मंगलवार, 31 दिसंबर 2013


आप सभी को मंगलमय और प्रगति के प्रतिक हो २०१४

फिरसे अपनी प्रयास को बल देकर विफलता को करे तेहरवी ,
नई उम्मीद के रशिम के संग दस्तक दी प्रभात ओ चौहदवी
आपके अरमानों को पंख लगे, छोता पर जाये गगन
हर्षो -उल्लास से करे स्वागत नया शाल का आगमन


     

सोमवार, 30 दिसंबर 2013



क्यूंकि मौका न मिला   …………………!!

मौका परस्त इस जहांन में सब रहतें हैं यहाँ मौक़ा के ताक में
मिले तो अरमानो को पंख लगते हैं, न मिले तो रह जाते खाक़ में
इतरा न अपनी इस फ़ज़ल पर , जाकर पूछों उनसे जिन्होंने हमे रोका
मेरी सोंच में भी जीत की बू आती थी पर नाइत्तिफ़ाक़ी जो कर गए मौका

कोशिश के बुनियाद पर सोच को बल देता पर मौका न मिला
अगर कोई  शिक़वा हैं खुदा से तो बस इक, कि मौका न मिला

मैं किनारा नहीं धारा  हूँ पर रवानगी का मौका न मिला
खुदको साबित करने की जिद्द थी  पर मौका न मिला
जज़बाती तो मैं भी हूँ बहुत ,बयाँ करने का मौका न मिला
अपनी ही आग में हर चाह को जलादी क्योंकि मौका न मिला


 चाँद से रुबरु होकर पूछता तेरे दामन ये दाग क्यूँ पर मौका न मिला
 नूर - ए - आफ़ताब  अपने आग़ोश में भर लेता  पर मौका न मिला
मुखोटे के पीछे का असलियत से मुखातिर कराता पर मोका न मिला
 बंद कमरे की साज़िश को सरे- ए  -आम करता पर मौका न मिला


गांधी की आंधी हो या अन्ना का मुहीम,
नसीब हुई कामयाबी मौका के ही अधीन
मोदी का मिशन -ए - हिंदुस्तान
केजरीवाल का झुझाड़ू  अभियान 
सपने सब अधूरे हैं अबतक क्यूंकि मौका न मिला
सपने सच होंगे चन्द दिनों में जबतक मौका न मिला


गरीबी किसीकी  फिदरत में नहीं पर मजलूम हैं वह शायद  कि मौका न मिला
उनकी मायूसी बयां करती हैं गरीबी - नुमाइश का रहनुमाई मोका न मिला
मैं आम हूँ, अज़ीम के उम्मीद में जी रहा हूँ भलें मौका न मिला 
मिटटी के इंसा खुदको खुदा मान लेता खैर ओ मौका न मिला 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

प्रकृति का दोहन मतलब भविष्य का रोदन


ईन दिनों जिस तरह से  प्रकृति का दोहन हो रहा हैं इसीकारण प्रकृति अपनी आपदा से हमें चेतावनी देती रहती हैं कि उनको अगर दोहन करना यथाशीघ्र नहीं त्यागा गया तो इसका दुष्परिणाम इतना गम्भीर होगा जो किसी  कमायत से कम नहीं।  उत्तरांचल की त्रासदी हो या  फैलिने का ओ भयानक रूप,  देखकर पूर्वानुमान तो लगाये ही जा सकते हैं  कि चेतावनी यदि इस तरह का हैं तो  दुष्परिणाम कितना भयावह होगा। इस तरह के चेतवानी से हमे सीख लेने के वजाय हम गलती को बार बार दोहरा रहे हैं जो बेहतर कल को  अभिसाप का शक्ल देगी।
देश के जितने भी नदी और पहाड है उनपर माफियाओ का नज़र लग गए हैं एक तरफ नदी को कुरेद कुरेद कर उनकी वज़ूद को मिटने में लगे है  वही पहाड़ को तोड़ कर रोड़ी और सीमेंट का शक्ल देकर बाज़ार के हवाले कर दिए जाते हैं फिर भी जी नहीं भरता हैं तो पूरी तरह से ही विलुप्त करने के  फ़िराक़ में लग जाते हैं उनके कलेजा को काटकर बड़े बड़े अपार्टमेंट खड़ा कर देते हैं।

हमारे देश में तीन पवित्र नदिया है जिसे त्रिवेणी के नाम से हम जानते हैं उन तीनो नदी में से एक नदी यानि सरस्वती विलुप्त हो गयी हैं जबकि  यमुना विलुप्त होने कगार पर खड़ी हैं वही गंगा मैली होती जा रही हैं।

यमुना की सफाई अभियान 

यमुना की सफाई के नाम पर १५००-२००० करोड़ फण्ड अबतक  खर्च किये गए हैं फिर  भी जब यमुना के प्रदूषित क्षेत्रफल घटने के बजाय बढ़ गये  कितनी हैरानी की बात हैं  इतने सारे रुपैये तो खर्च किये गए यमुना की शुद्धिकरण के वास्ते पर परिणाम विपरीत कैस हो गए ?  इस सच को सिरे से ख़ारिज भी  नहीं की  जा सकती अर्थात समस्या यह है की दिल्ली  में गन्दा पानी के शुद्धिकरण सयंत्र का क्षमता उतना नहीं हैं जितना रोजाना दिल्ली में गन्दा पानी (generate ) पैदा होता हैं, लगभग में १५%-२०% गन्दा पानी यमुना में बिना शुद्धिकरण के प्रवाह (discharge ) किया जाता हैं।  यमूना हरियाणा राज्य से निकलकर दिल्ली होकर उत्तरप्रदेश तक जाती हैं इसलिए गन्दा पानी दिल्ली के अपेक्षा हरियाणा और उत्तरप्रदेश से काफी ज्यादा बिना शुद्धिकरण के प्रवाह किया जाता हैं। दूसरी तरफ से जो कारखाने अभीतक गन्दा पानी शुद्धिकरण सयंत्र नहीं लगवा पाये और लगाकर भी नहीं चला पाते हैं वे भी बेहिचक कारखाने का गन्दा पानी यमुना में ही प्रवाह करते हैं। अभीतक इन राज्यों के सरकार का यमुना के प्रति जो उदासीन रवैया देखा गया हैं जो काफी चिंतित करने वाली बात हैं। यदि यमुना की सफाई के प्रति आम आदमी और समाज सेवी संस्था काफी जागरूक  हैं  इसलिए तो कई समाज सेवी संस्था सामने आकर यमुना की सफाई अभियान में हिस्सा ले रहे हैं उसी प्रकार सरकार को भी इसके लिए जरुरी और कारगर कदम उठाने की जरुरत हैं।

