सोमवार, 23 नवंबर 2015



क्या राजनीती में सबकुछ जायज़ है ?


इतिहास ने कभी भी अवसरवादी और खुदगर्ज विचारधारा को ना ही जगह दिया और ना ही तहजीब दिया शायद इसका आभास केजरीवाल हुए हो अथवा नहीं पर अन्ना तो अवश्य ही आत्मघात हुए होंगे और खुदसे नज़र भी नहीं मिला पा रहें होंगे क्यूंकि वे अन्ना ही है जिनके जन लोकपाल आंदोलन  के जरिये राजनितिक जमीं तैयार कर और उनसे वैचारिक और सैद्धांतिक समर्थन पा कर दिल्ली के मुख्यमंत्री के गद्दी तक फासला तय करके फिलहाल दिल्ली मुख्यमंत्री बने हुए है, यह सब केजरीवाल के लिए सिर्फ मौकापरस्ती हो सकती है व एक सोंची समझी रणनीति हो सकती है पर अन्ना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी वह उनके सैद्धांतिक वैचारिक लड़ाई थी क्यूंकि उन्होंने सदैव भ्रष्टाचार से घृणा करते रहे है।  अब देखना है कि उनके सबसे प्रिय और यशश्वी शिष्य भ्रष्टाचार को गले लगाकर खुदको उस जमात में शामिल कर लिए है जिनमें भ्रष्टाचार के बड़े -बड़े दिग्गज पहले से ही मौजूद है और वही सभी शियाशी दल है जिनके नेता किसी ना किसी तरह से भ्रष्टाचार के मामलें में लिप्त पाये गए है व इस कारन से सजायाप्त है एक साथ मंच साझा किये जिनके विरुद्ध अन्ना का मुहीम जारी है, केजरीवाल के इस परिवर्तन को लेकर अन्ना का क्या प्रतिक्रिया होता है?

हालाँकि एक बात तो श्पष्ट हो गयी है कि केजरीवाल बेशक अपनी लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया हो पर अब भ्रष्टाचारियों से थोड़ी  भी परहेज़ नहीं है इसीलिए तो लालू,  राहुल, पवार के साथ मंच साझा करते दिखे गए है , ऐसे में अन्ना केजरीवाल को अपने वैचारिक समर्थन जारी रखेंगे या उनके विरुद्ध भी खड़े हो कर अपने भ्रष्टाचार की लड़ाई को फिर से देशव्यापी आंदोलन का शंखनाद करेंगे क्यूंकि केजरीवाल का भ्रष्टाचारियों के साथ आना महज एक संयोग नहीं ब्लिक उनके एक रणनीति का हिस्सा है इस कारन से उनके मंशा के ऊपर कई सवाल खड़े होते है। 


वास्तविक में केजरीवाल मंच साझा करने वाबजूद भ्रष्टाचार में सजायाप्त लालू प्रशाद यादव के साथ जिस तरह गले मिल रहे थे और लालू के समर्थक का अभिवादन कर रहे थे इस से बच सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया मतलब आने वाले दिन में लालू के महागठबंधन में शामिल होने का अटकल लगायी जा सकती क्यूंकि केजरीवाल को भलीभांति ज्ञात है कि दिल्ली के चुनाव में बिहारी वोट बैंक बहुत बड़ा भूमिका है।  तकरीबन ४०%, जिसे हाशिल करने  लिए नितीश और लालू जैसे नेता का समर्थन अहम हो सकते है इसी कारन से नजदीकियां बनाने में लगे हुए।

अब प्रश्न यह उठता है कि केजरीवाल के लिए भ्रष्टाचार कोई सैंद्धातिक मुद्दा नहीं था, ये सिर्फ ढोंग था  फिरभी  अन्ना के साथ जो जनलोकपाल आंदोलन चलाये थे वह सिर्फ सत्ताधारी दल के खिलाफ शियाशी साजिश थी जिसके बुनियाद पर अपने  महत्वाकांक्षा को पूरा करना था और जैसे ही महत्वाकांक्षा पूरा हुए उससे पला झाड़ भविष्य के मद्दे नजर नयी रणनीति को तैयार करने में लग गए, इसी कारन से अब भ्रष्टाचारियों के साथ आने में थोड़ी भी हिचक नहीं है । 

प्रश्न यह भी उठता है कि केजरीवाल की लड़ाई में उनके प्रतिद्वंदी सिर्फ एक ही दल है भाजपा क्यूंकि दिल्ली के शियाशी जमीं पर उन्ही से मुकाबला होना है इसके लिए उन्हें किसी भी दल और उनके प्रतिनिधि से किसी भी प्रकार का परहेज़ नहीं है चाहे वे भ्रष्ट क्यूँ ना हो। 

दिल्ली के लोग उनसे बड़े बदलाव का कोई अपेक्षा कभी भी नहीं किये थे ब्लिक लोग उन्हें एक ईमानदार और भ्रष्टचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाला एक प्रतिनिधि के रूप में देखते थे पर जब इस तरह का बदलाव भ्रष्टचार के प्रति उनमें देखकर, लोग खुदको ठगा महसूस करते होंगे। शायद ही केजरीवाल अपने अंदर के परिवर्तन से आश्चर्यचकित हुए होंगे पर दिल्ली के जनता अचम्भित है इस परिवर्तन को  देखकर और फिलहाल असहज होंगे जो कि भविष्य के चुनाव में अपना असर दिखाएँगे। 

फिलहाल लालू यादव खुदको पवित्र माने क्यूंकि केजरीवाल अपने गले लगाकर उन्हें ईमानदारी  ख्याति   दिया है क्यूंकि राजनीती के गंगा तो केजरीवाल खुदको ही मानते है बांकी तो सब मैले है, हालाँकि देश के जनता केजरीवाल को कितने पवित्र मानती यह कहना बहुत जटिल है।  इस परिदृश्य में वाकये ही संभव नहीं जब केजरीवाल उन्ही के बींच में है जिनके प्रायः अधिकतर  दल के  प्रतिनिधि  भ्रष्ट है जैसा वही कहते  थे और यही कह -कह कर दिल्ली  सत्ता तक पहुंचे ।

 दरअसल में राजनीती के गलियारों में जो परिपाटी बरसो से आ रही है उसी परिपाटी को केजरीवाल ने भी जीवित रखा है उनसे हटकर उन्होंने कुछ भी नया नहीं किया फिर भी खुदको अलग कैसे कह सकते है ? यद्दिप लोगों का उनके प्रति इस तरह का बदलाव होने के कारन अचम्भित होना स्वाभाविक है क्यूंकि आप जिनसे कुछ भिन्नता  आकांक्षा रखते है पर उसके अनुरूप वे नहीं देखँते है इस प्रकार का वाक्य आप को  विचलित कर देंते है और विचलित होना अस्वाभाविक नहीं है पर इसको स्वीकार करना ही पड़ेगा आखिकार यही तो राजनीती परंपरा है जो कि लोंगों को सिर्फ एक वोट बैंक के नज़र से देखना सिखातें है इसीलिए लोगों के भावना के प्रति राजनीती कदरदानों में तनिक भी जवाबदेही न ही दिखता और न ही कोई गलानी होती है, है ना !!!


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें