राजनीती वास्तव में इतनी बदनाम है!!
जनता के हितेषी कहो या जनता दुःख चिंतक जो सत्ता के चकाचौधं में चौंधियाने से परहेज़ नहीं कर पाते, इसलिए तो आजभी राजनीती से ज्यादातर साफ सुथरे लोग दुरी बनाये हुए हैं क्यूंकि जो लोग अपनी ईमानदारी की डंका पीटते नहीं थकते पर जैस ही सत्ता पर काबिज़ होते, सभी कसमें - वायदे तोड़कर सत्ता का भोग भोगने के खातिर उसी के मुहाल में रम जाते हैं। शुरू में संयम का कौशिश तो करते हैं पर लाख कोशीश के वाबजूद सत्ता के ऐशो-आराम से खुदको रोक नहीं पाते। अतीत में झांके तो आज़ादी के आंदोलन के बाद महात्मा गांधी ने अपनी मनसा जतायी थी कि अब कांग्रेस पार्टी को निरस्त कर देना चाहिए पर उस समय उनकी इस इच्छा को सबने सिरे से खारिज़ कर दिए क्यूंकि सबको भलीभांति पता था कि कांग्रेस पार्टी जिसका अहम् योगदान रही आज़ादी के लड़ाई में इसके इसी अहम् योगदान को देश की जनता कभी नज़र-अदाज़ नहीं कर पाएंगे। अन्तः लोगों का निस्ठा हमेशा कांग्रेस पार्टी के नाम के साथ जुड़ा रहेगा जिसके बुनियाद पर बिना मशक्क़त के सत्ता की स्वाद जखने को मिलता रहेगा।
यही कारन हैं कि कांग्रेस पार्टी हमेशा सत्तारूढ़ पार्टी बनी रही और कोंग्रेसियों को लगने लगा कि उनके आलावा कोई और विकल्प इस देश के समक्ष नहीं हैं, जब इस तरह के सामंतवादी प्रवृति सत्तारूढ़ पार्टी यानि कांग्रेस पार्टी के कर्णोद्धार यानि उस समय के प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के जहन में पनपने लगे, उनके इस तरह के सामंतवादी प्रवृति और तानाशाह सरकार के खिलाफ जय प्रकाश नारायण का आंदोलन का आगाज़ हुआ। लोग सरकार के तानाशाह रवैये से इस कदर खिन्न थे कि लाखो कि संख्या में रामलीला मैदान में इकट्ठा होकर सरकार के खिलाफ अपनी को आवाज़ को बुलंद किये जबकि उस समय न इतने मीडिया के रूप ही थे और न ही मीडिया आज के मुकावले इतने शशक्त थे फिर भी लोंगो का आक्रोश ही था जिसने सबको घर से निकालकर रामलीला के मैदान में खड़ा कर दिया। यही कारण आंदोलन ने क्रांति का रूप अख्तियार कर लिया और सत्तारूढ़ पार्टी को घुटने के बल लाकर खड़ी कर दिया। फलस्वरूप सत्तारूढ़ पार्टी सत्ता से बेदखल कर दिए गए।
वर्त्तमान काल में जनलोकपाल आंदोलन का वही रूप देखने को मिला, जो अन्ना की अगुवाई में अपने अंज़ाम तक पहुँच ही गए। अभीतक देश में कई बड़े आंदोलन हुए जिसमें में इस सदी के कई क्रन्तिकारी ने अपने अहम् योगदान दिए जिन्हे कभी भुलाये नहीं जा सकते हैं। इतिहास हमेशा उनके इस वलिदान और योगदान के लिए उन्हें शत-शत बार नमन करेगा और उनके इस उत्कृष्ट योदान के लिए उनको हमेशा इतिहास के पन्नो में सर्वोच्य स्थान दिए जाते रहेंगे। सचमुच में उन महापुरूषों के बिना भारत के लोकतंत्र का शायद स्वरुप ही पूरा नहीं होगा। जिनके सर्वेश्रेष्ठ योगदान से हम अपनी आज़ादी को अभी तक कायम रखने में कामयाब हुए हैं , जिनके आंदोलन से हमें प्रेरणा मिलता हैं लोकतंत्र में जनता से बढ़कर कोई नहीं पर जनता अगर चाहेगी तब। क्यूंकि लोकतंत्र में जनता किसी भी तानाशाह और भ्रष्ट सरकार को उखाड़ फेकने का दम ख़म रखती हैं बस इसके लिए एकता और जूनून की जरुरत हैं इसी कथन को जय प्रकाश नारायण ने चरित्रार्थ किये थे उस समय के तानाशाह सरकार को खात्मा करके और सामंतवादी प्रवृति के लोगों से सिंहाशन हटा कर ततपश्चात राजनीती के एक नए अध्याय का शुरुआत की गई ।