गंगा बचाओ आंदोलन

गंगा इस देश की ही नहीं ब्लिक पुरे विश्व का  धरोहर हैं और गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती है। जिस गंगा में पुरे हिन्दू समाज और हिन्दू धर्मं के आस्था वसते है अर्थात इसमें  डुबकी लगा कर  ही वे खुदको ध्यन समझते हैं  इसलिए तो गंगा  पापनाशिनी कही जाती हैं। जिस गंगा का पानी शोद्धकर्ता के लिए पहेली का विषय बना हुआ हैं कि आखिर गंगा का पानी में कौन सा कंपाउंडस जो इन्हे सालो तक कीड़े पनपने से रोकता हैं वही अध्यात्मिक ग्रन्थ में भी  गंगा का पानी का बड़ा ही महत्व हैं पर आज गंगा का जो पानी हैं पीने योग्य नहीं है ये कहने में थोडा भी  संकोच नहीं किया जा सकता। गंगा जो गंगोत्री से निकल कर गंगा सागर में विलीन होती हैं। इस भौतिकवाद युग में विलासता के लिए ओ सब कुछ करने के लिए बाध्य हैं चाहे वे उचित और अनुचित हो,  इस विलासता सामग्री को इकट्ठा करने से लेकर इनके उपयोग तक हमे ऊर्जा की  आवश्कता होता हैं   ऐवज में  हम एक तरफ ऊर्जा पाने के लिए हर ओ लक्ष्य साधते हैं वही दूसरी तरफ प्रकृति और पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़  करते हैं फलस्वरूप बिजली उत्पादन हेतु गंगा की दिशा को ही दिशा हीन कर दिये हैं  सैकड़े -हजारो बांध बना कर।  पापनाशिनी गंगा जो अपने  बल पर उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश , बिहार, झारखण्ड  और पश्चिम बंगाल को दिशा और वजूद दिए  हैं आज इन राज्यों के आर्थिक योगदान में भी  महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गंगा माफियाओ और कारवारियो के  नज़र का  भेंट चढ़ गयी वही इन राज्यों के सरकार की  बेरुखी का भी शिकार बन पड़ी हैं। इन पांचो राज्यो के तक़रीबन गंगा में २ करोड़ ९० लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिर रहा है। आखिर गंगा इन कचरे के बोझ को कितना और कबतक सहे परिणाम स्वरुप  विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-प्रदेश की १२ प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल हैं और आज गंगा स्नान करने योगया नहीं रही। माफियाओ और सरकार की मिली भगत से एक तरफ सैंड  माफिया ने इन्हे खोद -खोद कर इनके रूप को  कुरूप कर दिए तो दूसरी तरफ भू माफियो ने इनके  तट और छोटी छोटी नदी को भराव करके उसके ऊपर आशियाना बना दिए  इसीकारण मानसून के मौसमं में  सिमित क्षेत्रफल के कारन इनके जलस्तर बेइंतहा  बढ़ोतरी होती है नतीजा हज़ारो -लाखो गाव को अपने आगोश लपेट लेती हैं। हलाँकि इनदिनों सरकार और माफियाओं  के प्रति लोगों का जो आक्रोश हैं वह गंगा बचाओ आंदोलन का रूप ले चूका हैं। अब देखना हैं सरकार गंगा को बचाने के लिए कौन सी सोच को बल देती हैं या यूँ चुपी साधी रखती हैं।

 सरकार की उदासीनता सबसे बड़ी वजह 

जहाँ हमे  नदियो के सफाई अभियान में अहम् योगदान देना हैं  पर भूगर्भ जल (underground  water ) का जो स्तर तेजी से नीचे जा रहा हैं भूगर्भ जल के मापदंड में अचानक  जो वदलाव हुए इसके लिए हम अगर अभी  सजग नहीं हुए तो भविष्य में वाटर वार  का जो कल्पना  की गयी उनको  हक़ीक़त के रूप लेने में हमे शायद वर्षो इंतज़ार नहीं करने पड़ेंगे। भूगर्भ जल का संचय  का मुख्य जरिया  वरषा का पानी ही हैं और इसके लिए जल संचय  प्रणाली(water Harvesting ) के ऊपर जोड़ देना हैं । वस्तुतः  अधिकाधिक लोंगो को इसके बारे जानकारी नहीं हैं  पर उद्योगिक संस्थान  में इनकी अनिवार्यता होने के कारन इन प्रणाली को कागजी रूप में तो  उद्योगिक संस्थान में अधिष्ठापित कर लिया जाता हैं पर कितने प्रतिशत तक  वरषा का पानी को संचय कर पाते हैं इसके निरिक्षण का कोई कारगर यन्त्र नहीं हैं फलस्वरूप अनुमान के आधार पर ही जल संचय  प्रणाली काम कर रही हैं।

३% प्रतिशत जल पीने के योग्य अन्यथा ९७ प्रतिशत जल पीने योग्य नहीं  हैं इसी ३ % प्रतिशत में नदी का जल , झीलका जल और भूगर्भ जल भी आता हैं परिणाम स्वरुप विकल्प सिमित हैं।  जल जितना ही जीव -जंतु के जीवीत रहने के लिए अनिवार्य हैं उतना ही हमारे रोजमर्रा के वस्तु के उत्पादन के लिए भी अनिवार्य हैं। देश की अर्थ व्यवस्था में पानी का बड़ा ही महत्व हैं जिस तरह शुद्ध पानी के बिना प्राणियो का जीवीत रहना कथाचित असम्भव हैं उसी प्रकार शुद्ध पानी के आभाव में न ही कल कारखाने को चलाये जा सकते और न ही खेती की  जा सकती हैं। इसलिए तो पानी को अमृत की संज्ञा दी गयी हैं।



 परन्तु सरकार ने इसके प्रति कभी उत्कृष्ट कदम नहीं उठाई और इसी लचर और भर्ष्ट नीति के कारन एक तरफ जंहा उद्योगिक संसथान में आवश्यकता से कँही  ज्यादा भूगर्भ जल को उपयोग में लाते दूसरी तरफ गन्दा या दूषित पानी को शुद्धिकरण के नाम पर ढकोसला करते हैं। सरकार से NOC लेने के लिए अत्याधुनिक पर्दूषण नियंत्र सयंत्र लगा तो लेते हैं   NOC प्राप्त करने के  पश्चात बहुत कम ही उद्योगिक संसथान जो पर्दूषण नियंत्र सयंत्र लगातार चलाने में रूचि नहीं  दिखाते और न ही पर्दूषण नियंत्र परिषद् के कसोटी पर खड़े उतरते हैं। इसके लिए उद्योगिक संसथान तो दोषी हैं ही  जो उत्पाद लागत कम करने के लिए पर्यावरण के प्रति संवेदनहीनता दिखाते हैं पर हमारे सरकार भी कम दोषी नहीं हैं जो कानून तो बना दी पर सख्ती से लागु करवाने में जो सरकार की असहजता दिखती  हैं इसीका परिणाम है  सरकार के बड़े अफसर से  निरिक्षक तक  मानदंड के नाम पर रिश्वत  लेकर कागज़ में सब कुछ ठीक ठाक कर देते है।  नतीजन  यह रिश्वत देकर उद्योगिक संसथान जवाबदे ही से पला झाड़ लेते हैं जबकि  पर्दूषण नियंत्र परिषद् के अफसर इसे रिश्वत का जरिया बना कर पर्यावरण के नाम पर खानापूर्ति  करने में लगे रहते हैं।  देश के अधिकतर उद्योगिक क्षेत्र का  भूगर्भ जल इतने दूषित हो गया हैं इसे पीने में उपयोग लाना मतलब मौत को दावत देना।

 वायुप्रदुषण में बढ़ोतरी  शुभ संकेत नहीं हैं

 यही कमोबेश हाल वायु प्रदुषण को लेकर भी हैं आज देश के सभी शहर के वायु के मापदंड कभी भी पर्दूषण नियंत्र परिषद् कसोटी पर खड़े नहीं उतरते हैं । वायु प्रदुषण से होने वाले स्वस्थ्य प्रभाव जैविक रसायन और शारीरिक परिवर्तन से लेकर श्वास में परेशानी, घरघराहट, खांसी और विद्यमान श्वास तथा ह्रदय की परेशानी होती  हैं इनसे परेशानी से शहर के ज्यादातर लोग रुबरु होते जा रहे हैं। दिल्ली विश्व के सबसे वायु प्रदूषण से प्रभावित शहरों में से एक हैं पर विश्व के अन्य सबसे प्रदूषित शहर को प्रदुषण से मुक्ति दिलाने के लिए एक से एक अत्याधुनिक प्रदुषण नियंत्रण तकनीक के ऊपर काम कर रहे वही भारत सरकार इसके लिए अभी तक कोई प्रभावी कदम उठाने में नाकामयाव साबित हुई है  शिवाय सार्वजानिक मोटर गाड़ी  में CNG ईंधन अनिवार्यता। कभी कभी तो दिल्ली  में स्मॉग के कारन कोहरे नज़र आने लगते फिर भी हमारी सरकार आँखमुंड कर बेठी हुई  है जो आनेवाले पीढ़ी के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। यदि कार्बन और सल्फर की मात्रा यूँ ही उत्सर्जित होते रहे तो वे दिन दूर नहीं  कि हमारे शहर में रहने वाले बच्चों में कम जन्म दर के अतिरिक्त अस्थमा (asthma), निमोनिया (pneumonia) और दूसरी श्वास सम्बन्धी परेशानियाँ विकसित हो जायेगी।  युवाओं के स्वास्थ्य के प्रति सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार को चाहिए कि  बिना देर किये उपयुक्त कदम उठाये।

 विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि

 आज विश्व के सभी देश विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि को लेकर चिंतित है और आत्मा मंथन करने के लिए आतुर है कि आखिर  विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि किस तरह से सामान्य किया जाय क्यूंकि अन्यास तापक्रम वृद्धि से प्राकतिक  आपदाओ के आने का सूचक हैं।  विश्व के प्रायः सभी देश प्राकतिक  आपदाओ से झुंझने को मजबूर हैं।  यदि पर्यावरण और पृकृति के साथ यूँही खिलवाड़ करते रहे तो वे दिन दूर नहीं जब इस अनमोल विरासत को खो देंगे इसके लिए सरकार के साथ साथ हमलोगो को भी अग्रसर होने पड़ेंगे और इनको बचाने केहर उस प्रयाश को बल देने होगे जो इन धरोहर के बचाने  में अहम् भूमिका निभा सकते हैं।
निम्नलिखित वाक्यो को ध्यान में रख कर इनके ऊपर अमल की जाय तो पर्यावरण और पृकृति को बचाने के संदर्भ में उल्लेखनीय योगदान साबित होगा ;
१. अधिक से अधिक पेड़ लगाये।
२. शुद्ध जल का दुरूपयोग रोके।
३. उद्योगिक संसथान को चाहिए कि प्रदूषित पानी को  इस प्रकार  से शुद्धिकरण करे ताकि पुनः उपयोग ला सके। 
४.  सार्वजनिक परिवहन का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करे।
५. नदी और पहाड के साथ छेड़ -छाड़  पर रोक लगे। 
६. आतिशवाजी को रोका जाय। 
७. जल संचय प्रणाली को कारगर बनाने के लिए जागरूक अभियान सरकार के तरफ से चलाये जाय। 
८. पर्दूषण नियंत्र परिषद् अथवा कमिटी को अधिक  सशक्त और जवाब देहि बनाया जाय। 
९. मोटर प्रदुषण नियंत्र   प्रणाली को और अत्याधुनिक की जाय
१०. पर्यावरण और प्रकृति को राष्टीय धरोहर घोषित की  जाय और इसके रख रखाव के लिए सरकार फण्ड मुहैया करे। राज्य सरकार की जवाबदेही को बढ़ायी  जाय। 

उपरोक्त दिये गए सभी सुझाव के ऊपर सरकार के साथ-साथ हमे भी काम करने की  जरुरत है नही तो हमारे आनेवाले पीढ़ी  सदैव हमे  कोसते रहेंगे क्यूंकि हमारी ये लापरवाही  पर्यावरण के प्रति, उन्हें प्रकृति जो विरासत में मिलेंगे वह सिर्फ अभिसाप बनके रह जायेंगे। 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013


ये  भी बताओ   कि विधान सभा जाओगे या रामलीला मैदान में विधान सभा लगाओगे?'

देखिये कल दिल्ली के गद्दी पर आम आदमी के दुखचिन्तक और आम आदमी के अधिकार के प्रति कटिबद्ध  श्री श्री १०८ महा मोहोपध्याय मानिये अरविन्द कजरीवाल विराजमान होंगे अन्तः आप लोंगो से अनुरोध है कि झाड़ू सहित पधारे रामलीला ग्राउंड में। अरविन्द कजरीवाल हाथ जोड़कर अभिनंद ले रहे थे तभी  एक पुलिस के आला अधिकारी  आकर कहते हैं " केजरीवाल साहब, आप  को सुरक्षा की  जरुरत है देखिये मना नहीं कीजिये क्यूंकि आपकी सुरक्षा कि गारंटी अब हमारी हैं, भगवन न करे कुछ ऐसा -वेसा हो गया तो मेरी   ……  ''

"आपको  परेशां होने की जरुरत नहीं हैं जब जरुरत होगी लेलुंगा, मुख्यमंत्री बनने को मैंने कब सोचा था पर आज बनने जा रहा हूँ इसी तरह जरुरत होगा तो सुरक्षा और बंगला भी लेलूंगा।"  अचानक एक औरत की आवाज केजरीवाल के कानो  को छूती  हैं जेसे ही आवाज की तरफ घूम कर देखते हैं तो नजारा देखकर हैरान रह जाते हैं।  देखते हैं कि एक औरत अपनी पत्ति को झाड़ू से पीट रही है और बेचारा पत्ति भाग रहे हैं।

"जब से झाड़ू पार्टी क्या जीती ये झाड़ू को लेकर सिरहाना में रख दिया और हमेशा कहता है कि अब झाड़ू से घर में झाड़ू नहीं लगेगी सिर्फ संसद और विधानसभा  की इनसे सफाई होगी। अब इनको कौन समझायेगा कि झाड़ू आखिर झाड़ू होता हैं इनका काम होता सफाई  करना।  पिछले ८ तारिक से घर में झाड़ू नहीं लगाई। झाड़ू ढ़ुढ रही थी गलियारे में पर  मिली नहीं आज सिरहाने के नीचे देखि तो मिली। एक तो दिल्ली गद्दी पिछले २० दिन आश लगा कर बेठी हैं कि कब झाड़ू वाला आएगा जमी हुई धूल से निजात दिलाएगा पर रोज एलान होता हैं पर कब…… " औरत कहती हुई अरविन्द केजरीवाल के समीप पंहुच गयी।

"देखो मैडम, पत्ति  को छोड़ दीजिये अब झाड़ू को झाड़ू नहीं समझिये ये आम आदमी के सिम्बॉल हैं इसलिए इनका सम्मान कीजिये" केजरीवाल चुप हो ही पाता कि औरत चिल्लाकर बोली "तो क्या इनसे साफ करना छोड़ कर तिजोरी में रख दू या देवालय में।" जबसे जीते हो झाड़ू लेकर नाचने लगे हो अबतो रामलीला मैदान को केजरीलीला मैदान बना दिया, ए  भी बताओ   कि विधान सभा जाओगे या रामलीला मैदान में विधान सभा लगाओगे?'

अरे भाई शीला दीक्षित को जीतने के लिए जितना  सवाल का जवाब नहीं देना  पड़ा उतना इस मैडम को देना पड़ेगा, गाड़ी को थोडा तेज चलाओ, निकल लो यहाँ से।"

दरशल में दिल्ली की पारा  जितना  नीचे  गिर रहा हैं  उतना ही सियाशी पारा ऊपर चढ़ रहा हैं।  एक अरविन्द केजरीवाल जो हँ - ना के बीच से जरुर खुदको निकल पाये पर सरकार कब बनायेगे ये अभी भी शुनिश्चित नहीं हैं हालाँकि २८ दिसंबर का मुर्हत के मदेनज़र रामलीला मैदान में  तैयारियां  जोर-सोर की  जा रही हैं।

इन बीच दिल्ली की  राजनीति का दाव-पेंच उत्तर- प्रदेश में बनाये जा रहे हैं,  जी हँ ,  ग़ाजियाबाद  के कौशम्बी में।

एक तरफ दिल्ली में झाड़ू  डांस का शो चल  रहा हैं वही कांग्रेस पशोपेश में हैं कि आगे रणनीति क्या होगी।

जो भी हो समझोते की शादी का तलाक़ तो होना ही है उस परस्थिति में जँहा दोनों एक दूसरे की मटिया पलिट करने में थोड़ी भी हिचकते  नहीं हैं।  अरविन्द केजरीवाल की सरकार को लेकर सबसे ज्यादा हतोषाहित कोई हैं तो  BSES और DJB हैं आखिर एक तरफ बिजली की बिल में ५० प्रतिशत की कटौती करना BSES के लिए शायद मुमकिन नहीं हो वही दिल्ली जल बोर्ड को फ्री के पानी देना भी न सुहायेगा,  पर करे क्या ?

