर आप के सभी फैसले को स्वीकार करते है क्यूंकि फैसला का बहिष्कार करना अलगाववादी विचारधारा माना जायेगा कि सभ्य जनता तनिक भी इसका समर्थन नहीं करती है। हालाँकि दिल्ली सरकार वाकये दिल्ली में प्रदुषण के प्रति गंभीर है तो सबसे पहले दिल्ली में ८५% प्रदुषण जिन स्त्रोत से होता है उसे रोकने की जरुरत थी जिससे जनता प्रत्यक्ष रूप से परेशानी से साक्षात नहीं होते तद्पश्चात यह नियम लागु किया जा सकता है पर ऐसा नहीं करके सिर्फ जनता के ऊपर अपने विचार को लांद देना यह सिर्फ यही दर्शाता है कि लोकतंत्र में लोकशाही सिर्फ दिखावा जबकि जनता तो बस सत्ता के हुक़ुमराणो के रहमो करम पर ही रहती है। माना कि प्रदुषण के कारन जो भी दुष्प्रभाव है उससे सबसे ज्यादा जनता ही प्रभावित हो रही है लेकिन जनता को स्वच्छ पानी और स्वच्छ हवा मुहैया करवाना सरकार की कर्तव्य है यदि सरकार जनता को ये भी सुविधाये नहीं दें पा रही है तो इसका तातपर्य यह कि सरकार अपने कर्तव्य से बिमुख हो रही है। बरहाल दिल्ली की सरकार प्रत्येक मोर्चे पर विफल ही रही यही कारन है कि भ्रष्टचार युक्त दिल्ली में दिल्ली के हवा हो या व्यवस्था सब प्रदूषित हो गए है अब देखना है कि दिल्ली सरकार कितने हद तक इसे स्वच्छ कर पाएंगे परिणामस्वरूप दिल्ली के अधिकाधिक लोग स्वच्छ हवा और स्वच्छ पानी के आभाव में अनेको प्रकार के बीमारी से ग्रस्त है अगर स्वच्छ हवा और पानी दिल्ली को लोगों मिले इससे अन्तः दिल्ली के लोगों का ही भला होगा  ......


 





सोमवार, 23 नवंबर 2015





 हम आखिर कब तक ?


जँहा पर राजनीती और सियाशी दाँव -पेंच में उलझे हुए अतीत और भविष्य है, जँहा राजनीती के सरंक्षण के बिना ना अपराध, ना व्यापार संभव वँहा पर राजनीती के कदरदानों ने सिर्फ और सिर्फ सांत्वना और झूठे वायदें के बुनियाद पर आज़ादी के बाद से यंहा के जनता का शोषण करते आ रहे हालाँकि इन्होने बेशक काम करने का तरीका व स्वरुप में बदलाब अनेको बार किये परन्तु इनके मकसद कल, आज और कल एक ही रहने वाला है।  चाहे जय प्रकाश नारायण को वह जन आंदोलन व  इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ आंदोलन, फिलहाल के अनेको आंदोलन।जय प्रकाश नारायण  के जनांदोलन के बाद भी भ्रष्टाचार देश को खोखला  क्या नहीं करते रहे?  इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे बाद पुनः सत्ता पर तो काबिज़ हो गए पर देश से गरीबी हटा पाये नहीं बिलकुल नहीं क्यूंकि लक्ष्य यह नहीं था कि गरीबी हटाना वस्तुतः ऐसे नारे के सहारे सत्ता पाना ही उद्देश्य रहा है।

