रविवार, 5 जनवरी 2014


 अन्तोगत्वा, "आप" और कांग्रेस के बीच अनैतिक गठजोड़ हो ही गई !

"आप" और कांग्रेस के बीच का गठबंधन क्या अनैतिक हैं ?, यह प्रश्न तो उठना लाज़मी हैं क्योंकिं यह प्रश्न दिल्ली के हर एक जनता के जहन में हिचकोले ले रहे होंगे, जिन्होने अबकी बार दिल्ली चुनाव में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और अपना मतदान किया। नेता जो अपने उसूलो से समझोता करने में कभी हिचकते नहीं और न ही कोई  अभी तक अपनी पार्टी के उसूलो का मापदंड निर्धारित कर पाये हैं। नतीजन सत्ता के गलियारो तक का पहुंचने  का सफ़र हो या फिर सत्ता हथियाने के लिए जोड़-तोड़ करना, कभी भी सैद्धांतिक माप दंड पर उतरना किसी भी पार्टी या नेता के लिए असहज रहा हैं फलस्वरूप जिनके विरुद्ध में, जिनके नीती के विरुद्ध चुनाव लड़ते हैं बाद उन्ही पार्टी के साथ गठबंधन करके उन नेता के खेमे में जाकर बैठते हैं, जिस  नेता और पार्टी को अधिकाधिक जनता ने नक्कार दी थी। पर जनता के उस मलाल पर कभी आत्मा चिंतन नहीं कर पाते हैं कि जनता जो मतदान करती हैं, किसीके विरुद्ध में किसी पक्ष में, जिसके विरुद्ध वह मतदान करती है वजह कि उस पार्टी और उस पार्टी के नेता से खुश नहीं और जिसके पक्ष में मतदान इसलिए करती हैं  क्यूंकि उस पार्टी और उस  नेता से अपेक्षा रखती  हैं। क्या  पार्टियों का दायित्व यह नहीं होता कि जनता के मत को सम्मान करके अपनी -अपनी भूमिका को निभाए।

इस दिल्ली विधानसभा  का चुनाव में "आप" जो खुदको ईमानदार और आम आदमी के हित का ख्याल रखने वाली पार्टी के रूप में राजनितिक धरातल पर अवतरित किये जिसकी मुख्य उद्देश्य थी कि उस सत्तारूढ़ पार्टी के तानासाह और भर्ष्टाचार से निज़ात दिलाना इसलिए "आप" ने  मतदाता के नज़र में खुदको कांग्रेस का विकल्प साबित की और जनता ने इनकी यही खुबियो को देखकर अपना फैसला "आप" के पक्ष में दी और "आप" से अपेक्षा रखी कि सत्तारूढ़ पार्टी के तानासाह और भर्ष्टाचार से उन्हें मुक्त कराये। लेकिन सत्ता के भूख के आगे किये गए सभी वायदे और सिद्धांत दम क्यूँ तोड़ देते हैं ? इस सवाल का जवाब ढूढ़ना कतई आसान नहीं हैं आज की राजनीती परिवेश में जहाँ सिद्धांत सिर्फ दिखावे के लिए होता हैं जबकि जनता सिर्फ वोट बैंक बनके रह गयी हैं। "आप" एक ऐसी पार्टी जिसमें ज्यादातर नेता नौसिखुआ और जिन्हे राजीनीतिक उठा पटक की अ आ सीखना बाकि हैं इसीलिए तो वे न राजभोग के आदि और न ही उन्हें सत्ता के भूखे। सबकुछ अनुकूल होते हुए भी अरविन्द केजरीवाल ने खुदको संयम से काम लेने के वजाय अपने को उनके ही बीच में लाकर खड़ा कर लिए जिनके लिए नैतिक और अनैतिक में ज्यादा फ़ासला नहीं दीखता। वास्तविक में अरविन्द केजरीवाल को अपनी टीम के साथ उसी सिद्धांत पर टिके रहना चाहिए जिसके बुनियाद पर यंहा तक का सफ़र तय किया था पर अफसोश उन्होंने अपनी राजीनीतिक पहला कदम ही समझोता के पायदान पर रखा आगे क्या करेंगे जब इन्ही टीम के लोंगो में सत्ता का भूख विद्दमान हो जायेंगे और राज भोग के आदि भी हो जांएगे?, जबकि इनदिनों इनके पार्टी में सत्ता के भूखे लोगो का आने का सिलसिला शुरू ही हुआ हैं।  लालू हो या मुलायम नजाने कितने लोग राजीनीतिक पृष्ठ-भूमि पर इसी नियत के साथ कदम रखा कि वे ईमानदारी और सच्चाई से जनता का सेवा करेंगे पर ज्योहीं राजीनीतिक पृष्ठ-भूमि पर चलना क्या सीख लिया, ईमानदारी और सच्चाई को पीछे छोड़ सिर्फ सत्ता का भोग का लुप्त उठाने के लिए  दौड़ने लगे, ऐसे लोग कितने मजे से सत्ता का लुप्त  उठाते हैं, ये जगजाहिर हैं। 