इसलिए तो इन समझोते के शादी के बदले तलाक़ पहले हो जाय इन-दोनों के तो ऐसे ही मनसूबे होंगे, अफशोस ये अधुरे ही रहेंगे।

बीजेपी ख्याली पुलाउ पका रही हैं कि जो भी जल्दी हो क्यूंकि इनदोनो कि  शादी हो या  तलाक़ पर इनसे  किसी का फायदा  अगर होता दिख रहा है तो वे बीजेपी पार्टी हैं  पर इतना भी ख्याली पुलाउ चट करने की जरूरत हैं नहीं बदहज़मी तो  पक्की होगी और इसके बारे में किसी से पूछना हैं तो आडबानी जी आपके ही पार्टी के हैं उनसे जाकर   पूछिए क्यूंकि उन्होंने कई बार ख्याली पुलाउ खाये  और इसका शिकार हुए हैं बदले में  बदहज़मी के शिवाय कुछ भी नहीं मिला और अब तो ख्याली पुलाउ खाने पर भी रोक लगा दिए गए हैं।

बुधवार, 25 दिसंबर 2013














आज की राजनीती बस एक मौका के इर्द-गिर्द घूमती है.…।

मुलायम सिंह यादव  कहते हैं कहते हैं दंगा पीड़ित के शिविर में कांग्रेस और बीजेपी के कार्यकर्ता हैं कोई  इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखता हो या नहीं पर राजनीती में इस तरह के हथकंडे रामबाण का काम करते हैं।  इस रामबाण से विपक्षी को झट से चुप तो  कराही देते हैं वही जनता के समक्ष विपक्षी के सिरे मडकर  अपने को सभी आरोप से  न सिर्फ अलग कर लेते हैं ब्लिक खुद तो चैन के साँस लेते ही हैं विपक्षी को भी किसी कोने पकड़ने को मज़बूर कर देते हैं। बात तो सही है  मुलायम जी, यदि फायदे लेने  की  बात हो तो आप के कार्यकर्ता हैं पर जब मदद करने की  बात  हो तो कांग्रेस और बीजेपी की।

जो लोग शिविर में बैठे हैं वे हालत  के जरुर मारे हुए हैं पर इंसान हैं और इंसान एक ऐसा प्रजाति हैं जो मौका परस्त होते हैं वे लोग भी उन मौका के ताक में होंगे कौन किसका कार्यकर्ता वे है वास्तव में इनका आपको पता करवायेगा ।

वेसे इन दिनों राजनीती में कौन किसका कार्यकर्ता हैं इसका पता लगाना आसान नहीं हैं क्यूंकि राजनीती एक ऐसी नीति है जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं हैं इसलिए तो राजनीती में कोई अछूत नहीं हैं और ना ही किसीको भी किसी से परहेज़ हैं। अवसरवादी इस परंम्परा में बस हर कोई एक मौका के तलाश में रहते हैं। इसीलिए तो आज आआप  कोई मौका नहीं छोड़ते हैं कांग्रेस को गाली देने का पर इन  मौकाओ के बीच यदि कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का मौका  भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। बेचारे, कांग्रेस आज मुखबधिर होकर सब कुछ सुनने के लिए वाध्य हैं क्योंकि कांग्रेस भी एक मौका को खोज रही हैं अन्यथा एक गाली देने वाले को गद्दी का भोग कैसे भोगने देते।

राजनीती बस एक मौका के इर्द गिर्द घूमती हैं दरशल में राजनीती में कोई न अपना और न पराया होता हैं जिनसे राजीनीति का मनसा पुरे होते दीखते हैं उसीके पिछलगुआ बन जाते हैं।  नहीं तो लालू और मुलायम कांग्रेस के विकल्प में थे पर अब वे कांग्रेस में विलीन हो गए इसीका नतीजा हैं कि आज प्रदेश की  राजनीती को देश कि राजनीती से अलग रखे जाते हैं फलस्वरूप देश और प्रदेश की राजनीती मुद्दे से लेकर गठबंधन को लेकर दूर दूर तक कोई समानता नहीं रहते हैं। नितीश कुमार जिन्हे  एक मौका मिला फोरन NDA से अलग होकर कांग्रेस का समर्थन ले लिए और कांग्रेस भी उन समर्थन  देने  के बदले में नितीश कुमार से  कुछ इस तरह का ही अपेक्षा रखती हैं पर नितीश को ऐसा  मौका मिला नहीं जो कांग्रेस की  खातिरदारी करे।

राष्टीय पार्टीयाँ  हो या क्षेत्रिये पार्टीयाँ  हर कोई मौका के ताक -झांक में लगे रहते हैं जैसे मौका मिला सारे बंधन तोड़ कर अपने हित को साधने में लग जाते हैं।  जिस देश में मौका परस्त राजनीती का दौड़ चल पड़ा उसमे कौन और क्यूँ आम आदमी के हित को आगे करे ?

आआपा हो या बीजेपी या कांग्रेस इनके भिन्नता और समानता का गणना करने के वजाय मौका का गणना करके उनके काम -काज का आकलन करे तो इन पार्टी के गुणवत्ता अपने आप  परिचित हो जांएगे क्यूंकि आआपा भी एक मौका का ही देने हैं और इनकी अस्तित्व में आना भी अवसरवादी परंम्परा का ही प्रतीक हैं।

सोमवार, 23 दिसंबर 2013


अब होंगे पुरे सारे अपने सपने!!


कल दिल्ली के फ़िज़ा में आम आदमी का गुल्फ़ाम महेकगी, हर तरफ आम आदमी का ही जलवा होगा, शहर -ए - तमाम इनका जो गवाह बनने जा रही है ,  आखिर आम आदमी का पुरे होंगे सारे सपने जो दिल्ली के जनता ने  दिल्ली के सरकार के लिए देखे थे  वही लोग जो जमुहुर्रियत में आस्था रखनेवाले हैं  और एक अर्शे से देखते आ रहे हैं। फिर भी  यह दुबिधा अब भी मन में घर बना कर बेठा हैं दिल्ली वासी के जहन में कि वाकये दिल्ली को नई वही सरकार मिलने जा रही हैं , क्या सचमुच में अब उनके सब सपने साकार होंगे ?
एक तरफ जँहा दिल्ली में आम आदमी के आलाप करनेवाली आप की सरकार बनने जा रही पर इन  पार्टी के लिए दिल्ली के जनता  के उम्मीद पर खड़े उतरना, हिमालियन एंड हरक्यूलियन टास्क से कम नहीं हैं। दिल्ली के जनमानस को  पिछली सरकार के प्रति जो आक्रोश थी उसकी नतीज़ा हैं कि आप  आज सरकार बनाने  जा रही हैं जिनकी पहली वरसगाँठ अभी कुछ महीने पहले ही मनाये गयी हैं।

जंहा एक तरफ कांग्रेस और बीजेपी के सियासी आक्रमण का जवाब "आपको" ढूढनी  होगी वही दूसरी तरफ दिल्ली के जनता से किये गए वायदा पुरे करने होगे जो आप ने इस चुनाव के दौरान  किये थे। अरविन्द केजरीवाल जो राजनितिक धरातल पर हाल में ही अपने कदम रखे हैं, इनके लिए दिल्ली को एक ऐसी सरकार देना जिसकी पहली प्राथमिक्ता यहाँ के आम आदमी होगी, उनके लिए बहुत ही कठिन होगा।  दिल्ली, किसी भी राज्य के मुकावले यंहा खाश आदमी के तादाद इतने  हैं कि राज्य के ३०  प्रतिशत से ज्यादा सुरक्षा बल इनके सुरक्षा में दिन- रात लगे रहते हैं ऐसी स्थिति में अरविन्द केजरीवाल कितना आम आदमी के सुरक्षा की  गारंटी से सकते हैं ? इन बातों  से इत्तफ़ाक़ रखने वाले बहुत कम ही होगे। इसलिए आम आदमी दिल्ली में खुदका सुरक्षा अरविन्द केजरीवाल के  वजाय ऊपर वाले के भरोषे  करे तो शायद बेहतर होगा क्यूंकि दिल्ली में पुलिस तंत्र  केंद्र के गृह मंत्रालय के अंदर आती हैं इसपर  दिल्ली सरकार का कोई नियंत्र नहीं हैं।  इसलिए सुरक्षा की अपेक्षा अरविन्द केजरीवाल से करना सरासर बेईमानी होगी। 
दूसरा अहम् मुद्दा हैं मंहगाई,  चाहे बिजली, पानी हो या रोजमर्रा के जरुरत के सामान हालाकिं आपके चुनावी एजेंडा में इनसे निजात दिलाने का भरोषा तो दिया गया हैं पर यंकी अभी भी नहीं की जा सकती कितना भी करले बिजली का दाम ५० प्रतिशत कम करना हैरतंगेज़ कारनामा होगा जो कतई सम्भव नहीं हैं। यदि रोजमर्रा की जरुरत के सामान कि बात करेंगे तो ये भी अभी मुमकिन न  हैं इस प्रतिकूल परस्थिति में जब   पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के  दाम में बेइंतहा इजाफा हो रही हैं। अगर सरकार चाहेगी तो पानी के बिल में थोड़ी बहुत सब्सिडी दी जा सकती, पर इसके संदर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता हैं। 
भर्ष्टाचार पर सरकार संज्ञान लेने में थोड़ी भी देर नहीं करेगी क्यूंकि आनेवाली सरकार इसी मुद्दे के बलबुत्ते हो सकता हैं अपनी सरकार की छवि पिछली सरकार की छवि से भिन्न श्रेणी में लाने में कामयाब हो सकती हैं। दरशल में सरकार पहले का ६ महीने अनुकूल हालत  रह सकता हैं पर बाद में कांग्रेस जो इनको बाहर से समर्थन दे रही हैं इतने रोड़े अटकाएगी, जिसे हटाना आप के लिए  कभी भी आसान नहीं होगा। 
आप तो सरकार बनाने में जितनी कठनाई का सामना नहीं  करनी पड़ी हैं उतनी ही  परेशानी का सामना उनको सरकार चलाने में होनेवाली हैं, बीजेपी जो संख्या के आधार पर आप से बड़ी पार्टी हैं वे आपको कभी कोई मौका नहीं छोड़ंगे  बखिया उधरने में , वही कांग्रेस जो इन्हे बाहर से समर्थन तो दे रही हैं बस आपकी काबलियत परखने के लिए या आपके चकाचोंध को जनता के नज़र से ओझल करने के लिए, थोड़ी भी संदेह नहीं हैं कि दोनों स्थितियों  में सरकार गिरबाने से नहीं चुकेगी चाहे सरकार ठीक ठाक चल पाये अन्यथा न चल पाये। जनता जो आज सरकार बनाने के लिए जो आप के तरफ से किये गए सर्वे में  बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और अपनी हामी भी भरी पर आनेवाले दिनों में उनके सपने अधूरे रह जाते हैं तब  क्या जनता आप के साथ  वही सुहानभुत्ति दिखाएगी जो आज दिखा रही हैं?
 शायद नहीं, इसलिए अरविन्द केजरीवाल के लिए दिल्ली का ताज़ कांटे नहीं खंज़रो से भरी होगी इसे पहनने से पहले इनके जख्म (घाव) का आकंलन करने का यही उचित समय हैं बाद में तो सिर्फ जख्म को गिनने और उसके उपचार में ही समय व्यतीत होना है।  