आज की परिदृश्य में जन लोकपाल जनांदोलन जिनके माध्यम से भ्रष्टाचार को हटाना था पर अवसर मिलते ही सत्ता हथिया लिए और मुलभुत एजेंडा को तिलांजलि देकर सत्ता का आन्दन ले रहे है।  इस तरह के सैकड़ो उदहारण है जिसके आधार पर यह शुनिश्चित किया जा सकता है कि इस लोक तंत्र में सत्ता तक पहुँचने के लिए नेताजी क्या- क्या नहीं करते जैसे ही सत्ता पर आसीन हो जाते कभी पीछे मुड़ कर देखने की जरुरत नहीं समझते इसी को तो लोकतंत्र कहते है जो जनता के द्वारा जनता के बीच में से जनप्रतिनिधियों को सत्ता का कमान सौपें जाते है और बदले में जनप्रतिनिधियों का उपेक्षा का शिकार हो कर प्रत्येक दिन उन्हें कोसते रहते है, इसी जद्दोजहद में पांच साल बीत जाते है अचानक वही जनप्रतिनिधियों आपके सामने प्रकट होते है एक नए एजेंडा  के साथ एक नए अवतार में फलस्वरूप जनता सब भूल कर फिर से उन्हें जीता देतें है।  इस प्रकार के लोक तंत्र से बढियां तो हमारे यंहा को राज तंत्र थे यद्दीप उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार सिर्फ राजा के पास थे लेकिन राजधर्म का पूणतः  निर्वाह करते हुए सदैव योग्य व्यक्ति के हाथ में देश कमान देंते रहे फिर भी कई बार चूक हुए परन्तु  आज से तो बेहतर ही कहा जा सकता है।

दरअसल में इसके लिए जनप्रतिनिधि ही केवल दोषी नहीं है ब्लिक हमलोग और हमारे व्यवस्था कम दोषी नहीं है। कुछ जनप्रतिनिधियों ने अपने हित के खातिर आरक्षण का  दीमक ला कर छोड़ दिए है जो दिन ब दिन  हमारे बुनियाद को कमजोर करने में लगे है जिसके आढ़ में सियाशी पुलाउ खूब पका रहे है और खा रहे परन्तु राष्ट के नींव को इस कदर खोखला कर रहे है कि भविष्य में एक बड़ी त्रासदी से रूबरू होना निश्चित है।  क्या ऐसे लीडर जो खुद ही कई भ्रष्टाचार के मामले में संलिप्त है क्या उनसे पारदर्शी और साफ सुथरी सरकार की उम्मीद की जा सकती है, कतई  नहीं।  जिस तरह अमेरिका की चुनाव प्रणाली है उसके मुताबिक हमारे यंहा भी चुनाव प्रणाली बनायीं जा सकती है फिर क्यों ना संविधान में संशोधन करके जनता के प्रति ज्यादा से ज्यादा जवाबदेह जनप्रतिनिधियों का चुनाव को तज्जुब दी जाती है प्रत्येक जनप्रतिनिधि के लिए एक मापदण्ड निर्धारित की जानी चाहिए ताकि कभी भी और कंही भी अपने व्यक्तिगत हित खातिर अपने पद का दुरुप्योग न कर पाये।

देश आज भी आज़ादी के ६५ बर्ष बाद पूर्णतः आजाद नहीं हो पाये इसका मुख्य कारण है कि हमारे यंहा जन प्रतिनिधि को सिर्फ जनता को मुर्ख बना कर सत्ता हाशिल करने का स्पर्धा में लगे रहना,  काश इसीलिए चुटकी भर जनप्रतिनिधियों को छोड़ दें तो बाकियों में देश के प्रति समपर्ण कभी भी नहीं देखा गया नतीजा आज हमारे सामने है कि हमारे देश संप्रभुता स्वालम्बी होने वाबजूद वह उपलब्धि नहीं हाशिल कर पाई जो कई अन्य देश ने हाशिल कर पाये। चीन को ही देखिये आज कहाँ है यद्दीप इन दिनों बुरे दौर से गुजर रहे है फिर भी हमसे २० साल आगे है।  जिस देश केजनप्रतिनिधियों  में से ज्यादात्तरजनप्रतिनिधि भ्रष्टचार और अनिमियता के मामलों में दोषी ठहराए जा चुके है व इसके सन्दर्भ में उनके खिलाफ मामले की सुनवाई चल रही उन्ही के हाथो में हमारी तकदीर और तस्वीर है ऐसे लोगों से सकारात्मक प्रतिक्रिया उम्मीद करना हरगिज़ मुनासिब नहीं है।  जिन्होंने अपने हिट के लिए क्या-क्या नहीं किया , पहले तो अमीरी और गरीबी की दीवार खींच दिए फिर भी बात नहीं बनी तो जात -पात के आधार पर बाँटने लगे  परिणामस्वरूप हम तो बँट गए, कमजोर हो गए पर इनसे फायदा किसको मिला हमारे जनप्रतिनिधि को जो हमें कई भाग में बाँट कर खुदको इतना मजबूत कर लिए शायद उन्हें रोकना अब  संभव नहीं है।
वास्तविक में आज के परिस्थिति में जनता को जितना मिल जाता उसी में खुश रहने की कोशिश करती है जबकि जनता के हाथ में सिर्फ लोली पॉप थमाने का काम करते है जिनसे हक़ीक़त में कुछ होना ही नहीं है।  हाल में दिल्ली सरकार ने पानी और बिजली के बिल में रियायत दी बदले में ईंधन के मूल्य में विक्रेता कर तहत भारी बढ़ोत्तरी कर दिए नतीजा एक तरफ से थोड़ा बहुत मिला  दूसरे तरफ अत्यधिक ले लिया  गया मसलन किसी भी हाल में जनता का जेब ढीली करी जाएगी ।  इस तरह के परिदृश्य में जनता, जनप्रतिनिधि से कुछ अपेक्षा अथवा आंकक्षा रखना ही जायज़ कभी भी नहीं माना जा सकता। लोगो को भी चाहिए कि अपनी समझदारी दिखाए किसी भी प्रतिनिधि को चुनने से पहले जाँचे -परखे फिर उनके दावेदारी के ऊपर मुहर लगाये अन्यथा बिना समझदारी के कर्मनिष्ठ और तटस्थ प्रतिनिधि  का कल्पना करना कदाचित उचित नहीं है।