जनता जब किसी पार्टी के पक्ष में खड़ी होती हैं तो तन, मन,  धन के साथ इसीलिए तो "आप " को चंदा के नाम पर करोडो रुपैये मिले, दिन रात एक करके  मुहीम में लगे रहे फिर अपना मत भी दिए। आखिरकार दिल्ली के चुनाव में "आप " ने अपनी परचम लहराई पर जादुई आकड़े से जरुर पीछे रह गयी। अन्तः  सत्ता पर काबिज़ होने के लिए गठबंधन की आवश्यक्ता पड़ी।  एक तरफ ना -ना "आप" कर रही थी वही दूसरी तरफ अपनी छवि को सुधारने के ललक में कांग्रेस  ''आप '' के तारणहार के भूमिका में बिना बिलम्व किये अपना समर्थन की चिट्ठी उपराज्यपाल को थमा दी। जँहा कांग्रेस अपनी गिड़ती साख को बचाने  के लिए "आप" को समर्थन दी वही "आप"  भी जाहिर नहीं होने दी कि उनको कांग्रेस की समर्थन जरुरत हैं।

( मैंने एक ब्लॉग लिखा था ३०  नवंबर को जिसमें मैंने "आप" और कांग्रेस के बीच गठबंधन के आसार का जिक्र किया था और अन्तः हमने जो लिखा था वह सही साबित हुआ।)