रविवार, 22 दिसंबर 2013


 धोनी जैसा बोनी कप्तान से  भारत टेस्ट टीम को कब छुटकारा मिलेगी ?
महेंद्र सिंह धोनी को  दिवसीय कप्तान और खिलाडी  परफॉरमेंस के आधार पर आखिर कबतक ,  टेस्ट मैच में कप्तानी का मोका मिलता रहेगा जबकि टेस्ट मैच  में उतना अच्छा  वह न  खिलाडी और न ही उतना अच्छा कप्तान अपने  को साबित किया बावजूद उनको इतनी अच्छी टीम  मिला  जो शायद किसी और कप्तान को   शायद नसीब में  नहीं । उसके बावजूद भी  मुख्यतः  टेस्ट मैच में इनके जीत  का  ग्राफ विदेशी धरती पर नीचे ही जा रही  हैं  इसका मुख्यावजह धोनी ही तो नहीं है ? धोनी के अखरियल रबैया के चलते भारत क्रिकेट टीम को  खामियाजा  तो भुगतना  नहीं पड  रहा हैं? जरुर इस तरह के ढेर सारे सवाल क्रिकेट के प्रेमी के जहन में पनप रहे जिसका जवाब प्रायः कोई देनेवाला नहीं हैं।
 एक तरफ जँहा BCCI कुछ लोगो तक ही सिमित हैं, उनके दखलंदाज़ी से ऐसी टीम की चयन की जाती हैं जिसमें बस इस चीज का ख्याल रखा जाता हैं कि खिलाडी किस  क्षेत्र से आता हैं और चयन कमिटी के साथ उनका सम्बन्ध कैसा हैं और उनको कप्तान कितना पसंद करता हैं ?
क्या कप्तान के पसंद और चयन कमिटी के इच्छा अनुसार जिस टीम का चयन होगी उससे एक जबर्दस्त परफॉरमेंस का उम्मीद करना  कितने हद तक जायज हैं,? इसका आप खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं।  एक साथ गम्भीर और सेहवाग दोनों को टीम में स्थान नहीं देना उस कप्तान की मनसा पर भी सवाल उठाते हैं जो अभी खुदको बेहतरीन  टेस्ट प्लेयर साबित नहीं कर सके हैं।  जिस तरह का टीम दक्षिण अफ्रीका ले गया वे टीम जीतने के लिए नहीं  ब्लिक BCCI, सेलेक्ट कमिटी और कप्तान के हित का  ख्याल रखकर चयन किया गया था ।  ऐसे खिलाडी जिसे अफ्रीका के पीच पर मोका दिया जा रहा हैं जो अभी तक घेरलू पीच पर ओसतन परफॉरमेंस दिया  हैं।  इसलिए तो लगातर विदेश के  धरती हो देश के  धरती टेस्ट मैच में  बढियां टीम के विरुद्ध इंडिया का परफॉरमेंस गिरता जा रहा हैं।
जँहा BCCI एक ऐसा शसक्त आर्गेनाईजेशन हैं जो भारत सरकार और खेल मंत्री को भी नहीं सुनते हैं इसलिए तो RTI के बारे में  फरमान तो कई बार खेल मंत्री के तरफ से आया पर लागु करवाने की  बात हो तो बेबश और लाचार खेल मंत्री दिख रहे हैं । अन्तः इसको अभी तक लागु नहीं करबा पाये हैं।
क्रिकेट को इस कदर मुनाफे का कारोबार बना कर कारोबारियो ने मुनाफा वसूल रहे हैं  उनके लिए देश करोडो क्रिकेट प्रेमी का परवाह नहीं हैं।  जिस खेल के ऊपर यदि भारत सरकार का कोई कण्ट्रोल न हो पर उस खेल के खिलाड़ी को भारत रत्न सम्मान देना कहाँतक मुनासिब हैं इसपर तो सवाल उठना लाज़िमी है। अब सरकार को चाहिए कि भारत के क्रिकेट प्रेमियो को ध्यान में रख कर BCCI को एक ऐसा संस्था बनाये जो  किसी व्यक्ति विशेष कि बपोती न होकर पुरे देश के क्रिकेट प्रेमियो का हित का ख्याल रखनेवाली संस्था बने जो इस देश के क्रिकेट को आगे ले जाये।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013



मेरी पूछ कँहा ?

मन तो मेरा भी करता हैं कि मैं भी कोई पार्टी के साथ जुड़ जाऊ पर किसी भी पार्टी को मेरी जरुरत ही कहाँ! अगर जरुरत भी होगा तो बस झोला उठाने को या पिछुलगुआ के लिए।   रिटायर्ड  आईएएस , आईपीएस , सेलेब्रटी या कोई बड़ी राजनीती घराने से  जो तालुकात नहीं  रखते हैं अन्यथा  चुटकी बजाते ही किसी पार्टी से जुड़ने के साथ ही बड़े ओहदे हथिया सकते  थे और आगामी चुनाव में टिकट मिलने में ज्यादा मस्कट करने जरुरत नहीं पड़ता  निस्ठा और ईमानदारी को सभी  पार्टी अपनी अहम् मुद्दा मानती हो पर दिखाने के लिए यदि इसके आधार पर किसी व्यक्ति को महत्व देने कि बात हो उसमें निस्ठावान और ईमानदार आदमी को मापने का पैमाना ही भिन्न हैं, निस्ठा और ईमानदारी  अनिवार्यता ना  होकर वैकल्पिक हो जाते हैं। चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस परिवारवाद से किसी भी पार्टी को परहेज़ नहीं हैं , पर इसे भी नाक्कारा नहीं जा सकता है कि बीजेपी और लेफ्ट  ऐसी बड़ी पार्टी है जो एक परिवार के इर्द-गिर्द तक सिमित नहीं हैं।आम चुनाव, लोकतंत्र का महाकुम्भ का संखनाद अभीतक हुआ नहीं  पर ये तक़रीबन तय हैं कि अप्रिल और मई के बीच २०१४ में लोकसभा चुनाव होने जा रहा हैं, इसके मद्दे नज़र देश के गणमान्य लोग जो बड़े-बड़े ओहदे पर अथवा सेलेब्रटी  रह चुके हैं  अथवा सेलेब्रटी उन्हे बड़ी - बड़ी पार्टियाँ  जोर सोर से  जोड़ने में लगे और साथ ही टिकट और सरकार बनी तो मनपसंद  मंत्री विभाग का भी आस्वासन दिए जा रहे।

