रविवार, 16 नवंबर 2014

 अच्छे दिन ऐसे ही आएंगे ( भाग -२  ) ?




हम अपने आलेख के इस भाग में प्रशाशनिक के कुव्यवस्था और उनके अपने जिम्मेवारी के प्रति उदासीनता के मद्दे नज़र चर्चा करेंगे।  नई  सरकार आने के बाद देश के बड़े ओहदे पर बैठे नौकर शाह के व्यवहार में बदलाव को लेकर काफी आस्वत  थे परन्तु कोई सकारात्मक परिणाम नहीं देखने को मिल रहा है क्यूंकि मोदी के प्रशाशनिक कुशलता को लेकर कसीदे पढ़े जाते है  मिशाल के तोर पर गुजरात प्रान्त के प्रशाशनिक कुशलता को टटोला जा सकता है लेकिन केंद्र में अभी इस तरह कारनामा देखने के लिए उत्सुक है देश के जनता। 
 लोकतंत्र  का प्रमुख तीन स्तंभ व आधार,  विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। हमने भाग एक में न्यायपालिका के खामिया के ऊपर संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत किया था हालाँकि उसके ऊपर लिखने के लिए बहुत कुछ होते हुए भी नहीं लिखा क्यूंकि आज भी यही स्तम्भ है जिनके ऊपर लोकतंत्र का दारोमदार है बाकि अन्य तो अपने उत्तरदायित्व से मुख फेर रहे है। सर्वोच्चय न्यायलय का जो भी हाल में लिए गए संज्ञान हो अथवा फैसला बहुत ही संतोष जनक रहा जो अन्यन्त ही प्रसंशीय और सराहनीये है फिर भी न्यायपालिका के नीचले स्तर पर ढेर सारे खामिया जिसे अतिशीघ्र दूर  करने की आवश्यकता है। 
कार्यपालिका जो हमारे लोकतंत्र के दूसरा और अहम स्तम्भ है जिनके ऊपर देश का पूरा व्यवस्था निर्भर करता है  लेकिन  इस स्तंभ में  कई प्रकार के त्रुटियाँ देखे जा सकते है जैसे कि भ्रष्टाचार का दीमक, चाप्लूशी और चाटुकारी का सिरहण और कर्त्तव्य बिमुखता का दरार।  नौकरशाह जिसके ऊपर सरकार का पूर्णतः नियंत्र है परन्तु उनके कार्यशैली को लेकर सरकार कभी भी  गंभीर नहीं दिखे और न ही उनके काम काज को दुरुष्त करने के लिए सार्थक प्रयास किये नतीजन १ प्रतिशत नौकरशाह को छोड़ दे तो सभी के सभी अपने जिम्मेवारी से या तो भाग रहे है इसके प्रति लचीला रुख अपनाये हुए है।  बीजेपी के शुभ चिंतक होने के नाते जरूर शपष्ट करना चाहूंगा कि संजीव चतुर्वेदी के खिलाफ जो भी केंद्र सरकार का  भूमिका देखने को मिला वह अति कष्ट पहुँचानेवाला रहा है क्यूंकि हीरा तो देश में बहुत है इस तरह के कोहिनूर हीरा न के बराबर ही है अतः सरकार को चाहिए कि इनके स्वरुप और अस्तित्व को जीवित रखे नहीं तो सरकार और देश दोनों को  इसकेलिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।  कार्यपालिका का जैसे ही बात करते है जहन में इनको लेकर घृणायुक्त  भरम हिचकोले लेना शुरू कर देते है इसका मुख्य वजह है इनके अभी तक कार्य प्रणाली और उनके पहल। 



