शुक्रवार, 31 जनवरी 2014


आराजक के लिए,  वास्तविक में जिम्मेवार कौन हैं?

आराजकता का शायद इनदिनों परिभाषा ही बदल गई, नहीं तो महामहिम गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर जिस आराजकता का जिक्र करके फैलने का आशंका जता रहे थे अब वे फैलने से वंचित नहीं हैं ब्लिक आहिस्ता -आहिस्ता कर अपने पैर पसार रहे हैं। जिस देश में प्रायः कोई भी मंत्रालय बचा हो जंहा भ्रष्टाचार जड़ न जमा पाये हो, देश में शायद एक भी ऐसा विभाग देखने को मिलता जो भर्ष्टाचार से अछूत हो चाहे राज्य सरकार के अधीन आता हो अथवा केंद्र सरकार के अधीन आता हो अर्थात राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के संदर्भ में दोनों का नजरिया एक जैसी ही। बैंकिंग प्रणाली पूरी तरह लचर हो चुकी हैं, उपभोक्ता मायुश और परेशान हैं और सुननेवाले वाला कोई नहीं। आम आदमी के जान-माल असुरक्षित हैं और उनको समझ नहीं आता हैं कि इस  विषम परिस्थिति में कैसे अपने आप को सुरक्षित रखे? दिन दहाड़े बहु बेटियो के अस्मत तार -तार  हो रहे है। देश के पुलिस संवेदनहिन् और लठैत बनकर रह गयी जो मंत्री और संत्री के इसारे पर सिर्फ लाठी भांजते नज़र आते हैं।  नेता और सरकार दोनों जनता का विस्वानीयता खो चुके हैं। प्रकृति सम्पदा का लुटा मचा रखा जबकि कॉर्पोरेट संसथान और सरकार के मिलीभगत से देश और देश के जनता का शोषण किये जा रहे हैं। एक तरफ लोकतंत्र के आढ़ में राजतन्त्र जैसी स्थिति बनायीं जा रही हैं परिवारवाद के इर्द -गिर्द देश और प्रदेश की राजनीती पृष्ठ भूमि को समेटने की पहल हो रही है , जबकि भाई भतीजा व सगे सम्बन्धियों का चलन जोड़ो पर हैं।  इसके वाबजूद अगर अराजकता का मतलब कुछ और होता अथवा ये होता है कि जनता के ऊपर सरकार का नियंत्र नहीं होना तो ये हालात अभी तक नहीं आया। क्यूंकि हमारे सभ्य समाज के ज्यादातर आम आदमी अनुशाषन पसंद करते हैं और देश के संविधान में अटूट विस्वास रखते हैं वे  कतई आरजकता फ़ैलाने के पक्ष में नहीं होंगे और न ही आराजकता को बर्दाश्त करेंगे।



 देश के नीव व हद्रय संविधान होते हैं किसी भी देश के संविधान जितना सरल और संवेदनशील होगा उतने ही सुगमता से देश के प्रगति का मार्ग परस्त करेगा। वास्तविक में संविधान का परिभाषा ही सम  + विधान  अर्थात बराबर का व्यवस्था  व कानून का प्रबधान किया गया और देश के सभी वर्ग के नागरिक का हित ख्याल रखा गया।  संविधान के रचियता ने बखूबी प्रत्येक पहलु को बारीकी  से  श्पष्ट व्याखान किया जिसमें न लिंग, न अमीरी न गरीबी , न महज़ब और न ही जाति के आधार पर किसी के साथ पक्षपात करने की छूट दी ब्लिक उनको पहले से आभाष था कि लिंग, हैसियत, रसूख, जाति और महज़ब के आध में किसी के साथ अनुचित होने का गुंजाईश न रहे  इसके लिए पिछड़ रहे वर्ग रियात दी गयी पर इनके कदरजान ने  अपने हित के लिए समय -समय पर इनका परिभाषा और इसमें लिखी गईं विधि को अपने हित खातिर उलट फेर करते रहे फलस्वरूप कुछ लोगों को इसका लाभ मिला जो संतुष्ट दिखें जबकि कुछ लोग असंतुष्ट दिखे क्यूंकि उनके हित का सदेव नज़रअंदाज़ किया गया। जिस देश में मुट्ठी भर लोग अपने हित के खातिर देश के ह्रदय (नींव) को घात पहुचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं ऐसी विकत परिस्थिति में आरजकता का ही बोल-वाला होना स्वाभाविक हैं जिसे नक्कारा नहीं जा सकता  है।  