एक आम आदमी जब किसी पार्टी से जुड़ता हैं तो वरसो तक उस पार्टी के साधारण कार्यकर्ता के रूप में काम करते रहना पड़ता और वरसो बीत जाने के उपरांत भी एक कार्य -कर्ता से ऊपर नहीं जा पाते। यदि वे कार्यकर्ता कर्मनिस्ट और विवेकशील हैं तो शायद नामुमकिन हैं कि पार्टी उनकी उपस्थिति को थोड़ी भी अहमियत दे। अपनी उपेक्षा से हताश होकर परिवार के जिम्मेवारी उठाकर उसके निर्वाह करने लगते हैं। एक आम आदमी जो अपनी जिंदिगी की बहुमूल्य दिन पार्टी के काम काज में समर्पित कर दिया पर हासिल क्या हुआ, कुछ नहीं। एक आम आदमी चाहे किसी भी पार्टी से  जुड़े, और  कितना भी इमानदार हो असलियत में उस खास आदमी के सामने अस्तित्व शुन्य होगा क्यूंकि उनके पास बड़े- बड़े कनेक्शन नहीं जिसके बल पर पार्टी फण्ड के नाम पर करोड़ो इकट्ठा कर सके और ना  ही इतना बड़ा सेलेब्रटीज है जो अपने दम ख़म पर चुनाव जीतने को मादा रखता हो। बरहाल, इसे भी पूरी सच नहीं माना जा सकता हैं कि साधारण आदमी देश के सर्वोच्य पद पर आसिन नहीं हुए , हुए हैं पर औसतन इतने हैं जिनको बड़ी आसानी से अँगुलियों पर गिना जा सकता हैं परन्तु वे जिंतने भी साधारण आदमी उस पद की  गरिमा का ना सिर्फ लाज रखे ब्लिक अपनी  भूमिका को बड़ी ईमानदारी से निभाये। अब देश में राजनीती पहली वाली राजनीती नहीं जिसमे देश के लिए सम्पर्पण हो निस्वार्थ सेवा कि भावना हो।  आज  का तो राजनीति बिल्कुल बदल चुकी है जिसमें बड़े -बड़े इन्वेस्टर फाइनेंस करते हैं और अनुकूल सरकार  जैसे ही बनती हैं तो अपना मुनाफा वसूलने लगते हैं। एक तरफ सरकार टैक्स के नाम जनता का दोहन करती हैं दूसरे तरफ बड़े -बड़े इन्वेस्टर जिसने चुनाव लड़ने के लिए  सत्ताधारी पार्टी  को फाइनेंस किये  अथवा पार्टी फण्ड के नाम पर  करोड़ो दिए  वे  रोजमर्रा की जरुरत कि चीजो के दाम बढ़ाकर जनता का जेब ढीली करने में लग जाते हैं।  जिस कदर नेताओ का आय पांच वर्ष में   पाँच सौ गुना   तक बढ़  जाता  हैं इसे भी अंदाज़ा लगया जा सकता हैं आज कि राजनीती कितने फायदे का सौदा हैं और अब तो कई नेता ने नाचाहकर भी इज़हार कर ही देते हैं कि राजनीती कितना फायदे का सौदा हैं।

 आज की राजनीती में जंहा एक तरफ आर. के. सिंह और नंदन नीलकेणी को बड़ी ही ठाट-बात से पार्टी में स्वागत किये जाते हैं वही आम आदमी राजनीती से दुरी बनाये रखे हैं, किसका कई वजह हैं, एक तो, ये लगता हैं कि पार्टी में बेईमानी और भर्ष्टाचार चुनावी मुद्दा तो सकता लेकिन किसी पार्टी के मूलमंत्र नहीं हो पाता कि इन सभी से  नेता परहेज़ रखे।  चापलुषि जंहा उन्नति के मार्ग परहस्त करती हैं वंहा ईमानदार लोग के लिए क्या भविष्य होगी। देश कि राजनीती में जब तक  देश के मध्यवर्ग लोगों कि सक्रियता नहीं बढ़ता  हैं तब तक देश की  राजनीती नहीं बदलेगी और ना  इस देश का भला होगा।  देश की अधिकतर आवादी मध्यवर्गीय हैं  पर राजनीती हो या सरकार पर इनकी उपस्थिति आवादी के हिसाब से बहुत कम हैं इसीकारण मध्यवर्ग को  ही देश की बुनियादी समस्या से  रोज जूझना पड़ता हैं।

देश की जो अभी व्यवस्था हैं उससे मैं भी काफी उत्कंठित हूँ कि देश का सेवा करू देश में जिस कदर लचर व्यवस्था से जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही हैं शायद उनके जख्म पर मरहम लगाने का मौका मिले पर अकेला चना भर नहीं फोड़ सकता उसी प्रकार मैं चाह का भी कुछ कर नहीं सकते।  नेता को एक पार्टी उतनी  ही जरुरत हैं जितना एक अभिनेता के लिए मंच। यद्दिप कोई पार्टी में मेरी पूछ हो या नहीं पर मन ने ये ठान लिया हैं कि देश की सेवा सदैव करते रहेंगे पूरी इमानदारी के साथ बिना किसी स्वार्थ के। वेसे बुलबुले राजनिति के धरातल पर उबलने लगे है और इस कथन को हरगिज झुठलाया नहीं  जा सकता है  कि  आनेवाले परिवर्तन का ये प्रतिक है, बस उस क्षण का इंतज़ार है जब ये बुलबुले उस ज्वारभाँटा का रूप अख्तियार करेंगे जिसमे परिवारवाद, ग्लैमर्स, धन, बल, महज़ब और जातिवाद इस तरह के चुनाव के तमाम अबतक  फार्मूला  नस्तेनाबूद हो जायेंगे। 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013


 आखिर कबतक  …… ? 
( लालू और मुलायम के  जाति की राजनीती  पृष्ठभूमि  पर एक नज़र )


बेशक, भारत के लोग कभी भी जातिवाद , छूट - अछूत बंधन  को  तोड़  ना सका हो, वाबजूद इसके भारत जातिवाद  को आढ़े नहीं आने दिया और सदैव विद्वान और वीरो को पूजने में सब तबके लोक एक साथ दिखाई दिए उदहारणस्वरुप भगवान श्री कृष्ण जो यादव कुल में जन्मे थे , राम जो क्षत्रिय कुल में जन्मे थे या मुनिवर वाल्मीकि जो दलित कुल में जन्मे थे परन्तु  जब ब्राह्मण पाखंड  आडम्बर के लिए जाने जाते थे उस समय इन जैसे अनेक  महापुरषो को उनके योग्यता के आधार पर मान सम्मान देने में थोड़ी भी देर नहीं लगाई, उनके हिस्से के पुरे और निष्पक्षता से आदर और सम्मान दिए गए जिनके वे महापुरुषो हक़दार थे। विखंडित समाज एक साथ आकर उनको पूज्यनीय  और भगवान का दर्जा दिया। उन्ही पूज्यनीय महापुरुषो में से एक श्री कृष्ण थे जिन्हे ना  सिर्फ  हिन्दू समाज के  ब्लिक पुरेविश्व के प्रेरणास्रोत रहे हैं और आगे रहेंगे क्यूंकि उन्हें अपनी विलक्षण और अलोकिक प्रतिभा का  परिचय दिया हैं शायद उस भातिं कोई दिए और कोई दे भी नहीं पायेगे ।  वस्तुतः  कुरुक्षेत्र का युद्ध स्थल जंहा  भाई के सामने भाई,  जो एक दूसरे को खून बहा रहे थे उस युद्ध स्थल पर  गीता का स्वरुप प्रगट हुई जिसके कई अनगिनित वाक्य में कृष्ण ने अपने   सोच और दिव्यदृष्टि को  सहज और सरल  रूप से व्याख्या किये,  जो उनके वीरता  का प्रमाण तो देता ही हैं पर आत्मा और परमात्मा के सभी स्वरूपों पर उनका  जो कथन हैं  वे वास्तविक जीवन में  हर एक दुबिधा से छुटकारा दिलाने में अहम हैं जिसे हम रोजना रुबरु  होते इसलिए तो इस वैज्ञानिक और भौतिकवाद युग में भी उनका पुरुषार्थ पहेली बना हैं जिनका अंदाज़ा लगाने में कोई भी कामयाब अबतक  नहीं हुए।

इतिहास बदलते देर नहीं लगता, और आज के भारत में  यह कथन बिलकुल सटीक हैं। जिस कुल में भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया उन्हीके कुलखुट में कई  और महनुभाव भी अवतरित हुए जिन्होने  अपनी राजनितिक हित के लिए क्या नहीं किया। भारत के समाज को  इतने खंडित किये कि वर्ग से जाति और जाति से विजाति में विभिक्त कर दिए यद्दिप श्री कृष्ण पुनः आकर इनको जोड़ने का काम करे तो उनके लिए भी शायद आसान नहीं होंगे। अपनी हवस के खातिर पुरे समाज को अनगिनित टुकड़े करने में कोई कसर ना  छोड़ी पर इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता हैं कि इनसे किसी का फायदा नहीं हुआ हो, हुआ होगा पर दीर्घकालीन नहीं। कितनी विडम्बना हैं कि अंग्रेज आये और चले गए पर उनके ये मंत्र अभी भी  हमारे जहन में विद्दमान हैं और यदि सियासी गलियारो के कदरदानों के बात करेंगे तो चाह कर भी  वे नहीं भूल सकते क्यूंकि इन्ही के बलबूते जो बड़ी सी बड़ी चुनावी जंग को फ़तेह करते हुए आये हैं। 


 एक तरफ ये महापुरुष खुदको धर्मनिरपेक्षता  का रखवाला  साबित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं वही  दूसरी तरफ अल्पसंख्यक को सिर्फ वोट बैंक के तरह कैसे  इस्तेमाल की जाती हैं?, इनके हर हाथकण्डे के बारे में इन महारथीयो से बहुत कुछ सिखा जा सकता हैं। दंगे के आग  में सियासी रोटी कैसे सेकी जाती हैं ये काम भी इनके चुतिकियों का हैं। अल्पसंख्यक जिनके बल पर वे राजभोग भोगते हैं पर जब उनको  बुनियादी सहूलियत देने की बात हो तो कागज तक ही रह जाते हैं। कटाक्ष और व्यंग के  हिम्मत नहीं कर सकते हैं इनके इर्द गिर्द , क्यूंकि अभिव्यक्ति की आजादी जो आम आदमी का  मौलिक अधिकार हैं उसे भी हनन करने में इनको देर नहीं लगते। जेल आना  -जाना तो लगा ही रहता हैं, कभी उन आंदोलन के लिए जिनके बुनियाद पर आज देश के इतने बड़े जन- हितेशी बनके उभरे कि हित खुदका साध गए और जनता को अब आहिस्ता - आहिस्ता कर पीछे छोड़ते जा रहे हैं, तो कभी भर्ष्टाचार के लिए।  बेशक , जेल गए हो भर्ष्टाचार के आरोप में पर ये कहने से हिचकते नहीं कि कृष्ण भी तो जेल में पैदा हुए थे , दरशल ये किसीका मजाल भी तो नहीं जो  इनको समझाए कि भगवान जेल गए नहीं थे ब्लिक वँहा अवतरित होना पड़ा था  देवकी और वासुदेव के पुत्र के रूप में ताकि पापियो के नाश कर सके।

सचमुच में इन महापुरुष अगर किसी से डरते हैं  तो बस एक केंद्र सरकार से और उनकी सीबीआई  से इसलिए तो सबके शिक़वे सर आँखों पर लेते हैं पर जब बात आती हैं केंद्र में जो सरकार हैं उनकि खिलाफी करने की  तो सपने में  भी सोच नहीं सकते क्यूंकि उसके बाद शायद सपना देखना इनको खैर नहीं, इस बात क हमेशा अपने जहन में गाठ बना कर रखे हैं।

 हिंदुस्तान की राजनीती में मुख्य भूमिका कोई राज्य  का रहता  है तो वे  उत्तर प्रदेश उसके बाद बिहार का नाम आता हैं। सरकार कोई भी पार्टी बनाये किसी भी स्थिति में बनाये पर दोनों राज्यो को एक साथ अंदर अंदाज करके किसी भी हालत में  सरकार नहीं बनायीं जा सकती हैं।

 इन दोनों राज्यो की राजनीती में इन महापुरुषो  का किरदार इतनी अहम् है कि इनके बिना सियासी बयानबाज़ी और  दाव-पेंच का वज़ूद ही नहीं है।  अबतो शायद अनुमान लगाने के लिए ज्यादा दिमाग का खपत नहीं करना पड़ा होगा आखिर वे महापुरुष  कौन है।  एक जो महिला आरक्षण संसद में पास किसी भी हालत में अभी तक  पास नहीं होने दिया और यही मंसूबा इन्होने लोकपाल बिल  के संदर्भ में पाले थे लेकिन पानी फिरतें नहीं देर लगी जैसी  ही निविरोध लोकपाल बिल राज्य सभा सर्वसम्मति पारित हो गयी। अफ़सोस! उनके निर्थक का  उछल- कूद सार्थक का जामा नहीं पहन सका। 

दूसरे महानुभाव वे है जो आज के ही  शुभ दिन में जेल से रिहा हुए हैं  शायद आप भूलें नहीं होंगे कि पिछले ७५ दिन से राजनीती हलक़ों से गुम होकर पाँच साल की  सजा  जो चारा घोटाला में सुनायी गयी थी , उसीको भुगत रहे थे।  जी ! खूब पहचाना लालूजी की बात कर रहे हैं, क्या लालू के बिना बिहार की राजनीती में  कोई मायने नहीं है या कांग्रेस के लिए उनके शिवाय कोई और सहारा मिलता ना  देखकर  फिर से लालू को जेल  से बाहर  निकाल कर बिहार की राजनीती को दिलचस्प बना दी हैं, सीबीआई ने जिस कदर सुप्रीम  कोर्ट  में अपनी रबैया दिखाए हैं इससे यही कहना कतई गलत नहीं होगा।  अभीतक सीबीआई का काम -काज और सर्वोचय न्यालय की टिपण्णी से तो यही संकेत मिलता हैं कि  बिना सरकार के आदेश को कुछ भी जो  नहीं कर सकते  वे अचानक चुपी क्यों साध ली मतलब सरकार चाहती थी लालूजी को जमानत मिले और मिला भी।



 कांग्रेस चारो राज्यो के चुनाव में जैसे चारो खाने चित हुई इसीसे सीख लेकर अपनी खोई हुई ताकत को संचय करने के एवज में  या  हो सकता हैं बिहार में  नितीश के साथ सबकुछ साफ होता नहीं देख फिर से पुरानी गठवंधन को जीवित करने की  सोच हो। लालू की मोहजूदगी  जंहा कांग्रेस को  आगामी  लोकसभा चुनाव के लिए एक परिपक्क साथी  के रूप में होगी वही लालू को अपनी पार्टी को  देश और राज्य के राजनीती में फिरसे सक्रियता बढ़ाने का मौका मिलेगा। जैसे ही लालू  को पाँच साल का सजा का एलान हुआ राजनीती से सोच रखनेवाले ने  मान लिये  थे कि  लालू  और रजद का   भविष्य  अब आखिरी पराव में  हैं जो इत्तेफ़ाक़ से  गलत हुए। दूसरी तरफ कांग्रेस को  नितीश के ऊपर दबाव डालने में भी सहयोग मिलेगा लालू  के आनेसे जिससे नितीश अपनी आगे की रणनीति का खुलाशा  जल्दी करेंगे। लालू एक ऐसा शख्श जो बेवाक बोलते हैं, जो  राहुल के कावलियत अथवा  नेतृत्व पर पार्टी के अंदर हो या बाहर प्रश्न चिन्ह लगानेवाले की दिन प्रतिदिन तादाद जिस तेजी से बढ़ रहे थे , इस प्रतिकूल  हालात में  राहुल के वचाव में सामने आएँगे जिससे अंतहविरोधी पर अंकुश लगाने का काम करेंगे। 


