मंगलवार, 17 दिसंबर 2013


 आखिर कबतक  …… ? 
( लालू और मुलायम के  जाति की राजनीती  पृष्ठभूमि  पर एक नज़र )


बेशक, भारत के लोग कभी भी जातिवाद , छूट - अछूत बंधन  को  तोड़  ना सका हो, वाबजूद इसके भारत जातिवाद  को आढ़े नहीं आने दिया और सदैव विद्वान और वीरो को पूजने में सब तबके लोक एक साथ दिखाई दिए उदहारणस्वरुप भगवान श्री कृष्ण जो यादव कुल में जन्मे थे , राम जो क्षत्रिय कुल में जन्मे थे या मुनिवर वाल्मीकि जो दलित कुल में जन्मे थे परन्तु  जब ब्राह्मण पाखंड  आडम्बर के लिए जाने जाते थे उस समय इन जैसे अनेक  महापुरषो को उनके योग्यता के आधार पर मान सम्मान देने में थोड़ी भी देर नहीं लगाई, उनके हिस्से के पुरे और निष्पक्षता से आदर और सम्मान दिए गए जिनके वे महापुरुषो हक़दार थे। विखंडित समाज एक साथ आकर उनको पूज्यनीय  और भगवान का दर्जा दिया। उन्ही पूज्यनीय महापुरुषो में से एक श्री कृष्ण थे जिन्हे ना  सिर्फ  हिन्दू समाज के  ब्लिक पुरेविश्व के प्रेरणास्रोत रहे हैं और आगे रहेंगे क्यूंकि उन्हें अपनी विलक्षण और अलोकिक प्रतिभा का  परिचय दिया हैं शायद उस भातिं कोई दिए और कोई दे भी नहीं पायेगे ।  वस्तुतः  कुरुक्षेत्र का युद्ध स्थल जंहा  भाई के सामने भाई,  जो एक दूसरे को खून बहा रहे थे उस युद्ध स्थल पर  गीता का स्वरुप प्रगट हुई जिसके कई अनगिनित वाक्य में कृष्ण ने अपने   सोच और दिव्यदृष्टि को  सहज और सरल  रूप से व्याख्या किये,  जो उनके वीरता  का प्रमाण तो देता ही हैं पर आत्मा और परमात्मा के सभी स्वरूपों पर उनका  जो कथन हैं  वे वास्तविक जीवन में  हर एक दुबिधा से छुटकारा दिलाने में अहम हैं जिसे हम रोजना रुबरु  होते इसलिए तो इस वैज्ञानिक और भौतिकवाद युग में भी उनका पुरुषार्थ पहेली बना हैं जिनका अंदाज़ा लगाने में कोई भी कामयाब अबतक  नहीं हुए।

इतिहास बदलते देर नहीं लगता, और आज के भारत में  यह कथन बिलकुल सटीक हैं। जिस कुल में भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया उन्हीके कुलखुट में कई  और महनुभाव भी अवतरित हुए जिन्होने  अपनी राजनितिक हित के लिए क्या नहीं किया। भारत के समाज को  इतने खंडित किये कि वर्ग से जाति और जाति से विजाति में विभिक्त कर दिए यद्दिप श्री कृष्ण पुनः आकर इनको जोड़ने का काम करे तो उनके लिए भी शायद आसान नहीं होंगे। अपनी हवस के खातिर पुरे समाज को अनगिनित टुकड़े करने में कोई कसर ना  छोड़ी पर इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता हैं कि इनसे किसी का फायदा नहीं हुआ हो, हुआ होगा पर दीर्घकालीन नहीं। कितनी विडम्बना हैं कि अंग्रेज आये और चले गए पर उनके ये मंत्र अभी भी  हमारे जहन में विद्दमान हैं और यदि सियासी गलियारो के कदरदानों के बात करेंगे तो चाह कर भी  वे नहीं भूल सकते क्यूंकि इन्ही के बलबूते जो बड़ी सी बड़ी चुनावी जंग को फ़तेह करते हुए आये हैं। 