कार्यपालिका, न्यापालिका, विधायिका, लोकतंत्र के प्रमुख स्तम्भ हैं जिसके ऊपर लोकतांत्रिक देश निर्भर करता हैं जितने ही पारदर्शिता, भ्रष्टाचारमुक्त  और सुचिता इनमें व्याप्त  होंगे उतने ही लोकतांत्रिक देश की भविष्य उज्जवल होंगे। एक तरफ भ्रष्टाचार दीमक बनकर अंदर ही अंदर इन प्रमुख स्तम्भ को खोखला का रहे है दूसरी तरफ इनके काम -काज में भी पारदर्शिता का लेस नहीं। जिस दिन से  इन प्रमुख संवैधानिक संस्था भ्रष्टाचारमुक्त होकर पारदर्शिता और सुचिता से काम करने लगे तब मानों देश में आरजकता के काले बादल छंटने लगेंगे और बुलंदी के प्रभात दिखने लगेंगे। यद्दिप  ये कल्पना शायद ही कभी हक़ीक़त से रुबरु हो पाये।


बरहाल चारों तरफ आराजकता का जो मौहाल है नतीजन लोग बिना किसी दुबिधा के किसी के बारे में जानने के बजाय उनके ऊपर फोरन विस्वास कर जाते हैं जैसे ही उनके मुखारबिंदु से ये सुनाने का मौका मिलता हैं कि वह शख्श उनके रोजमर्रा की परेशानियों से निजात दिलाने के लिए कटिबद्ध है, हालाँकि लोगों की मनोस्थिति ये भी विचारने के अनुकूल  नहीं रहता हैं कि आजतक तो बहुतों आये और दिलाशा देकर अपने मनसूबे को पुरे कर चले गए फिर इनपर क्यूँ विस्वास करे ? परन्तु इस तरह का सवाल तो जहन में आना लाज़मी हैं लेकिन आशावादी प्रवृति जो मनुष्य का होता हैं इसी कारण से लाखो बार खुदको ठगे जाने के वाबजुद भी दूसरे के अस्वासन पर अपनी विस्वास का नीव रख ही देते हैं। अस्वासन देनेवाले इसका तब तक फायदा उठाते हैं जबतक विस्वास करने वाले पूरी तरह से टूट नहीं जाते। मसलन प्रत्येक दो चार साल में एक आंदोलन का आगाज़ होना और नई राजनीतीक पार्टी का गठन होना। दरशल में आम आदमी पार्टी इसीका नतीजा हैं जिन्होंने देश में आराजकता के जो मौहाल बना हुआ है उसका बखूबी इस्तेमाल कर अपने  मनसूबे को साधने के लिए आराजकता से निज़ात दिलाने के आध में आंदोलन और कई प्रकार के लोकलुभावन नुस्खे के जरिये लोगों का विस्वास जीतने में कामयाब हो गए और धीरे -धीरे कर जनता का नब्ज़ टटोलने लगे पहले जो भ्रष्टाचार को अहम् मानते थे बाद में कई और मुद्दे को लेकर जनता के बीच में अपनी छवि को निखारने लगे। जब इनको यकीं हो चला अब अपने मनसूबे को बिना देर किये हुए पुरे किये जा सकते क्यूंकि लोगो का विस्वास उनके पर इतना हो गए कि उनके विरोधी कुछ भी करले पर तोड़ नहीं सकते। फलस्वरूप नतीजा बिलकुल अनुकूल ही रहा जैसा उन्होंने सोचा था, दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अपेक्षा से अधिक सीट जीत कर आये। पर बिना सरकार बनाये सत्ता का रसपान करना मुमकिन नहीं था अन्तः बिना आगे पीछे सोचे सरकार भी बना ली जबकि उनको आभाष था कि जिस पार्टी को इनके कारण मटिया पलित हो चुकी वे कैसे इतने आसानी इन्हे बक्श देगी। कारणस्वरूप वे मौका के ताक में थी बस उन्होंने  सरकार को सदन में समर्थन देकर आगे की रणनीति जगजाहिर कर दिए क्यूंकि  समर्थन देनेवाले भी इन्ही के साथ हो कर इन्ही को जड़ को उखारने का जो मन बना लिए थे। हद तब हो गया जब राज्य के कानून मंत्री कानून तोड़ते नज़र आये जबकि   हाल ही में आम आदमी से खाश आदमी बिना संग्रस किये बने थे तो नए रुसूख का तो पुलिस वाले को मान रखना चाहिए था  पर ऐसा हुआ नहीं। आखिकार बहाना जो भी हो पर सूबे के मुख्यमंत्री धरना पर बैठ गए।


 आराजकता और जनता के रोजमर्रा के तकलीफ से निजात दिलाने के लिए न जाने अनेको लोकलुभावन वायदो के साथ तो चुनाव का एजेंडा तैयार कर लिए पर अब पूरा करने की जब बारी आयी तब जाकर ये जाना कि जितना सरल वायदा करना हैं उतना ही कठिन इन्हे पूरा करना। काफी जद्दोहद के बाद ये समझ में आ ही गए कि इसे पूरा  करना नामुमकीन हैं तो फिर इन्होने लोगों का ध्यान को भटकाने के इरादे से कुछ ऐसे करने लगे जिससे  मीडिया के साथ -साथ दिल्ली के लोगो का भी ध्यान फेर सके और ऐसा ही हुआ परन्तु ये शायद अंदाज़ा नहीं रहा कि इस काम रोकने के लिए पुलिस की करवाई की जा सकती है जो कि दिल्ली सरकार के अधीन नहीं ब्लिक केंद्र सरकार के अधीन हैं जबकि सत्तारूढ़ पार्टी जो केंद्र की सरकार चलाती हैं वे तो चाहेगी ही कि दिल्ली सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी के नेता गलती करे पर उन्हें सम्भलने का कोई मौका नहीं दिया जाय, आखिरकार हुआ वही जो केंद्र सरकार चाहती थी। यही आंदोलन जिनके बुनियाद पर दिल्ली का सिंहाशन नसीब हुई थी पर इस बार का आंदोलन फ़ज़ीहत के शिवाय कुछ भी नहीं दिया। एक तरफ इनके नेता पुलिस की  करवाई का शिकार हुए  जबकि दूसरी तरफ दिल्ली के  आम आदमी के जीवन अस्त व्यस्त हो गए ।  यही कारण था कि दिल्ली सरकार को  चारो तरफ से निंदा और विरोध का सामना करनी पड़ी।  केंद्र सरकार के सत्तारूढ़ पार्टी , जिनके आराजकता को मिटाने के लिए आंदोलन के कोख़ में जो पार्टी अवतरित हुई थी, आज उन्ही पार्टी और उनकी सरकार के मंत्री आरजकता फैलाने का कसूरबार मानने लगे है  नतीजन केंद्र सरकार का और केंद्र के सत्तारूढ़ पार्टी  इनको खूब कोस रहे है ।


सवाल ये उठता है कि जब ये लोग आराजकता फैला रहे है तो फिर सरकार में इनको समर्थन क्यूँ दिया जा रहा हैं? जबकि दिल्ली प्रदेश के सत्तारूढ़ पार्टी के पास अब कोई विकल्प ही नहीं बचा यदि खुद ही इस्तीफा दे देती है तब भी नकुसान भुगतनी पड़ेगी और सरकार में रह कर लोगों से किये गए वायदे पूरा नहीं कर पाती है, उस हालत में भी ख़मियाज़ा इन्ही को उठानी पड़ेगी अर्थात दिल्ली प्रदेश के सत्तारूढ़ पार्टी  केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के चक्रव्यूह में इस कदर फंस गयी है जंहाँ से सरलता से निकलना हरगिज़ अब आसान नहीं और नहीं तो कुछ इस तरह का साथ गांठ इन दोनों पार्टी  के बीच में जिसे लोगों को समझने में देर लगेंगे जबकि ये दोनों पार्टी जान बूझकर इनको समझने देना नहीं चाहते हैं।


 केंद्र सरकार के अधीन दिल्ली का पुलिस और सी.बी. ई. हैं जिसको पिछले एक दशक से बड़ी चतुराई से इस्तेमाल करती आई हैं और इन्हींके दम पर केंद्र सरकार अपनेको अभी तक जीवित रख पाई हैं इसे आम आदमी भलीभाँति जानते है।  अब केंद्र सरकार ने जान चुकी है कि शायद आगमी चुनाव के पश्चात सत्ता में वापस आना सहज नहीं हैं परिणाम स्वरुप इनदिनों सी.बी. ई. के माध्यम से क्लीन चित का अभियान चलाये जा रहे हैं और अपने चाहने वाले को क्लीन चित बिना किसी बाँधा बात रहे हैं। जो सरकार पुलिस तंत्र के बल कई आंदोलन को रातों रात ख़तम करने का स्वाद चख रखी हो वह क्या इतने आसानी से किसी और को आंदोलन के जरिये चमकाने देते। आखिरकार आदोलन को वापस लेना ही पड़ा चाहे पुलिस का डर हो या जनता कि बेरुखी क्यूंकि जनता भी ये जान चुकी है फायदा किसीका भी हो नुकशान सिर्फ और सिर्फ जनता का ही होना है।