कार्यपालिका किस तरह अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे है इसका इस आप बीती से बढ़कर शायद ही कोई दूसरा उदहारण होगा जिसका मैं खुदही भुगतभोगी हूँ अन्तोगत्वा आज भी नौकरशाहो के  असंवेदना और उदासीनता से प्रभावित होकर खिन्न हूँ ।  इन दिनों देश के ज्यादातर भागो में जिस कदर अवेद्द निर्माण जोरो पर है इसमें अधिकतर व्यसायिक स्वार्थ को साधने वाले  संगलगन है फिर भी इसे रोकने के लिए न ही सरकार और न ही प्रशाशन गंभीर है जहाँतक न्यायपालिका का भूमिका है वह भी इस मशले  को लेकर सजग  नहीं दिख रहे है यद्दिप सब कुछ जानते हुए भी अभी तक इनके ऊपर संज्ञान लेने से हिचकते है, कारन जो भी हो पर नतीजा बेहद चिंताजनक है। 

अवेद्द निर्माण को लेकर दिल्ली पुलिस, नगर निगम आयुक्त अथवा दिल्ली के उपराज्यपाल सबके यंहा शिकायत ईमेल के माध्यम से अथवा रजिस्ट्री के माध्यम से दर्ज करवाया गया।  एक महीना के उपरांत भी कोई ठोस करवाई होता नहीं देख और अवेद्द  निर्माण न रुकता देख दूरभाष के जरिये शिकायत के बारे जानकारी लेना शुरू किया हालाँकि कुछ अधिकारी इसको आगे जरूर किये थे पर इसको आगे करके भूल गए व निश्चिंत हो गए जबकि  संबधित विभाग इसके प्रति न कोई तत्परता दिखाये और न ही करवाई करते दिखे। जब एक महीना के उपरांत भी कोई सकारात्मक परिणाम आता न देख कर उपराज्यपाल के अधिकारियो से गुहार किये  गए अतिशीघ्र कदम उठाने के लिए। काफी आग्रह के बाद उपराज्यपाल के दफ्तर से उपायुक्त -नगर निगम  के दफ्तर से सम्पर्क किया और उन्हें फौरन करवाई करने को कहा फिर भी उपायुक्त (नगर निगम ) दफ्तर से कुछ होता न देख उपराज्यपाल के दफ्तर से पुनः सम्पर्क साधा गया और एक बार फिर उपराज्यपाल के दफ्तर ने उपायुक्त (नगर निगम ) को तुरंत करवाई के लिए कहा।  अन्तः उपायुक्त (नगर निगम) ने अपने जूनियर इंजीनियर को साइट निरीक्षण के लिए भेजा।  अचंभित करने वाली बात यह है जिसके निरक्षण के लिए हम लोग पुरेदिन बैठे रहे  और बार - बार राजनिवास से गुहार करते रहे पर वह आकर और अवेद्द निर्माणकर्ता से चुपके मुलाकात करके चले गए और इसका पता हमलोगो को तब चला जब वह साइट पर से जा चुके थे यह बात जब हमने उपायुक्त (नगर निगम ) को बताया और अपना संदेह प्रगट किया उनके कार्यशैली को लेकर तो उनके तरफ अस्वासन मिला कि वह अपडेट करेंगे जब वह सूचना देंगे पर काश हमलोंगो को वर्तमान स्थिति का जानकारी मिलता फिलहाल जो भी करवाई नगर निगम और सम्बंधित विभाग द्वारा हुआ है इसका मुख्य कारन है कि अभी तक किसी ने भी सुध नहीं लिया !