अँधा गाँव में कान्हा राजा अर्थात जब जनता खुद अँधा हो जायेंगे तो कान्हा जो थोड़ा बहुत देखते है वही आपके ऊपर राज्य करेंगे व आपके जनप्रतिनिधि कहलाएँगे इसीलिए आप अँधा होने के बजाय अपने आँख खोलिए और अपने बीच से ऐसे जनप्रतिनिधि को आगे कीजिये  जिनमे वाकये आपके प्रनिधित्व करने की काबलियत हो जबकि उनकी ईमानदारी का मापदंड सर्वोपरि हो। जिस कदर एक सरे आम पूरी टोकड़ी के आम को सराने का काम करता है उसी प्रकार एक बईमान जनप्रतिनिधि पुरे व्यवस्था को भ्रष्ट करने के लिए काफी है। जब तक प्रदूषित व्यक्ति को हम चुनकर भेजते रहेंगे तब तक स्वच्छ वातावरण व व्यवस्था का उम्मीद करना अशोभनीय  होगी।  सही मायने लोकतंत्र का दबदबा तब कायम होगें जब लोकशाही की बरियता दी जाएगी इसके लिए हम सभी को आगे आकर अपना अधिकार जताना होगा अन्यथा हम आँख मूंदकर बैठे रहेंगे और ये मुट्ठी  भर लोग हमारे अधिकार का मर्दन करके हमारी असमत के साथ खेलते रहेंगे।  जरा सोचिये मुट्ठी भर ही अंग्रेज थे जिन्होने हमें बर्षो तक गुलामी की बेरियों में जकड़े रखा और आज मुट्ठी भर हमारे बीच का ही लोग  है जो हमें विकाशशील से विकशित नहीं हो देना चाहते है इसके पीछे उनका मनसा सिर्फ एक है कि कही हम जागरूक न हो जाये जिससे उनके मनमानी रोक रुक जाएगी। जरा सोचिये फिर आत्मचिंतन कीजिये …………………… !!



बदलते हुए  कई चहरे को आइना में देखा शरमाते हुए क्यूंकि खुद से वे नहीं नज़र मिला पाते
पर एक शख्श ऐसे भी है जो कभी नहीं शरमाते क्यूंकि आइना ही उन्हें देखकर शरमा जाते
इसीलिए तो गिड़गित ने छोड़ दिए अपने परम्परा जबसे नेता ने इसकेलिए मजबूर हुए,
जिनके खिलाफ थे उन्ही के साथ हुए, क्या केजरीवाल इसी  कारन से इतने महसूर हुए ?



क्या राजनीती में सबकुछ जायज़ है ?


इतिहास ने कभी भी अवसरवादी और खुदगर्ज विचारधारा को ना ही जगह दिया और ना ही तहजीब दिया शायद इसका आभास केजरीवाल हुए हो अथवा नहीं पर अन्ना तो अवश्य ही आत्मघात हुए होंगे और खुदसे नज़र भी नहीं मिला पा रहें होंगे क्यूंकि वे अन्ना ही है जिनके जन लोकपाल आंदोलन  के जरिये राजनितिक जमीं तैयार कर और उनसे वैचारिक और सैद्धांतिक समर्थन पा कर दिल्ली के मुख्यमंत्री के गद्दी तक फासला तय करके फिलहाल दिल्ली मुख्यमंत्री बने हुए है, यह सब केजरीवाल के लिए सिर्फ मौकापरस्ती हो सकती है व एक सोंची समझी रणनीति हो सकती है पर अन्ना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी वह उनके सैद्धांतिक वैचारिक लड़ाई थी क्यूंकि उन्होंने सदैव भ्रष्टाचार से घृणा करते रहे है।  अब देखना है कि उनके सबसे प्रिय और यशश्वी शिष्य भ्रष्टाचार को गले लगाकर खुदको उस जमात में शामिल कर लिए है जिनमें भ्रष्टाचार के बड़े -बड़े दिग्गज पहले से ही मौजूद है और वही सभी शियाशी दल है जिनके नेता किसी ना किसी तरह से भ्रष्टाचार के मामलें में लिप्त पाये गए है व इस कारन से सजायाप्त है एक साथ मंच साझा किये जिनके विरुद्ध अन्ना का मुहीम जारी है, केजरीवाल के इस परिवर्तन को लेकर अन्ना का क्या प्रतिक्रिया होता है?

हालाँकि एक बात तो श्पष्ट हो गयी है कि केजरीवाल बेशक अपनी लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया हो पर अब भ्रष्टाचारियों से थोड़ी  भी परहेज़ नहीं है इसीलिए तो लालू,  राहुल, पवार के साथ मंच साझा करते दिखे गए है , ऐसे में अन्ना केजरीवाल को अपने वैचारिक समर्थन जारी रखेंगे या उनके विरुद्ध भी खड़े हो कर अपने भ्रष्टाचार की लड़ाई को फिर से देशव्यापी आंदोलन का शंखनाद करेंगे क्यूंकि केजरीवाल का भ्रष्टाचारियों के साथ आना महज एक संयोग नहीं ब्लिक उनके एक रणनीति का हिस्सा है इस कारन से उनके मंशा के ऊपर कई सवाल खड़े होते है। 


वास्तविक में केजरीवाल मंच साझा करने वाबजूद भ्रष्टाचार में सजायाप्त लालू प्रशाद यादव के साथ जिस तरह गले मिल रहे थे और लालू के समर्थक का अभिवादन कर रहे थे इस से बच सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया मतलब आने वाले दिन में लालू के महागठबंधन में शामिल होने का अटकल लगायी जा सकती क्यूंकि केजरीवाल को भलीभांति ज्ञात है कि दिल्ली के चुनाव में बिहारी वोट बैंक बहुत बड़ा भूमिका है।  तकरीबन ४०%, जिसे हाशिल करने  लिए नितीश और लालू जैसे नेता का समर्थन अहम हो सकते है इसी कारन से नजदीकियां बनाने में लगे हुए।

अब प्रश्न यह उठता है कि केजरीवाल के लिए भ्रष्टाचार कोई सैंद्धातिक मुद्दा नहीं था, ये सिर्फ ढोंग था  फिरभी  अन्ना के साथ जो जनलोकपाल आंदोलन चलाये थे वह सिर्फ सत्ताधारी दल के खिलाफ शियाशी साजिश थी जिसके बुनियाद पर अपने  महत्वाकांक्षा को पूरा करना था और जैसे ही महत्वाकांक्षा पूरा हुए उससे पला झाड़ भविष्य के मद्दे नजर नयी रणनीति को तैयार करने में लग गए, इसी कारन से अब भ्रष्टाचारियों के साथ आने में थोड़ी भी हिचक नहीं है । 

प्रश्न यह भी उठता है कि केजरीवाल की लड़ाई में उनके प्रतिद्वंदी सिर्फ एक ही दल है भाजपा क्यूंकि दिल्ली के शियाशी जमीं पर उन्ही से मुकाबला होना है इसके लिए उन्हें किसी भी दल और उनके प्रतिनिधि से किसी भी प्रकार का परहेज़ नहीं है चाहे वे भ्रष्ट क्यूँ ना हो। 