आज देश में पुलिस को सिर्फ लाठी भाजने के लिए, नहीं तो सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल की जाती जबकि कानून व्यवस्था का हालत दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। पुलिस जो देश के जनता का  जान-माल के सुरक्षा के  लिए प्रतिबद्ध होनी चाहिए वे सिर्फ सरकार और सरकार से जुड़े लोगो का सुरक्षा गार्ड बनकर रह गयी हैं। इसीका परिणाम हैं कि एक तरफ देश के आम आदमी अपने को असहाय और असुरक्षित समझने लगे है वही दूसरी तरफ महिलाये के आबरू भी महफूज़ नहीं हैं। सियासी नफे नुकशान के आध में पुलिस को पूरी तरह से संवेदनहिन् बना दी गयी है  कारण पुलिस लोगों का विस्वानीयता पूरी तरह खो चुकी है। इसी ही कारण जिन पुलिस के जिम्मा देश की कानून व्यवस्था को कायम रखने का काम है वही देश के कानून व्यवस्था को धजियाँ उड़ाने से बाज नहीं आते हैं ।  

दरशल में आरजकता का समाधान तभी मुमकिन हैं जब इनके तह में जाकर ढेरो ऐसे गम्भीर प्रश्न है जिनका उत्तर यथाशीघ्र ढूढने का पर्यन्त की जाय। उदहारणस्वरुप,  क्या कोई मैं हु आम आदमी का तोपी सिर पर पहन लेने से आम आदमी बन व हो जाता है ? देश में संवैधानिक पदो पर बैठे लोग आखिर कब तक अपनी जवाब देहि को भ्रष्टाचार के भेंट चढ़ाते रहेंगे? आम आदमी कब तक बेरोजगारी और मंहगाई से त्रस्त रहेंगे ? गाव जो आहिस्ता -आहिस्ता कर शहर से दूर होते जा रहे है, कौन और कब इसके बीच की खाई को कम करेंगे? आखिर कब तक पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को मजबूर रहेंगे? शुद्ध पानी और शौचालय  से कब तक आधी से ज्यादा आबादी वंचित रहेंगे, बगैरह ? एक तरफ जनता जो सरकार बनाती  हैं उनको भी अपने निजी हित का  ख्याल छोड़ कर देश के हित का ख्याल रखना होगा और अपने वोट को जब तक ऐसे  सुयोग्य ग्य उम्मीदवार के पक्ष में नहीं डालेंगे तबतक संवेदन शील और कर्त्तव्यनिस्ठ  सरकार का परिकल्पना करना कतई उचित नहीं होगा क्यूंकि देश के जनता को अपने संविधान के प्रति अटूट विस्वास रख कर अपने मौलिक अधिकार का जवाबदेही से उपयोग करना होगा जबकि सरकार जिससे जनता अपेक्षा रखती हैं कि हरेक बुनियादी सुविधाओं मुहिया करवाये  उनकें अपेक्षा पर जिम्मेदारी से खड़े उतरे और साफ सुथरी सरकार  की छवि जनता के समक्ष पेश करे क्यूंकि लोक (जन)  हैं तो देश हैं, देश हैं तो संविधान हैं अर्थात लोकतंत्र में लोक से बढ़कर कोई नहीं।  अन्तः संवैधानिक पदो पर बैठे लोगो को बिना किसी विलम्ब को इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करने के बजाय अपने जहन में गाठ बना लेना चाहिए और दिखावती के हितेषी बनने  के बदले जनता के दर्द और तक़लीफ़ से रुबरु होकर उनके हमदर्द बनकर उसे दूर करने की जरुरत ।

इन सबके वाबजूद यह तय करना अभी भी सरल नहीं है कि आराजकता कौन फैला रही हैं? सरकार अथवा जनता ! सरकार जो तकरीबन आज़ादी के पेंसठ साल  बाद भी जनता के अपेक्षा पर खड़ी नहीं उतरी या जनता जो आज़ादी के पेंसठ साल  बाद, आज भी उपेक्षा का शिकार हो रहे है,  अफसोश ! आज  भी अधिकाधिक लोग अपने मौलिक अधिकार को पूर्णतः जान नहीं पाये है व अपने वोट की ताक़त से  अनजान हैं । अन्तः सरकार और जनता दोनों को आत्मचिंतन करना ही चाहिए कि जो आरजकता का मौहाल बना हुआ है उसके लिए वास्तविक में जिम्मेवार कौन हैं ?, क्यूंकि वक्त रहते हुए इनसे निज़ात नहीं पाया गया तो आने वाले दिनों में इसका परिणाम काफी भयानक और उग्र होगा। 

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