आलाधिकारी के यंहा जब आप शिकयत दर्ज करवाते है तो वह न आपको इसका जानकारी देंते है और न ही शिकायत के विरुद्ध जो भी कदम उठाते है उसे आप से साझा करते है इस तरह के व्यवस्था में पारदर्शिता का अपेक्षा करना कदापि संभव नहीं है और यह सिलसिला कई बर्षो से यथावत चलता आ रहा है।  वैसे भी कांग्रेस कभी भ्रष्टाचार के प्रति कठोर नहीं दिखे इसीका परिणाम था इनके ज्यादातर मंत्री व नेता इसमें संलिप्त  पाये गए।  बरहाल नई  सरकार से लोग बदलाव की अपेक्षा करते है जिन्हे पूरा किया जाना अभी भविष्य के गर्त में है, हालाँकि इसे निपटने के लिए प्रयाप्त समय की आवश्यकता है।  मोदी की रूचि  और व्यकित्व को देखते हुए लोगो को उनपर तनिक भी संदेह नहीं है कि इन सबको दुरुस्त करेंगे परन्तु उनके मंत्रिमंडल के बारे में पूछेंगे तो शायद जवाब इसके विपरीत ही होंगे। 
देश अनेको प्रकार के आतंरिक कलहो से झुंझ रहे है वह चाहे सामुदायिक रंजिश का हो अथवा अन्य अपराधिक मामला पर प्रशाशनिक भूमिका हमेशा सवालो के घेरे में रहे है यदि प्रान्त के आधार पर बात करे तो ज्यादा फर्क नहीं है सभी प्रान्त प्रायः इस तरह के समस्या से झुंझ रहे है।  इस कारन एक तरफ जँहा आपराधिक गतिविधि में संलिप्त लोगो को नैतिक समर्थन मिलता है वही आम आदमी इस तरह के तत्व से खुदको झुपते फिरते है कारन खौफ का मौहाल बना हुआ । 

 दरअसल में संदेह का गुंजाईश तब तक  कम नहीं होगा जब तक वितरण प्रबंधन और निगरानी तंत्र शशक्त नहीं होगा।  सरकार को चाहिए कि कार्य कौशलता के प्रशिक्षण के साथ नैतिक प्रशिक्षण भी मुहैया करवाये ताकि नौकरशाह ईमानदार और जवाबदेही हो सके। देश को प्रगति के पथ पर वाक़ये अव्वल लाना है तो पहले नौकरशाह यानि कार्यपालिका को दोषमुक्त करना होगा अन्यथा प्रगति सिर्फ दिग्भ्रमित करनेवाला होगा या क्षणभंगुर होगा जिसे दीघर्कालीन हरगिज़ नहीं कहा जा सकता है।  
वास्तविक में कार्यपालिका को जब तक स्वायत्ता के साथ जवाबदेही नहीं दी जाती तब तक इनसे अपेक्षाकृत परिणाम का परिकल्पना करना कतई मुनासिब नहीं। हालाँकि इनके कामकाज के निगरानी रखने के लिए जागरूक विभाग और अपील सम्बन्धी विभाग को भी चुस्त और दुरुस्त करने की आवश्यकता है।  स्वाभिक है एक तरफ काम करने वाले को आज़ादी मिलेंगी जबकि ऐसे लोगो के ऊपर अंकुश लगेंगे जो अपने उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी से निर्वाह नहीं करते है।  जितने भी शिकायत किये जाते है उसके लिए एक चैन सिस्टम डेटाबेस बनाये जाने की जरुरत है जिसका मुख्य केंद्रविंदु प्रदेश में मुख्यमंत्री और देश में प्रधान मंत्री हो ताकि प्रधानमंत्री के दफ्तर को इसके जरिये देश के कई मुलभुत समस्याओ से रूबरू होंगे जो उनके किसी तरह के स्कीम लाने और चलाने में मददगार साबित होंगे वही नौकर शाह भी चाहकर भी अपने कर्तव्य से बिमुख नहीं हो पाएंगे इसके लिए हमेशा अपनी जवाबदेही के प्रति सजग रहेंगे क्यूंकि उनको यह भली भांति ज्ञात होगा कि उनके हर एक हरकतें पर सीधे देश अथवा प्रदेश के मुखिया के पैनी नज़र है।  हालाँकि  इस तरह का खाका तैयार करना शायद मुमकिन नहीं है विशेषतः ऐसे परिदृश्य में जंहाँ सीधे तोर पर प्रदेश और देश के मुखिया की जिम्मेवारी सामने आती हो। यद्दिप इस तरह का शिकायत उन्नमूलन प्रणाली बनाये जाते है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा देश के आम लोंगो को होगा जिनका आवाज लचर व्यवस्था के कारन सुनी नहीं जाती व दम तोड़ देती है। कमोबेश सरकार से जरूर अपेक्षा कर सकते है  इस तरह के चमत्कार का जो सरकार और जनता के बीच की खाई को दूर कर सकेंगे। इनदिनों सरकार के तरफ से इस तरह का पहल भी किये गए है लेकिन ये अभी आधे अधूरे है क्यूंकि उनके इस पहल के माध्यम से सिर्फ सरकार के हर एक काम काज की जानकारी सीधे जनता तक पँहुच रही है  परन्तु  जनता की बात सीधे सरकार तक पहुँचे  इसका अभी  कोई आधारभूत संरचना नहीं हो पाया है। 