दिल्ली के लोग उनसे बड़े बदलाव का कोई अपेक्षा कभी भी नहीं किये थे ब्लिक लोग उन्हें एक ईमानदार और भ्रष्टचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाला एक प्रतिनिधि के रूप में देखते थे पर जब इस तरह का बदलाव भ्रष्टचार के प्रति उनमें देखकर, लोग खुदको ठगा महसूस करते होंगे। शायद ही केजरीवाल अपने अंदर के परिवर्तन से आश्चर्यचकित हुए होंगे पर दिल्ली के जनता अचम्भित है इस परिवर्तन को  देखकर और फिलहाल असहज होंगे जो कि भविष्य के चुनाव में अपना असर दिखाएँगे। 

फिलहाल लालू यादव खुदको पवित्र माने क्यूंकि केजरीवाल अपने गले लगाकर उन्हें ईमानदारी  ख्याति   दिया है क्यूंकि राजनीती के गंगा तो केजरीवाल खुदको ही मानते है बांकी तो सब मैले है, हालाँकि देश के जनता केजरीवाल को कितने पवित्र मानती यह कहना बहुत जटिल है।  इस परिदृश्य में वाकये ही संभव नहीं जब केजरीवाल उन्ही के बींच में है जिनके प्रायः अधिकतर  दल के  प्रतिनिधि  भ्रष्ट है जैसा वही कहते  थे और यही कह -कह कर दिल्ली  सत्ता तक पहुंचे ।

 दरअसल में राजनीती के गलियारों में जो परिपाटी बरसो से आ रही है उसी परिपाटी को केजरीवाल ने भी जीवित रखा है उनसे हटकर उन्होंने कुछ भी नया नहीं किया फिर भी खुदको अलग कैसे कह सकते है ? यद्दिप लोगों का उनके प्रति इस तरह का बदलाव होने के कारन अचम्भित होना स्वाभाविक है क्यूंकि आप जिनसे कुछ भिन्नता  आकांक्षा रखते है पर उसके अनुरूप वे नहीं देखँते है इस प्रकार का वाक्य आप को  विचलित कर देंते है और विचलित होना अस्वाभाविक नहीं है पर इसको स्वीकार करना ही पड़ेगा आखिकार यही तो राजनीती परंपरा है जो कि लोंगों को सिर्फ एक वोट बैंक के नज़र से देखना सिखातें है इसीलिए लोगों के भावना के प्रति राजनीती कदरदानों में तनिक भी जवाबदेही न ही दिखता और न ही कोई गलानी होती है, है ना !!!


सोमवार, 9 नवंबर 2015


 शाह के नीती, चाणक्य के जमीन पर गौण हुआ ?



बिहार चुनाव में जिस कदर सवर्ण ने नितीश कुमार के समर्थन में वोट दिया है इससे यह तो स्पष्ट होता है कि अब जनता जाति से ऊपर उठकर विकास परस्त सरकार को चुनती है। हालाँकि  बिहार के अधिंकाश लोग के मन में  डर था कि लालू के साथ नितीश है जिस कारन से विकासशील सरकार देना नितीश के लिए आसान नहीं होगा फिर भी नीतीश के दस साल के काम -काज को आंकलन करके उसी के आधार पर अपने मन के डर  को किनारे कर नीतीश के ऊपर  विश्वास बरकरार रखा।  हालाँकि नीतीश को अब बिहार के लोगों के आंकाक्षा पूरा करना इतना सहज भी नहीं होनेवाला है क्यूंकि लालू इनके इस नेक काम में अब तक सहयोगी का  भूमिका निभाते है यह कहा नहीं जा सकता है। वास्तव में लालू को विकास प्रेमियों के साथ नहीं भाता ऐसे में दोनों के बीच वैचारिक अशंतुलन होना स्वाभाविक है जिस कारण सरकार की भविष्य अधर में ही रहेगी कारणस्वरूप यह कोई वैचारिक गठबंधन की सरकार नहीं बनने वाली है ब्लिक यह एक मजबूरी का गठबंधन है जो कभी भी और कंही भी टूट सकता है बहरहाल इस गठबंधन के भविष्य को लेकर सदैव संशय का   वातावरण बनी रहेगी।