अरविन्द केजरीवाल का साख,  समर्थन के  पहले और बाद का  शायद  एक जैसा न हो क्यूंकि दिल्ली की जनता बीजेपी के विरुद्ध नहीं ब्लिक कांग्रेस के विरुद्ध मतदान किये थे हालाँकि बीजेपी के सबसे ज्यादा विद्यायक जीतकर आने के वाबजूद  मेजोरिटी से चार सीट पीछे रह गयी। इस चुनाव के परिणाम से अर्थ तो यही  लगाया जा सकता है कि दिल्ली के चुनाव में "आप" हो या बीजेपी दोनों में से किसी एक पार्टी को भी पूर्ण वहुमत नहीं मिली क्यूंकि ज्यादातर जनता दोनों पार्टी में से श्रेष्ठ कौन सी पार्टी हैं यह तय नहीं कर पाई जबकि सभी ने कांग्रेस को नक्कार दी इस परिस्थिति में कांग्रेस के साथ मिलकर कर सरकार चाहे बीजेपी हो या "आप" कोई भी बनाती हैं तो इसका यही मतलब निकला जा सकता हैं कि पार्टी को किसी से भी परहेज़ नहीं, चाहे क्यूँ न जनता से वहिष्कार किये गए पार्टी हो। अरविन्द केजरीवाल  की  सरकार जिसे विस्वास मत तो हासिल हो गयी पर ये सरकार को दीर्घायु बनानी अभी भी  आसान नहीं हैं। कांग्रेस और "आप" के बीच में जिस तरह का वाद-विवाद हो रही हैं इससे तो यही अंदाज़ा लगाया जा सकता हैं कि ६-१२ महीने  से ज्यादा सरकार नहीं चल पायेगी अगर अरविन्द  केजरीवाल इस परिस्थिति में सरकार को एक साल से जयादा चला लेंगे तो बड़ी उपलब्धि मानी जांएगी। बायदवे, मध्यावि चुनाव के नौबत में अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के जनता के बीच में जाकर क्या कहेंगे?, जब जनता उनसे पूछेगी कि भेजा था तुम्हे वहाँ जाकर सिस्टम को दुरुस्त करने पर तुम खुद वहाँ जाकर उन्ही सिस्टम का हिस्सा बन गए, जिसे दुरुस्त करना था उस समय के लिए, केजरीवाल साहेब, अभी से ही ताना -बाना बुनना शुरू कर दीजिये नहीं तो आसान नहीं होगा दिल्ली की जनता को समझाना क्यूंकि दिल्ली में पानी और बिजली कभी इतना बड़ा मुद्दा था ही नहीं जिसके लिए आपको जिताया गया। यदि दिल्ली की जनता में आक्रोश थे तो भर्ष्टाचार और कांग्रेस के उस तानासाह रवैये को लेकर जिसके शिकार जनता के साथ -साथ हर आंदोलनकारी थे जो कभी भी कांग्रेस के खिलाफ बोलने की  ज़ुरत की चाहे वे अन्ना हो या रामदेव बाबा या दिल्ली के आम आदमी। अधिकतर लोंगो का यही मानना हैं भर्ष्टाचार एक ऐसी क्षय  रोग हैं जिसके गिरप्त में जनता के हर बुनियादी सुविधा ह, जैसे ही भर्ष्टाचार मुक्त समाज और व्यवस्था होंगे अपने आप सभी रोग मिट जायेंगे।  हैरतंगेज़ नहीं होंगे "आप" को जब लोग उन्ही के कतार में  ला कर"आप" को भी खड़ी करेगें, आखिर कोई भी,  कितना भी मूर्ख क्यूँ न हो पर जिस तना पर बैठे  होते हैं उनके ऊपर कुल्हाड़ी नहीं चलाते फिर कैसे लोग ये उम्मीद करेगा कि "आप"  कांग्रेस के हाथ थाम कर "आप" कांग्रेस के गिरबान को नापेंगे? इस बात से प्रायः कोई भी इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता अर्थात कांग्रेस 'आप" को समर्थन देकर अपनी भूल का भरपाई करके जनता के बीच यह मेसेज देने की  कोशिश की जनता के हित को मद्देनज़र रखते हुए "आप" को समर्थन दी जा रही हैं ताकि "आप" जनता के उम्मीद पर खड़े उतरे पर "आप" जनता के उम्मीद पर खड़े उतरती हैं जब भी उनका श्रेय कांग्रेस ही लेगी और जनता के उम्मीद पर "आप" खड़ी नहीं उतरती तब भी कांग्रेस यह कहने से बाज नहीं आएगी कि उन्होंने तो "आप" को समर्थन दिया पर "आप" में ही काविलियत नहीं थी जो जनता के उम्मीद को पूरा करे क्यूंकि इन्होने सिर्फ वोट लेने के लिए लोकलुभावने  वायदे किये जो कभी पूरा  नहीं किया जा सकता था।

दरशल में "आप" का भला कंही होते नहीं दिख रहा हैं,हो सकता कि फिर एक चमत्कार हो और "आप" के पक्ष में सब कुछ  कर दे। वेसे भी  "आप" एक चमत्कार का ही देन और इतने कम समय में इतनी लम्बी छलांग लगाना  भी एक चमत्कार से कम नहीं । जाहिर है कि हमेशा "आप" चमत्कार चाहेगी पर ये भी मुमकिन नहीं हमेशा चमत्कार "आप" के लिए हो। फिर शायद याद रखियेगा कि यही शब्द फिर दोहराएगा कि जीत ईमानदारी और सच्चाई की हुई हैं। 

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