 एक तरफ ये महापुरुष खुदको धर्मनिरपेक्षता  का रखवाला  साबित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं वही  दूसरी तरफ अल्पसंख्यक को सिर्फ वोट बैंक के तरह कैसे  इस्तेमाल की जाती हैं?, इनके हर हाथकण्डे के बारे में इन महारथीयो से बहुत कुछ सिखा जा सकता हैं। दंगे के आग  में सियासी रोटी कैसे सेकी जाती हैं ये काम भी इनके चुतिकियों का हैं। अल्पसंख्यक जिनके बल पर वे राजभोग भोगते हैं पर जब उनको  बुनियादी सहूलियत देने की बात हो तो कागज तक ही रह जाते हैं। कटाक्ष और व्यंग के  हिम्मत नहीं कर सकते हैं इनके इर्द गिर्द , क्यूंकि अभिव्यक्ति की आजादी जो आम आदमी का  मौलिक अधिकार हैं उसे भी हनन करने में इनको देर नहीं लगते। जेल आना  -जाना तो लगा ही रहता हैं, कभी उन आंदोलन के लिए जिनके बुनियाद पर आज देश के इतने बड़े जन- हितेशी बनके उभरे कि हित खुदका साध गए और जनता को अब आहिस्ता - आहिस्ता कर पीछे छोड़ते जा रहे हैं, तो कभी भर्ष्टाचार के लिए।  बेशक , जेल गए हो भर्ष्टाचार के आरोप में पर ये कहने से हिचकते नहीं कि कृष्ण भी तो जेल में पैदा हुए थे , दरशल ये किसीका मजाल भी तो नहीं जो  इनको समझाए कि भगवान जेल गए नहीं थे ब्लिक वँहा अवतरित होना पड़ा था  देवकी और वासुदेव के पुत्र के रूप में ताकि पापियो के नाश कर सके।

सचमुच में इन महापुरुष अगर किसी से डरते हैं  तो बस एक केंद्र सरकार से और उनकी सीबीआई  से इसलिए तो सबके शिक़वे सर आँखों पर लेते हैं पर जब बात आती हैं केंद्र में जो सरकार हैं उनकि खिलाफी करने की  तो सपने में  भी सोच नहीं सकते क्यूंकि उसके बाद शायद सपना देखना इनको खैर नहीं, इस बात क हमेशा अपने जहन में गाठ बना कर रखे हैं।

 हिंदुस्तान की राजनीती में मुख्य भूमिका कोई राज्य  का रहता  है तो वे  उत्तर प्रदेश उसके बाद बिहार का नाम आता हैं। सरकार कोई भी पार्टी बनाये किसी भी स्थिति में बनाये पर दोनों राज्यो को एक साथ अंदर अंदाज करके किसी भी हालत में  सरकार नहीं बनायीं जा सकती हैं।

 इन दोनों राज्यो की राजनीती में इन महापुरुषो  का किरदार इतनी अहम् है कि इनके बिना सियासी बयानबाज़ी और  दाव-पेंच का वज़ूद ही नहीं है।  अबतो शायद अनुमान लगाने के लिए ज्यादा दिमाग का खपत नहीं करना पड़ा होगा आखिर वे महापुरुष  कौन है।  एक जो महिला आरक्षण संसद में पास किसी भी हालत में अभी तक  पास नहीं होने दिया और यही मंसूबा इन्होने लोकपाल बिल  के संदर्भ में पाले थे लेकिन पानी फिरतें नहीं देर लगी जैसी  ही निविरोध लोकपाल बिल राज्य सभा सर्वसम्मति पारित हो गयी। अफ़सोस! उनके निर्थक का  उछल- कूद सार्थक का जामा नहीं पहन सका। 

दूसरे महानुभाव वे है जो आज के ही  शुभ दिन में जेल से रिहा हुए हैं  शायद आप भूलें नहीं होंगे कि पिछले ७५ दिन से राजनीती हलक़ों से गुम होकर पाँच साल की  सजा  जो चारा घोटाला में सुनायी गयी थी , उसीको भुगत रहे थे।  जी ! खूब पहचाना लालूजी की बात कर रहे हैं, क्या लालू के बिना बिहार की राजनीती में  कोई मायने नहीं है या कांग्रेस के लिए उनके शिवाय कोई और सहारा मिलता ना  देखकर  फिर से लालू को जेल  से बाहर  निकाल कर बिहार की राजनीती को दिलचस्प बना दी हैं, सीबीआई ने जिस कदर सुप्रीम  कोर्ट  में अपनी रबैया दिखाए हैं इससे यही कहना कतई गलत नहीं होगा।  अभीतक सीबीआई का काम -काज और सर्वोचय न्यालय की टिपण्णी से तो यही संकेत मिलता हैं कि  बिना सरकार के आदेश को कुछ भी जो  नहीं कर सकते  वे अचानक चुपी क्यों साध ली मतलब सरकार चाहती थी लालूजी को जमानत मिले और मिला भी।



