शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

"काश एक मोदी हमें मिलता!"


यदि राजनीती गलियारो में किसी भी शख्श की चर्चा जोरो पर हैं तो वह हैं मोदी वाकये इन दिनों अगर मोदी के सितारें बुलंदी पर है अगर ये कोई कंपनी होती तो इनके शेयर कोल इंडिया हो अथवा कोई भी नवरत्न कंपनी के मुक़ाबले चार गुनी होती। राजनीती पृष्ठ भूमि पर चमत्कार तो कई बार देखे गए है पर इस बार का चमत्कार अपने आप में अन्य चमत्कारों से कई मामलो में भिन्न हैं क्यूंकि चमत्कार सिर्फ और सिर्फ एक ही शख्श के इर्द -गिर्द सिमटी है जबकि राजनीती के गलियारों में मोहरे से लेकर राजा तक अपनी वजूद को न ही ढूँढ पा रहे है और न ही समझ पा रहे है आखिर हो क्या रहा है? कोई तो ये कहता है कि बक्वास है, कोई कहता है कि इस तरह का अफवाह फैलायी जा रही है, जो प्रायोजित है, इसलिए तो देश के सभी पार्टी और तमाम नेता एक शख्शियत के सामने बोने साबित हो रहे है नतीजन देश के अधाधिक पार्टीयाँ अपनी सिद्धांत और अपने विचारधारा को तिलाँजलि देकर एक चक्रव्यूह बनाने के प्रयन्त कर रहे है अन्यथा वामदलों के साथ एक मंच पर त्रिमूल कांग्रेस को दिखने का आसार किसी भी विषम परिस्थिति में कतई मुनासिब नहीं है फिर भी जो चहल पहल वर्त्तमान परिवेश में देखे जा रहे है इनसे तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि फिलहाल किसी को भी किसी से परहेज़ नहीं है  ब्लिक किसी तरह से मोदी को रोकना है। फलस्वरूप समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज वादी भी एक ही खेमे में नज़र आ सकते हैं यदि सबकुछ अनुकूल रहा तो AIADMK और DMK भी एक ही गठबंधन के सूत्रधार होंगे। आखिर इस तरह के कवायद का क्या मतलब है?  जँहा सत्तारूढ़  पार्टी  लाखो यत्न व प्रयत्न  के वाबजूद अपनी अंकगणित को मजबूत नहीं कर कर पा रही है, हालाँकि प्रचार - प्रशार जोर- शोर से तो किये जा रहे पर अभी तक का सर्वे से तो यही दीखता हैं बेशक़ कुछ भी करले पर ज्यादा फायदा होना मुमकिन नहीं है। दरशल में आगामी चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के परिणाम के मद्दे नज़र जँहा कुछ पार्टियाँ गठबंधन के नए विकल्प को तालाश रहे है वही कुछ पार्टियाँ सहूलियत के आभाव में सुगबुहाट से तो परहेज़ कर रहे है पर बीच -बीच में सत्तारूढ़ पार्टी को आईना से रुबरु करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ पार्टी कुछ इस तरह के फैसला करे जो जनता के हित से जुड़े हो और इसके बलबुत्ते आगामी आम चुनाव में अपनी साख को बचा पाये।

तीसरे मोर्चा हो व वर्त्तमान के सत्तारूढ़ मोर्चा हो पर किसी की भी समीकरण सटीक बैठने का गुंजाइश के आभाव में ये बात जरुर जहन में आती होगी कि मुझे भी एक और मोदी मिलता जो इस मोदी को टक्कर देता। आखिर  ऐसा क्या मोदी ने कर दिया कि पुरे देश में इनके लोकप्रियता का ग्राफ दिन-ब-दिन शिखर पर चढ़ रहे है?  न मोदी ने कुछ इस तरह का उत्कृष्ट काम ही कर दिया जो औरो के सामर्थ्य के बाहर हो और न ही मोदी की शख्शियत औरों के शख्शियत से मेल नहीं खाते हो। यदि मोदी को दूसरे से अव्वल श्रेणी में रखते हैं तो इस श्रेय के लिए अगर उनके शख्शियत में कुछ औरो से अतिरिक्त है तो मुख्यतः दो बातें जो आज के दौड़ के किसी भी नेता में प्रायः नहीं दिख रहे है वे हैं एक तो कठोर निर्यण लेने की  दमखम  व इच्छाशक्ति और दूसरा देश के प्रति समर्पण यही अहम् और महत्वपूर्ण कारण है कि उनके खुदकी जरुरत औरो के मुक़ाबले थोड़ी-सी है जितना कि एक आम आदमी का होता है अन्यथा इनदिनों नेताजी पहले तो सुख -सुविधाओं से परहेज़ रखते हैं और खुदको आम कहते पर जैसे ही चुनाव जीत जाते हैं खाश बनने में थोड़ी भी देर नहीं लगाते और एक - एक करके वे सभी सुविधाओं को अपनाने लगते है जिनसे चुनावपूर्व परहेज रखने की बात किये करते थे।


इसलिए तो सभी नेताऒ खुदको  को आम आदमी का शुभ चिंतक तो जरुर कह सकते है पर वास्तविक में वे आम आदमी कभी नहीं हो सकते क्यूंकि आम आदमी की जिंदगी कभी जीकर नहीं आये ब्लिक सुनकर या पढ़कर आम आदमी  के बारे में व जानने और कहने मात्र से कोई आम आदमी का हितेषी नहीं हो सकता  इसके लिए आम आदमी के बीच में रहकर उनके रोजमर्रा के तकलीफ को समझाना होगा। यदि मोदी के अतीत को खंगाले तो शायद इनसे आम नेता आज बहुत ही कम होंगे जो मोदी के पक्ष को और पुख्ता करता हैं क्यूंकि इनदिनों आम आदमी का मुद्दा सबसे ऊपर है। वही किसी दल के पास मोदी जैसे कठोर निर्यण लेने का इच्छा शक्ति रखने वाले नेता की भी कमी है।