पिछली सरकार जिस कानून को लेकर पुरे कार्यकाल में  खुद ही अपनी पीठ को थपथपाती रही वह कानून आज भी अपना वजूद को ढूढ रहा है और कुछ विभाग को छोड़ दें तो इस कानून के अंतरगर्त सिर्फ आपको यही देखने और पढने को मिलेगा कि यह मान्य व नहीं या बाध्य नहीं है अर्थात आपके आवेदन को निरस्त किया जाता है।  जिस सूचना के अधिकार के कानून को लेकर सरकार दावा करती रही कि जनता को बहुत बड़ा हथियार दे दिया और काश यह बहुत बड़ा हथियार साबित भी हो पता यदि नौकरशाह इसका तोड़ नहीं निकाल पाते अर्थात इस कानून के माध्यम से जो जनता को अधिकार दिया गया उसे छीन तो सकते नहीं पर दिग्भर्मित व दबा जरूर सकते है। आख़िरकार सूचना के अधिकार के कानून का जनता को न पूर्ण उपयोग का अवसर दिया जा रहा है और न ही इसके माध्यम से सटीक सूचना मुहैया करायी जाती है फलस्वरूप सूचना के अधिकार का कानून सिर्फ चंद कदरदानो के रहमो करम आश्रित है। सूचना के अधिकार कानून को लेकर जो भय का वातावरण बना है वह न सिर्फ नौकरशाहों के दफ्तर में देखा जा सकता है ब्लिक इसी तरह का परिदृश्य राजनीती गलियारों में भी महसूस किया जा सकता है इसीलिए तो पिछली सरकार कानून में संशोधन करने  का मन बना ली थी परन्तु लोकसभा चुनाव के चलते असमंजश रह गई।
प्रश्न यह उठता है कि जिन नौकरशोहों और राजनीती के दिग्गज के काम काज को सरेआम करने के लिए सूचना के अधिकार का कानून का इस्तेमाल किया जा रहा  है क्या इस बात को राजनीती के दिग्गज हो अथवा नौकरशाह हज़म कर पा रहे है ? बेशक हज़म कर भी जाय पर इस कर्तव्य को कितने विनर्मतापूर्वक और ईमानदारी से निभा रहे  इसके लिए आज भी दुविधा लोगो के मन में जमी हुई है जो लाख कोशिश के वाबजूद   तश से मश नहीं हो रही है।  फिलहाल  लोकपाल कानून के बारे टिप्पणी करना उचित नहीं होगा व बहुत जल्दी होगा पर यह तो तय है कि कानून को जितना समय अपने रूप को अख्तियार करने में लगता  उनसे पहले ही हमारे बुद्धजीवियों इनका तोड़ खोज लेते है बस देखना है कि इस कानून का तोड़ मौजूद है अथवा अभी भी तलाशे जा रहे है। अगर एक शब्द में लोकपाल के संदर्भ में जरूर कहूँगा कि इस कानून में भी कई प्रकार के त्रुटियाँ है जो इनको कारगर होने से रोकेंगे और इनके भी लाभ से अधिकतर जनता बंचित ही रहेंगे। 

मौजूदा परिवेश में देश को कानून से ज्यादा व्यवस्था व तंत्र को दुरुस्त करने की जरुरत है अब यह निर्भर हमारे सरकार के ऊपर है कि कितने जल्दी और किस हद तक इसको दुरुस्त करती है।  

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