अगर इस चुनाव में सबसे बड़ी हार किसी को  हुआ तो वह मोदी , अमित शाह और मोदी सरकार में बैठे नीतिकारों का ही हुआ है क्यूंकि नीतीश हारता, लालू  हारता तो देश के जनता के लिए शायद ही अपेक्षा से परे होते पर इस हार से मोदी सरकार की पूरी जड़ हिलनेवाले है क्यूंकि मोदी और अमित शाह के जोड़ी ने कई हिट फिल्म देने के बाद इस तरह के लगातार दूसरी फ्लॉप्स फिल्म दिया है कि इनके शाख और काबलियत के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगना तय है। भाजपा के अध्यक्ष  के तौर पर अमित शाह का परफॉरमेंस में वो बात नहीं रही  जिसके लिए वे जाने जाते रहे है  दरअसल में इनके नजर में कार्यकर्त्ता का कोई पूछ नहीं है यह सिर्फ एक बैशाखी है जिसका इस्तमाल सिर्फ चुनाव जीतने के लिए किया करते है और फिर बिसार देंते है नतीजा जो जोश भाजपा के कार्यकर्ता को लोकसभा के चुनाव के दौरान देखने को मिलता था अब ऐसा तनिक भी नहीं मिलता है।  एक तरफ अमित शाह को बुद्धजीवियों व पार्टी के बरिष्ठ  नेताओं ने चाणक्य  की संज्ञा दिए जा रहे है , दूसरी तरफ अमित शाह जमीन से जुड़े कार्यकर्ता  से कट रहे है नतीजा दिल्ली के चुनाव और फिर बिहार के चुनाव में करारी हार मिलना।  यद्दिप मोदी सरकार चाहते तो फिर भी इस खाई को भरी जा सकती थी परन्तु केंद्र सरकार के मंत्री ने मंहगाई को लेकर जिस कदर आँख मुंड लिए थे इस कारन भी जनता में आक्रोश है  इसका और भी प्रतिक्रिया देखनो को मिल रहे है और आगे भी देखने को मिल सकते है  ।


देश के जनता सरकार से हताश है और सरकार यदि यथाशीघ्र कई उपयुक्त और सकारात्मक कदम नहीं उठाती  है तो आगमी पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव में अनुकूल परिणाम मिलने का भी आसार नहीं है  क्यूंकि जनता के जहन में अब धीरे -धीरे यह बात घर बना रही है कि सभी दल का एक ही लक्ष्य है सत्ता हथियाना और एक बार सत्ता मिल जाता है फिर सबका व्यवहार एक जैसा ही हो जाता है मसलन कांग्रेस , भाजपा और आप, सबके काम करने की तोर -तरीके एक जैसे ही है। अब मोदी सरकार को जनता के जहन से इस बात को घर बनाने से पहले निकालने होंगे अन्यथा भविष्य में एक  भी चुनाव जीतना मुमकिन नहीं होने वाला है इसके लिए चुनाव के दौरान जो अच्छे दिन का जो नारा लगाये गए थे उसे बिनाविलम्ब अम्ल में लिए जाना चाहिए क्यूंकि समय बहुत ही कम है और काम बहुत ज्यादा किया जाना है।

सरकार को असहिष्णुता के प्रति गंभीर होने की जरुरत है यदि यह अफवाह है तो इसे उजागर किया जाना चाहिए यदि इसके पीछे कोई साज़िश है तो इसका भी पता लगाना चाहिए कारणस्वरूप सरकार के विरोधी ने इस तरह का परिवेश भी बनाने में कामयाब रहे है जिसका फायदा उन्हें बिहार के चुनाव में मिला, नतीजन हर गली नुक्कड़ में असहिष्णुता को लेकर बहश छिड़ी हुई है जबकि वास्तविक में लोगों के लिए शायद ही गंभीर मसला है सिर्फ मिडिया और उन्ही के इर्द -गिर्द नाचने वालों के सोंच के उपज है जिसे परिपक्ता से रोकना अत्यंत  आवश्यक है। अन्तोगत्वा बिहार का चुनाव मोदी सरकार के लिए सबक साबित होनेवाला जो इन्हे आगे की राजनीती को दिशा- दशा  देनें में अहम साबित होनीवाली है यद्दिप इस सबक को सकारात्मक दृष्टि में लेकर भविष्य की रोडमैप  सुनिश्चित करे।

















रविवार, 20 सितंबर 2015




 बिहार चुनाव में ये बेगाने कौन ?


बिहार में शिवशेना और ओबैशी चुनाव लड़ेंगे आखिर चुनाव के जरिये क्या टोटलने का प्रयास में लगे है दोनों पार्टी  या इनके मकसद चुनाव जीतनका नहीं बल्कि कुछ और ही है ? क्या चुनाव के जरिये ओबैशी आगामी उत्तर प्रदेश के चुनाव के रणनीति  को जोरकर तो नहीं देख रहे है क्यूंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम की जनसँख्या लगभग में १ ५-१७  प्रतिशत है जिसमें से ज्यादात्तर लोग ओबैशी को अपने रोल मॉडल मानते है ऐसे ही लोगो के झुकाव को देखते हुए ओबैशी उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव लड़ने की जुर्रत करेंगे अन्यथा इन्होने बिहार और उत्तर प्रदेश के मुस्लिम भाइयों के लिए अभि तक कुछ  भी नहीं किया और जँहातक इनसे कुछ उम्मीद करना भी मुनासिब नहीं होगा क्यूंकि इनके फिदरत में कुछ करने की चाह है ही नहीं, वे सिर्फ अलगाववादी राजनीती के हिमायती है, जो धर्म और महजब के नाम पर जहर उगलते है और इस जहर को लोगो के बीच परोसकर अपना उल्लू सीधा करते है।

दूसरी तरफ शिवशेना भी बिहार के चुनाव  के लिए कमर कस ली है  यद्दपि जीतने के लिए तो कतई नहीं पर अन्य पार्टी की चुनावी समीकरण को तहश -नहश करने लिए हो सकता कुछ सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारे  जो कि  भाजपा और उनके गठबंधन के अंकगणित बिगाड़ सके।  वास्तविक में राजनीती में शर्म और हया के लिए कोई जगह नहीं होता है एक तरफ शिवशेना मुंबई में प्रवाशी बिहारी को नीचे दिखाने व पीटने का कोई मौका नहीं छोड़ते वहीँ बिहार चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारने के लिए काफी अग्रसर है आखिर किस भोरषे, क्या बिहार के मतदान में मराठी मानुष वोट गिराने के लिए तो नहीं आने वाले है?  अनुमानतः  भाजपा के साथ कटुता रही है इसी खातिर जो थोड़ा बहुत परेशान कर सकते उसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते है शायद इससे बेहत्तर मौका फिलहाल मिलने है भी नहीं फिर क्यों छोड़ें ? हालाँकि शिवशेना यंहा जीतने के लिए  कदचित्त चुनाव नहीं लड़ेंगे यद्दपि भाजपा का एक दो प्रतिशत भी वोट काट काफी आघात पहुँचा सकते है और   महाराष्ट्र के चुनाव में भाजपा ने जो रणनीति अपनाई थी  उसका खामियाज़ा किस हद भाजपा से वसूल की जाती है इस बिहार के चुनाव में और ये भी सहज नहीं होगा कि इसकी  भरपाई कँहा और कैसे कर पायेगी ?  अब देखना यह भी है कि बिहारियों  के बीच में शिवशेना क्या छवि है, और कितने सीट पर  शिवसेना ज़मानत बचा पाती है क्यूंकि बिहारियों को भी ठाकरे बंधू के खिलाफ खीश है और हो सकता वे भी इसी चुनाव के माध्यम से बदला लेने में सफल हो जाये और ठाकरे बंधू को सबक सिखा पाये।

बरहहाल बिहार के चुनाव में कितने दोस्त दुश्मन बन जायेंगे और कितने दुश्मन दोस्त बन जायेंगे फिलहाल इनका अंदाजा लगाना आसान नहीं पर जो भी हो बिहार के चुनाव से पुरे भारत की राजनीति की तस्वीर और तक़दीर बदलने वाली है।  हाल में ही जनता परिवार महा गठबंधन में से सपा अलग हो गयी जो इस गठबंधन के लिए बहुत बड़ा झटका है अब इनसे जनता परिवार को कितना नुकशान होगा यह चुनाव के बाद ही निश्चित होगा पर इस बिखराव से महागठबंधन के विस्वनीयता के ऊपर ग्रहण तो लग ही गए।  अंतोगत्वा बिहार का चुनाव कई मायने से दिलचस्प होने वाले है अब देखना है कि  एक बिहारी सब पर कितना भारी है?