 कांग्रेस चारो राज्यो के चुनाव में जैसे चारो खाने चित हुई इसीसे सीख लेकर अपनी खोई हुई ताकत को संचय करने के एवज में  या  हो सकता हैं बिहार में  नितीश के साथ सबकुछ साफ होता नहीं देख फिर से पुरानी गठवंधन को जीवित करने की  सोच हो। लालू की मोहजूदगी  जंहा कांग्रेस को  आगामी  लोकसभा चुनाव के लिए एक परिपक्क साथी  के रूप में होगी वही लालू को अपनी पार्टी को  देश और राज्य के राजनीती में फिरसे सक्रियता बढ़ाने का मौका मिलेगा। जैसे ही लालू  को पाँच साल का सजा का एलान हुआ राजनीती से सोच रखनेवाले ने  मान लिये  थे कि  लालू  और रजद का   भविष्य  अब आखिरी पराव में  हैं जो इत्तेफ़ाक़ से  गलत हुए। दूसरी तरफ कांग्रेस को  नितीश के ऊपर दबाव डालने में भी सहयोग मिलेगा लालू  के आनेसे जिससे नितीश अपनी आगे की रणनीति का खुलाशा  जल्दी करेंगे। लालू एक ऐसा शख्श जो बेवाक बोलते हैं, जो  राहुल के कावलियत अथवा  नेतृत्व पर पार्टी के अंदर हो या बाहर प्रश्न चिन्ह लगानेवाले की दिन प्रतिदिन तादाद जिस तेजी से बढ़ रहे थे , इस प्रतिकूल  हालात में  राहुल के वचाव में सामने आएँगे जिससे अंतहविरोधी पर अंकुश लगाने का काम करेंगे। 


जो भी  हो लालू की  उपस्थिति भारत और बिहार दोनों के राजनीती पृष्ठ भूमि पर महत्वपूर्ण स्थान हैं इस सच कभी  भी नक्कारा नहीं जा सकता हैं। आगामी लोकसभा का चुनाव देश और लालू दोनो के लिए बहुत अहम है । लालू की  जीत और हार रजद के भविष्य को पुनःनिर्धारण तो  करेगा ही वही देश का भविष्य भी आगमी लोकसभा के चुनाव में लालू और मुलायम के जीत और हार जमुहुरियत का एक नया अध्याय लिखेगा क्यूंकि इस तरह के  नेता का जीत फिरसे जाति और महज़ब के समीकरण में बदलाव के सभी अटकले को खारिज़ करेगा। कोंग्रेस को शायद आभास हो चला कि अब पुराने ढर्रे से राजनीती करना मुमकिन नहीं है इसलिए तो कलेजे पर पत्थर रखकर लोकपाल बिल को पास किये अन्यथा जगजाहिर हैं जो अन्ना के नाम पर चिढ़ते थे आज वे अन्ना के सामने नमस्तक क्यूँ हो गये?,  जिन्होंने जनलोकपाल आंदोलन को दफ़न करने के लिए सबकुछ किया, जो नहीं करना चाहिए था फिर अचानक एक साल में क्या हो गया कि सर्वसम्म्ति उसी लोकपाल बिल को पारित किये ? हँ स्वरुप को थोडा अपने अनुकूल बना रखा हैं जिसको दुरुस्त करने का अभी भी बहुत गुंजाइस हैं।

 लालू  जो जेल से  निकलते ही मोदी को चुनौती देने में देर नहीं लगाया, क्या उनमें अब भी वही जज्वा और लोकप्रियता हैं कि मोदी का मुकबला करे क्यूँ कि इन जैसे नेता सिर्फ जाति के नाम पर वोट हासिल करते हैं, विकास और भ्रष्टाचार इनका ना  कभी मुद्दा हुआ हैं और ना होने का आसार हैं ऐसे में  क्या खुदको टटोलने कि जरुरत नहीं  हैं ?  एक तरफ मोदी के हवा को हवा हवाई बनाने के लिए लालू , मुलायम जैसे नेता कोई भी  कसर नहीं छोड़ने को राजी हैं  वही मोदी को इनके जाति के बलबूते का राजनीती के चक्रव्यूह को तोडना आसान नहीं होगा। ये आगमी लोकसभा चुनाव  उन जनता के सोच को  जो मुख्यतः इन जैसे नेता का पारम्पारिक वोट बैंक रहा  हैं,  परखने का जरिया भी बनेगे क्यूंकि इस चुनाव के बाद तो ये तय होना स्वभाविक हैं  कि जनता जाति और धर्म  के आधार पर  अपनी वही  पुराने जन प्रतिनिधि को आगे करती हैं या देश के तमाम  जटिल समस्या जो कई दशको से जुंझ रहे हैं,  इन सभीका  निदान करने वाले जनप्रतिनिधि को आगे करती हैं।


आखिरकार, जो जनता जनार्दन का फैसला होगा वही सर्वमान्य होगा। अन्तोगत्वा, इन दोनों महापरुषो ने दो दशक  पहले  जाति के जो  वीज राजनीती के धरातल पर बोये, वे वृक्ष अभी भी फल और  छाया इन्हे देने में सक्षम हैं अथवा उनके जड़ कमजोर पर गए ये लोकसभा चुनाव के बाद ही सिद्ध हो पायेगा।

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