एक तबके के लोग केजरीवाल को पसंद करते हैं पर उनके निर्यण लेने की क्षमता पर असंका बरकरार हैं वेसे भी दिल्ली के सरकार से इस्तीफा देने के बाद तो लोगों में उनके प्रति जो पहले के रूझान थे और हाल के रुझान  के बीच अचानक गहरी खाई  मापी जा सकती है जबकि दिल्ली के जनता  इनसे इत्तेफ़ाक़ रखते हो या नहीं रखते हो पर पुरे देश में २-४ प्रतिशत लोग ही केजरीवाल को प्रधानमंत्री के रूप देखना चाहते हैं जबकि ज्यादातर लोगो इनके काम काज के तरीके से हैरत में है।

राहुल गांधी को यदि विकल्प के रूप में देखे तो शायद उनके अंदर भी कठोर निर्यण लेने की इच्छा शक्ति का आभाव होना,  जबकि भ्रष्टाचार जैसे गम्भीर मुद्दे पर कानी कातना और हामी तब भरना जब लोक इनके कारण सरकार और व्यवस्था से पूरी तरह से त्रस्त होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल रहे थे।  वाबजूद इन बातों से वह पूर्णतः अवगत थे कि तक़रीबन आधी से ज्यादा मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त है पर कारवाई के नाम पर कुछ नहीं उन्होंने तब लोकपाल कानून को मंजूरी के लिए अग्रसर दिखे जब सरकार के कुछ ही दिन बचे थे नतीजन संसदमें तो लोकपाल बिल पारित होने के उपरांत भी अभी तक कानून का रूप अख्तियार नहीं हो पाया। हालाँकि आम चुनाव के जो सूचि जारी किये गए उस सूचि में  इस तरह के उम्मीदवार को टिकट देने के हक़ में है जिन्होंने पहले ही भ्रष्टाचार में संलिप्ता के कारण पार्टी को शर्मसार कर चुके है और सरकार को भ्रष्टाचारी सरकार कि ख्याति दिल चुके है, यही वजह है कि उनके भ्रष्टाचार के प्रति जो भी सोंच हो पर आवाम उससे परे है।

यदि तीसरे मोर्चा को विकल्प मान कर जीता भी दे तो शायद सरकार तो बना लेंगे फिर भी सरकार की दीर्घायु का कोई गारंटी नहीं दे सकता क्यूंकि जितनी सरलता से तीसरे मोर्चा का गठन चुनाव से पहले होते आए है उतने ही जल्दी चुनाव बाद विखराव भी देखे गए है। अन्तः चुनाव के पश्चात भी साफ़ नहीं हो पाता है कि प्रधानमंत्री के वास्तविक उम्मीदवार कौन है ? दरशल में चुनाव के नतीजा आने के बाद पार्टी के संसद के संख्या के आधार पर प्रधानमंत्री के लिए नाम तय किये जाते हैं ऐसी परस्थिति में सक्षम प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को आगे बढ़ाना असम्भव हैं जो कि दीर्घायु सरकार कभी देने में कामयाब हुए है और कामयाब होने कोई उम्मीद भी नहीं किया जा सकता है। आखिरकार गठबंधन के अन्दुरुनी कलह के चलते साल -दो साल में सरकार गिरनी तय है जो किसी भी लोकतंत्र राष्ट  के लिए प्रतिकूल है।

 बरहाल जो जन सैलाव मोदी के रैलियों में देखे जा रहे है इनसे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में चारों तरफ मोदीमय है। यद्दिप यह देखना है कि जो जन सैलाव रैलियों में देखे जा रहे है वे वोट में तब्दील हो पाते है अथवा नहीं ये आम चुनाव के परिणाम के बाद ही साफ़ हो पायेगा,  जो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है पर मोदी के लिए भी चुनौती कम नहीं है जँहा एक तरफ अपने ही पार्टी के  आतंरिक कलह से निजात पाना है, वही दूसरी तरफ विरोधी सियाशी दल द्वारा जिस तरह का चक्रव्यूह बनाने के फ़िराक़ में हैं उसे भी भेदना काफी असहज है जिसे सुगमता से भेदा नहीं जा सकता है। मोदी को सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा देना अभी बाकि है जिसके लिए अत्यंत ही धीर और वीर का परिचय देना होगा और जिनसे खुदबखुद ये साबित हो जायेगा कि मोदी अर्जुन है या अभिमन्यु जो अपने विरोधी द्वारा बनाये जा रहे चक्रव्यूह को आसानी से तोड़ दिए हैं अथवा चक्रव्यूह में उलझकर पस्त हो गए है। 

अन्तोगतवा  आज के राजनितिक परिदृश्य में देश के समक्ष मोदी को छोड़कर कोई अन्य विकल्प दीखता नहीं जो कि दीर्घायु सरकार के साथ प्रगतिशील सरकार के लिए प्रतिबद्ध हो। यही कारण है कि देश के सभी राजनीती के दल मोदी के कात में एक मोदी के ताक में हैं और उनके जहन में इनदिनों एक ही बात आती होगी "काश एक मोदी हमें मिलता!"



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें