रविवार, 20 अप्रैल 2014


नेताजी उल्लू न बनाये !

वास्तव में क्या नेताजी हमेशा जनता को उल्लू ही बनाये या लोग ऐसे ही इस तरह के मुहावरे को कहते रहते है?  राहुल गांधी यदि यही बात नरेंद्र मोदी से कहते है क्या यह तर्कसंगत है?, क्यूंकि आज़ादी के बाद उनके पार्टी हो या पुरखों ने तकरीबन साठ  साल  तक देश पर हक्कुमत किये जबकि बीच -बीच में विपक्षी पार्टीया को भी मौका मिला जो बहुत ही कम थे, ऐसे में राहुल गांधी किसी और से कहे की आप उल्लू न बनाये ! तो आपको क्या समझेंगे?


पिछले दस साल में चारो तरफ भ्रष्टाचार और आराजकता ही देखने को मिला, हर तरफ लूट ही मचा था क्या नेता, क्या अभिनेता, बाबू  और साधु सब लूट रहे थे। इस कदर लूटा मचा रखे थे की दसों दिशाओ में सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार विदद्मान था इनके प्रकोप से तीनो लोक में से एक लोक भी अछूत नहीं रहे। यही वजह था कि भ्रष्टाचार का तांडव नृत्य से बाबुओं और नेताओं के इनकम का ग्राफ दिन दूना -रात चुगना हुए जा रहे थे हालाँकि कुछ व्यापारी भी पीछे नहीं थे अवसर का भरपूर फायदा उठाया और जी भर के मुनाफा वसूली की अथवा व्यवस्था के दयनीय स्थिति की खामिया को मुनाफा वसूली के लिए पुरजोर इस्तेमाल किये। इस तरह के हालात के लिए कौन जिम्मेवार थे और कौन थे जो जवाबदेहि से बचते रहे? कोई और नहीं ब्लिक कांग्रेस पार्टी और इनके कर्णोद्धार क्यूंकि सरकार में मंत्री हो या संत्री ये तो आपके इसारे का ग़ुलाम थे जो कदापि ऐसा नहीं करते यदि आप चाहते अर्थात जो भी घोटाले हुए पिछले दस साल में इसके लिए प्रत्यक्षरूप से कांग्रेस पार्टी और उनके मुखिया जिम्मेवार है जिसे  कतई आप खारिज नहीं कर सकते है।  इस तरह के परिदृश्य में यदि आप किसी अन्य से कहे कि नेताजी उल्लू न बनाये, लोग को हसीं ही आएगी क्यूंकि ये काम तो आप बरसो से कर रहे है और इस सुबह मुर्हत पर इसको रोका नहीं गया तो आप हरगिज़ नहीं रोक पाएंगे।


 संसार में जितने भी प्रदार्थ मौहजूद है वह खुद ही जीवन और मरण का सूत्रधार होते है बस इसके अनुकूल वातावरण मिलाना चाहिए, जैसे कुछ चने को हम जमीं के अंदर बो दें तो कुछ दिनों के पश्चात उसमें जान आ जाती है पर इस चने को पकने के उपरांत पोधे से अलग करके घर में दाल बनाने के लिए रखे गए थे अर्थात जब ये घर में रखे चने थे तो निर्जीव थे और जब इसे जमीं के अंदर डाला दिया  तो मिटटी, जल, वायु और प्रकाश  के सम्पर्क में आकर इसमें जान आ गयी व पुनः जीवित हो गए अर्थात सत्ता जो नेताओं के जमीं है जिसके ऊपर काबिज़ होते ही ताक़त, दौलत, शौहरत के सम्पर्क में आ जाते है मसलन कुछ समय के पश्चात भ्रष्टाचार,  परिवारवाद  और आरजकता शब्द के मायने ही इनके लिए बदल जाते है जिसके विरोध में बरसों संघर्ष करते दिखे थे अब एक -एक करके अपनाने लगते है इससे यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है की जब तक ये सत्ता से दूर रहे तब तक  इनके अंदर लोभ और स्वार्थ मरणावस्था में थे जैसे ही सत्ता से रूबरू हुए इनके लोभ और स्वार्थ पुनःजीवित हो गए। मौजूदा परिवेश में नेताजी कुछ भी कर ले परन्तु  न इन पर अंकुश लगा सके है और चंद गिने चुने नेताओ को छोड़ दे ज्यादातर इस करतूत में ही लिप्त पाये गए है। 


फिर भी इस तरह के तर्क सभी वस्तुओ और नेताओं के लिए सटीक नहीं बैठता उदाहरस्वरूप लाल बहादुर शाश्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे भी नेता इस देश को मिले, जनता के साथ नेतागण भी उनके ईमानदारी और निस्ता के कायल रहे है और आज भी उनके ईमानदारी को बेहिचक कहे और सुने जाते है। ऐसा क्यों है कि सत्ता पर आसीन होने के वाबजूद वह अपने निस्ता और ईमानदारी पर अटल रहे, इतने सुख सुविधाये होते हुए भी उनके न अभ्यस्त हो पाये और न ही उनके अधीन हो गए। हालाँकि इनके समय में भ्रष्टाचार पूरी तरह से विलुप्त हो गए थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना जरूर कह सकते है कि इन्हे कभी छुं नहीं पाये।


नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों के बीच अनेको धारणाएँ है, जँहा एक वर्ग में डर और भय की बात की जा रही है वँही बहुत से लोगों का मानना है कि उनके प्रधानमंत्री बनने से कॉर्पोरेट समाज का ही भला होगा जबकि गरीब और मध्यम वर्ग हास्य पर ही रहेंगे। इस तरह के अफवाहे अटल जी के बारे में भी फैलाये गए थे क्यूंकि  कुछ राजनीती पार्टीया के पास ज्यादा कुछ कहने के लिए नहीं होते और पिछले पैसंठ साल से महज़ब और जाति में भेदभाव के जरिये ही वोट समेटते आ रहे है।  इस तरह के अफवाह से वोट बटोरने का काम करते है क्यूंकि सरकार में रहते हुए जनता को उपेक्षा करते रहते है और चुनावी मोहाल में उनके भाषण और उद्घोषणा को जनता जब कोई भाव नहीं देते है तब इस तरह का अफवाह फैलाते है और इसे धर्मनिरपेक्षता का संज्ञा दें देतें है। यद्दिप इस तरह के ढकोशला को भलीभांति जानते हुए भी जनता और धर्म के कुछ ठेकेदार अपने स्वार्थ के खातिर प्रचार -प्रशार इस कदर करते है कि समाज में डर और भय का वातावरण बन जाय ताकि लोग सब कुछ भूलकर उन्ही को वोट दें जिनके काम काज कभी भी संतोष जनक नहीं रहा वाबजूद हमलोग २१ शदी में पहुँच गए लेकिन हमारे नेताओ के पास वही फार्मूला है जो २० शदी से इस्तेमाल करते आ रहे वोट को धुर्वीकरण  करने के लिए। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने और उनका कार्यकाल भी  काफी संतोष जनक रहा और वर्तमान भारत के मज़बूत अर्थव्यवस्था  के लिए काफी हद तक श्रेय वाजपेयीजी को ही मिलाना चाहिए। इस तरह का वातावरण बनाना जहाँ एक खेमे के लिए मज़बूरी है वही नरेंद्र मोदी के लिए यह साबित करना बहुत ही कठिन है कि विपक्षी पार्टिया द्वारा मुद्दे के आभाव में इस तरह के अफवाहे फैला जा रहे ताकि लोग आँख मुंड कर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट दाल दें। वाकये में ये लोगों को समझाना काफी टेढ़ी खीर है जिसे पकाना सबके लिए संभव नहीं है और यह चुनाव के बाद ही शिद्ध हो पायेगा कि मोदी सफल हुए अथवा असफल।


इस वक्त जनता को चाहिए कि अपनी मतदान का प्रयोग सावधानी से करे क्यूंकि सौ साल पुरानी पार्टी हो या हाल में बनी पार्टी सबके सब एक खेमे में है और नरेंद्र  मोदी के विरुद्ध है।  इन दिनों भ्रष्टाचार और मंहगाई को भूलके सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को ही अहमियत दे रहे है क्यूंकि फिलहाल केवल एक मुद्दा के बदौलत सब संसद में पहुँचने का मनसा बना रखे है।  अन्तः जो पार्टी भ्रष्टाचार और घोटाले को रोकने के लिए बनी थी अब उन्हें भी कुछ याद नहीं रही सिर्फ संसद में पहुँचने के सिवाय। वास्तव में प्रदेश के सरकार को शहीद करके इसीलिए आनन -फानन में संसद के तरफ कूच कर गए इतने जल्दी है कि अब किसी भी मापदंड और मर्यादा को लांघने के लिए तैयार है बस वहां पहुचना है कारण ये भी है इस बार चूक गए तो फिर पांच साल तक मौका मिलेंगा अथवा नहीं किसीको भी पता नहीं। ऐसे हालात में क्या फर्क पड़ता है कि माफिया हो अथवा अपराधी बस सहयोग करने वाला चाहिए क्यूंकि सिद्धांत के साथ गिने चुने लोग ही वहां पंहुच पाते है।


किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता में परिवर्तन आना अनिवार्य है इससे न कि सिर्फ पारदर्शिता राजनीति में देखने को मिलेंगे ब्लिक प्रतिपक्ष और विपक्ष के काम -काज का आकलन भी सही पैमाने पर हो पायेगा। सियाशी दल जनता से सरोकार रखने वाले सभी मुद्दे को बारीकी से अध्यन करेंगे और उसके समाधान के भी विकल्प ढूढने का प्रयन्त करेंगे जो कई मायने में जनता के लिए लाभदायक सिद्ध हो पायेगा। सत्ता में परिवर्तन से पनपते भ्रष्टाचार और परिवारवाद को भी नकेल कशा जा सकता है। अन्तः जनता अपने तुलात्मक दृष्टि कोण से प्रतिपक्ष और विपक्ष के काम - काज को सहारेंगे अथवा भर्तसना करेंगे जो कि प्रतिस्पर्धा और सुचिता राजनीती दल लाने को बाध्य होंगे अन्यथा जो सियाशी पार्टिया जनता के अनुरूप नहीं दिखेंगे वे यथाशीघ्र राजनीती गलियारों से गायब हो जायेंगे।


आखिर कार जनता को ही बताना है कि उन्हें उल्लू कौन बना रहे और इसका फैसला अपने मतदान के जरिये करेंगे? वैसे भी फैसला के घडी समीप ह, एक महीने के अंदर सब कुछ साफ हो जायेंगे क्यूंकि १६ मई को चुनाव परिणाम घोषित किया जाना है।  अन्तः राजनितिक पार्टिया अपने मर्यादा में रह कर भाषा का इस्तेमाल करे और लोकतंत्र के इस शुभ घडी में सिर्फ जनता को ही बोलने का अवसर मिलना चाहिए कि " नेताजी उल्लू न बनाये!"

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