पर इन्ही आंदोलन के इर्द -गिर्द कई राज भोगी और सत्ता के स्वार्थी ने भी राजनीती के धरातल पर अवतरित हुए हैं जिन्हो इस तरह के आंदोलन के दौरान अपना हित खूब साध सके। आंदोलन में मुलभूतं समस्याओ को निज़ात दिलाने का बिगुल फूकें गए थे यद्दिप वे समस्याए तकरीबन अभी तक ज्यों का त्यों हैं पर जो महानुभाव इस आंदोलन में सिपह -सलाहकार के भूमिका थे वे आज के राजीनीति के कदर दान बन गए। आनेवाले दिनों में जनता अपनी वही आस्था किसी आंदोलन के प्रति दिखा पाएंगे इसके बारे अभी शायद पूर्वानुमान लगाना मुमकिन नहीं हैं क्यूंकि सदेव उनकी आस्था से खिलवाड़ करने में सत्ता-भोगीयों ने कोई कसर नहीं छोड़े। किसी ने भर्ष्टाचार, किसी ने बेरोज़गारी, किसी ने मँहगाई, न जाने इस तरह कई अहम् मुद्दे लेकर जनता के हितैषी के रूप में प्रगट हुए और जैस ही सत्ता के क़रीब पहुंचे सब भूल गए।
जिनके आंदोलन के कोख में राजनीती पार्टी का जन्म होता हैं और अचानक कुछ ही दिनों में वही पार्टी सत्ताधारी पार्टी बन जाती हैं। फिर भी जब उन महापुरुष को सत्ता में भागीदारी के लिए कहा गया तो यूँ विदक गए और अपने को किनारे कर लिए। क्या उनको आभाष था कि राजनीती एक ऐसी दरिया हैं जिसमें गोटा लगानेवाले कीचड (दाग) रहित नहीं रह सकता ? इसलिए तो कभी सत्ता और सरकार के आस पास नज़र नहीं आये वे महापुरुष। यंहा प्रश्न ये उठता हैं कि राजनीती वास्तव में इतनी बदनाम है कारणस्वरूप ये महापुरूष इसमें कभी रूचि नहीं ले पाये या राजनीती वास्तव में ऐसी नीति हैं जिसमें नैतिकता और अनैतिकता के परिभाषा में ज्यादा भिन्नता नहीं हैं या राजनीती में शक्रिय होने से पहले ही अपने उसूलों, अपने जज़्बात और आदर्शवादी विचार को तिलाञ्जलि देना पड़ता है जिसे कोई निस्ठावान व्यक्ति हरगिज़ स्वीकार नही सकता अर्थात राजनीती में विवेक और निस्ठा के लिए कोई जगह नहीं हैं जो किसी आदर्शवादी व्यक्ति की पूंजी होती जिसे किसी भी हाल में वह खोना नहीं चाहते।
ऐसा तो नहीं होता है कि राजनीती के आस पास इतने सारे सुख सुविधायें अथवा सहूलियतों का भरमार हैं कि लोग न चाह कर भी खुद को ज्यादा दिन तक वंचित नहीं रख पाते हैं जैसे कि भरपेट भोजन किये हुए व्यक्ति के सामने छप्पन परोसें लगा दिया जाय तो न चाह कर भी उनके मन में कुछ खाने का भूख जग ही जाते हैं। इसीप्रकार हमारे नेता जो कि निस्ठा के साथ तो गद्दी तक पहुंचते हैं पर वंहा पर जाकर वह छप्पन परोसें अर्थात अनेकों सुख सुविधायें को देखकर उनके निस्ठा डगमगाकर दिल के इसी कोने में लुढक जाते हैं और लालच की भूख के अधीन होकर सब कुछ करने लगते हैं जो एक निस्ठावान व्यक्ति कभी भी नहीं कर सकते। वेसे भी राजनीती में मुख्यः दो तरह के लोगो ही ज्यादा मिलेंगे जिसमें एक जो सुख सुविधाओं के आदि होते हैं जो इसको पाने के खातिर कुछ भी कर सकते हैं दूसरे जो सुख सुविधाओं को देखकर कर खुदको रोक नहीं पाते अन्तः इसको पाने के खातिर कुछ भी करने के लिए राज़ी हो जाते हैं।
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