सोमवार, 15 दिसंबर 2014



दिल्लीवाले माफ़ कर पाएंगे .........................?



 वैसे सभी पार्टी कुछ न कुछ नुश्खा अपनाते रहते है ताकि चंदा और वोट इकट्ठा करने में काम आये  लेकिन केजरीवाल का जो नुश्खा है वाकये में बेमिशाल है इसलिए तो अपनाकर जिस तरह इन दिनों डिनर और लंच पार्टी देने में व्यस्त है ये हैरतअंगेज कारनामा कहा जा सकता है। बेशक चुनाव-ए-दावत के माध्यम से चंदा तो इकट्ठा कर ही रहे है साथ में मीडिया का शुर्खिया मुप्त में बटोर  रहे है। इसे चंदा का फन्दा ही कह सकते है जिसके जरिये लोगो को उल्लू बनाकर खूब मोती रकम इकट्ठा किये जा रहे है।  जबकि दिल्ली के लोगो का मोह उनसे भंग हो गया इसी कारन से इस तरह के नुख्शा अपनाने पर आमादा होना पड़ा क्यूंकि जो मध्यमवर्गीय लोग तन मन , धन से आम आदमी को समर्थन कर रहे थे पर लोगो को जैसे ही ज्ञात हो गया कि इनके टोपी पर ही सिर्फ लिखा है आम आदमी अन्यथा इनके चरित्र और आचरण तो खाशमखस है ऐसे में अब इनको हमारी क्या जरुरत ? कारणस्वरुप जाहिर है पार्टी के प्रति जो स्थान लोग के दिल में था अब शायद कदाचित ही देखने को मिलें।

लोग का सोच वाकये में सटीक है क्यूंकि जो आदमी ३० हजार की थाली परोसने का दम  रखता है या जिनके साथ खाने के लिए कुछ खाश वर्ग के लोग तीस हजार तक चुकाने को तैयार है ऐसी परिस्थिति में इन लोगो को आम आदमी का संज्ञा देना तनिक भी मुनासिब नहीं है।  इसका तातपर्य है कि दिल्ली के ज्यादातर मध्यमवर्ग और गरीब जनता आम  आदमी पार्टी से बिमुख हो रहे है फिर केजरीवाल का चुनावी महा संग्राम में विजयी कौन बनायेगे क्यूंकि अपर क्लास तो पहले से ही इनको नाक्कार चुके है ऐसे में अपर मिडिल क्लास के ऊपर दारोमदार होंगे जो इनको दिल्ली के सत्ता पर काबिज करेंगे हालाँकि तादाद के आधार पर देखा जाय तो अथक प्रयास के उपरांत भी २ -४ सीट भी जीता दें उनका गनीमत होगा।

दरअसल में दिल्ली के जनता केजरीवाल के द्वारा दिए गए दुर्दशा को अभी तक बिसार नहीं सकें है और उनके द्वारा उठाये गए ऐसे अनेको कदम, जिसका हर्जाना दिल्ली के जनता पिछले एक साल से चूका रही है जिसके लिए शायद ही उन्हें माफ़ कर पायेगी। जो ख्याली पलाऊ उन्होंने गत चुनाव के दौरान पकाये थे खुद ही चुनाव के बाद उस पर रायता फैला कर भाग गए, नतीजा आज भी जनता भुगत रही है।  जो व्यक्ति विवेक और संवेदना से ज्यादा अहमियत अपनी आकांक्षाएं को देता है उनके पर आखिर जनता कैसे विस्वास करेगी।  जब चारो खाने चित्त हुए अन्य कोई विकल्प के आभाव में फिर से दिल्ली के तरफ रुख किये ऐसे में दिल्ली वासी क्यों उनको समर्थन करे। ऐसा भी हो सकता है कि फिरसे अचानक अहसास हो चले कि प्रधानमंत्री का प्रबल उम्मीदवार वही है इसके लिए बिना विलंब फिर दिल्ली से कँही और चला जाए तो फिर दिल्ली का क्या होगा ? क्या दिल्ली वालें इस तरह का  प्रतिकूल स्थिति के लिए पुनः तैयार है? हरगिज़ नहीं क्यूंकि  दिल्ली के ज्यादातर लोग  पढ़े लिखे और भद्र है जो व्यवस्था में आस्था रखते है और वे कतई नहीं चाहेंगे कि  किसी भी महत्वाकांक्षी के भेंट दिल्ली को चढ़ाये जाए।  जँहातक  लोक सभा चुनाव के बाद भारत के राजनीती का परदृश बिलकुल बदल गए है,  एक तरफ पुरे देश के छोटे -बड़े दल एक शख्श के इर्द -गिर्द सिमट कर रह गए  फिर बोन व असहज दिखाई दें रहे जबकि विपक्ष अपने वजूद को पुनसर्जित नहीं कर पा रहे है।  ऐसे में जंहाँ क्षेत्रीय पार्टी स्वंय को स्थापित करने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे है वही महागठबंधन की भी कवायद जोरो पर है हालाँकि अभी इसका सकारात्मक परिणाम का कयास लगाना अत्यधिक कठिन है क्यूंकि आज तक इस तरह का गठबंधन भारत के राजनीती को न कभी उपयुक्त दिशा और न हीं अनुकूल दशा दी है फिर भविष्य में कितना कारगर होगा यह अभी तय करना बेशक बेतुकी होगी।


 लोकतांत्रिक देश में लोकतान्त्रिक पार्टी अत्यधिक आवश्यक है फिर भी यदि पार्टी के अंदर ही उनके लोकतंत्र पर सवाल उठाये जा रहे हो फिर इस तरह के पार्टीयों के हाथ देश और प्रदेश का कमान कितना सुरक्षित है यह आत्मचिंतन का विषय है क्यूंकि एक लोकतंत्र देश में सदेव और सर्वत्र लोकतंत्र व्याप्त होना चाहिए इसके लिए सभी राजनितिक गणमान्य बांकुरों को सतत प्रयास करना चाहिए कि पहले अपने दल के अंदर फिर राजनीतिक परिवेश में लोकतंत्र को जीवित रखे। जिस तरह से आआप से एक - एक कर कई महारथी पहले तो पार्टी से खुदको अलग किये फिर पार्टी के अन्तरलोकतंत्र के ऊपर जो कटाक्ष व टिप्पणी किये इनसे साफ़ जाहिर है कि पार्टी के अंदर कुछ तो  है जिससे सबको राश नहीं आ रहा है अर्थात उसके लिए सर्वसम्मति नहीं रखते है।  जो पार्टी अपने चंद मुठ्ठी भर लोगो को खुश नहीं रख सकते है उसके लिए प्रदेश के आवाम को खुश रखना मुमकिन नहीं है।

 दिल्ली  प्रदेश के चुनाव शायद कुछ बढियां होने वाला है तो वह है कि इस बार कोई भी पार्टी झूठे वायदे करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे क्यूंकि दिल्ली वालें पिछले चुनाव से अगर कुछ सबक लिया तो वास्तव यही हो सकता है। आआप ने जाने कितने वायदे किये पर जब इस निभाने का वक्त आया तो बहाना  बना कर भाग गए जबकि अन्य पार्टी बेशक अनेकोअनेक वायदा करे पर निभाने का दम शायद ही किसी में हो अन्तः समस्या यथावत ही रहेंगी क्यूंकि पार्टी जब तक चुनाव नहीं जीतते तब तक उनके लिए जनता सर्वोपरि रहती है जैसे ही चुनाव जीत कर सत्ता पर काबिज़ होती है तो जनता से ज्यादा फिक्रमंद सत्ता और व्यवस्था के लिए हो जाते है क्यूंकि इनको हकीकत आहिस्ता -आहिस्ता समझ में आने लगती कि सत्ता है तो हम है और हमारे आस पास चकाचोंध और हमारी साख है वर्ना हमारे और आवाम में फर्क ही क्या  रह जायेगा ? अन्तः पहले सत्ता को और खुदको स्थापित कर सत्ता से चिपके रहने के लिए प्रयास और उस सोच को बल देती है फिर व्यवस्था को अपने अनुरूप बनाने के लिए अग्रसर दिखते है यद्दीप इन कामो के लिए अगर धन की जरुरत पड़ेगी इसके लिए जनता के जेबें ढीली करने लग जाती है अर्थात पार्टी जबतक सत्ताधारी न हो तब तक के लिए ही जनता की हितेषी बनी रहती है एक बार सत्ता क्या हाशिल किया फिर तो कँहा फुर्सत रह जाती है  जनता का सुध लें।


राजनीती धरातल वास्तव में इस तरह का धरातल है जँहा धरा का तो नामोनिशान नहीं परन्तु तल में सिर्फ दल -दल है, इसीलिए स्वालम्बी और संवेदनशील व्यक्ति वंहा पर बेहद असहज दिखते अन्तः कुछ तो खुदको एक कोने धर लेते है जबकि ज्यादातर सहज और सुगमता से उस माहौल  के अनुकूल अपने को ढाल लेते है।  नेता जो जन प्रतिनिधि होते हुए भी उस सम्मान को हाशिल नहीं कर पाते है जिसके लिए वह निरंतर प्रयासरत रहते है। जबसे दुनिया में लोकतंत्र का नींव रखी गयी है तबसे अनगिनित कदावर और दिग्गज नेता राजनीती के पृष्ठ भूमि पर अपनी शख्सियत का इतिहास लिखना चाहा पर इतिहास गिने चुने नेताओं को भुला नहीं  पाये व उनकी शख्सियत के सामने नतमस्तक हुए अन्यथा बाकियों के  शख्सियत को झुठला दिए। अब देखना यह है कि इतिहास भारत के मौजूदा नेताओं जो सब अपनी शख्शियत को स्थापित करने में लगे है और स्वर्ण अक्षर से अपनी शख्सियत लिखने में व्यस्त है, उन्हें याद रखते है या उनकी भी शख्सियत को झुठला देते है।


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