जो भी  हो लालू की  उपस्थिति भारत और बिहार दोनों के राजनीती पृष्ठ भूमि पर महत्वपूर्ण स्थान हैं इस सच कभी  भी नक्कारा नहीं जा सकता हैं। आगामी लोकसभा का चुनाव देश और लालू दोनो के लिए बहुत अहम है । लालू की  जीत और हार रजद के भविष्य को पुनःनिर्धारण तो  करेगा ही वही देश का भविष्य भी आगमी लोकसभा के चुनाव में लालू और मुलायम के जीत और हार जमुहुरियत का एक नया अध्याय लिखेगा क्यूंकि इस तरह के  नेता का जीत फिरसे जाति और महज़ब के समीकरण में बदलाव के सभी अटकले को खारिज़ करेगा। कोंग्रेस को शायद आभास हो चला कि अब पुराने ढर्रे से राजनीती करना मुमकिन नहीं है इसलिए तो कलेजे पर पत्थर रखकर लोकपाल बिल को पास किये अन्यथा जगजाहिर हैं जो अन्ना के नाम पर चिढ़ते थे आज वे अन्ना के सामने नमस्तक क्यूँ हो गये?,  जिन्होंने जनलोकपाल आंदोलन को दफ़न करने के लिए सबकुछ किया, जो नहीं करना चाहिए था फिर अचानक एक साल में क्या हो गया कि सर्वसम्म्ति उसी लोकपाल बिल को पारित किये ? हँ स्वरुप को थोडा अपने अनुकूल बना रखा हैं जिसको दुरुस्त करने का अभी भी बहुत गुंजाइस हैं।

 लालू  जो जेल से  निकलते ही मोदी को चुनौती देने में देर नहीं लगाया, क्या उनमें अब भी वही जज्वा और लोकप्रियता हैं कि मोदी का मुकबला करे क्यूँ कि इन जैसे नेता सिर्फ जाति के नाम पर वोट हासिल करते हैं, विकास और भ्रष्टाचार इनका ना  कभी मुद्दा हुआ हैं और ना होने का आसार हैं ऐसे में  क्या खुदको टटोलने कि जरुरत नहीं  हैं ?  एक तरफ मोदी के हवा को हवा हवाई बनाने के लिए लालू , मुलायम जैसे नेता कोई भी  कसर नहीं छोड़ने को राजी हैं  वही मोदी को इनके जाति के बलबूते का राजनीती के चक्रव्यूह को तोडना आसान नहीं होगा। ये आगमी लोकसभा चुनाव  उन जनता के सोच को  जो मुख्यतः इन जैसे नेता का पारम्पारिक वोट बैंक रहा  हैं,  परखने का जरिया भी बनेगे क्यूंकि इस चुनाव के बाद तो ये तय होना स्वभाविक हैं  कि जनता जाति और धर्म  के आधार पर  अपनी वही  पुराने जन प्रतिनिधि को आगे करती हैं या देश के तमाम  जटिल समस्या जो कई दशको से जुंझ रहे हैं,  इन सभीका  निदान करने वाले जनप्रतिनिधि को आगे करती हैं।


आखिरकार, जो जनता जनार्दन का फैसला होगा वही सर्वमान्य होगा। अन्तोगत्वा, इन दोनों महापरुषो ने दो दशक  पहले  जाति के जो  वीज राजनीती के धरातल पर बोये, वे वृक्ष अभी भी फल और  छाया इन्हे देने में सक्षम हैं अथवा उनके जड़ कमजोर पर गए ये लोकसभा चुनाव के बाद ही सिद्ध हो पायेगा।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013


जब छोट -छोट नेता क सजा अब तक नहीं हुआ तो हमरा कैसे होगा?

 कैसे लालू जी के याद में रावड़ी जी ने ७४  रातें लालटेन में तेल डालते - डालते बिताये होगी पर लालूजी बड़े इत्मीनान से जेल में सो रहे थे, जरा सोचिय!, रावड़ी जी को  राजनीती में १५ साल से ज्यादा क्यूँ ना हो गयी हो पर अनुभव के आधार पर लालूजी से कच्ची ही ठहरी इसलिए तो लालूजी को पूरा विस्वास था सलांखे के चार दिवारी  इतनी भी मजबूत नहीं कि राजनीती के महारथ को ज्यादा दिन तक कैद कर रखे।  पर रावड़ी जी, बेचारी  पांच साल कि जुदाई की कल्पना मात्र ही आखियों से गंगा जमुना बहाने को विवश कर थी  और लालटेन को देख कर उनकी लओ को निहार रही थी तभी बडा  बेटा रावड़ी जी से आकर कहता हैं  " माँ धीरज से काम लीजिये ना, आपको अपने बेटा पर भरोषा हैं कि नहीं, देखिये हाई कोर्ट ने जमानत नामंजूर कर दिए तो क्या हुआ सुप्रीम कोर्ट जायेंगे बड़े से बड़े वकील लगवाएंगे, आप मत रोइये ना , पापा को जल्दी घर लायेंगे। "

रावड़ी जी  भैंस और गाय की तरफ घूमती हुई कहती हैं " गाय को देखो कितना उदास भय गेलिन, तेजस्वी बेटा अब लालटेन में भी रौशनी कम लागिन ह , देखह  जो भी केलिन हो उल्टा भ गेलिन ह अब कुछ ऐसन करी जे पापा को घर में जल्दी देखिन। काली दीवाली मनेली  और छठ बिना पापा के जरुर मनेली पर का करी छठी महारानी के पर्व छोड़ न जायी।

बेटा एक पल देर किये रावड़ी जी पास गया और रावड़ी जी के सिर  को कंधे के सहारे देकर कहने लगा " माँ  कल रांची जाता हूँ और पापा से पूछता हूँ कि आगे क्या करना हैं?"

दूसरे दिन लालूजी से मिलने जैसे ही उनके लड़के पहुंचे लालूजी का कॉन्फिडेंस देख कर  हैरान हो गए। लालूजी पास आते ही बेटा को निहारते हुए कहने लगे " धुर  बुरबक, का रे खाना पीना बंद कर दिया, कितना दुबला हो गया । अरे जेल ही आये हैं जंहा गांधी जी जेसन लोग आया था । खूब खाना खाओ, अरे कोनो  बात की चिंता करने की जरुरत नहीं हैं ? रावड़ी तो ठीक हैं ना, खाना खा रही है का नहीं ?, जाओ मम्मी क जा केर  बोली हम जल्दी घर आयब। और एक बात  बहुत जरुर हम कहूंगा क्यूंकि अब रजद  और बिहार दोनों तेरे कंठे पर है, जेल जाने से डरने क्या बात है ? जब छोट छोट नेता क सजा अब तक नहीं हुआ तो हमरा कैसे होगा? अभी तो ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया हैं हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे बस एक बार जमानत मिल जाय "

लालूजी अपने बेटा  को संत्वना देने में जो  कह गए वह कोई मनगंढ़त दिलाषा नहीं ब्लिक  हक़ीक़त हैं कि आज तक किसी भी नेता को ज्यादा दिन तक जेल के चार दिवारी ने रोक  नहीं पाये हैं। दरशल में  नेता जब जेल से बाहर आते हैं उनके  देखर यूँ लगता हैं जैसे जेल नहीं किसी मंदिर से आ रहा हो बाबजूद भर्ष्टाचार के आरोप में जेल गए हो।
जनता के समक्ष इस कदर इमोशनल ब्लैकमेल का ताना - बाना बुनते हैं कि जनता उनके झांसे में आने से खुदको रोक नहीं पाते हैं फलस्वरूप जेल से निकलते ही उनको  जिस ठाट -बात से  स्वागत किये जाते हैं कि मानो नेता जी भर्ष्टाचार में  संगलता के कारण  जेल नहीं मक्का मदीना से  हज़ करके आ रहे हो।

आज के राजनीती में लोकतंत्र और नेता दोनो का परिभाषा बदल चुके है इसलिए  तो आज जेल के वे चार दिवारी  लालूजी को ज्यादा दिन तक अपने आग़ोश में नहीं रख पाये।  फिलहाल लालूजी को ज़मानत मिल गए और लालूजी रावड़ी जी के संग लालटेन में तेल डाल रहे हैं।

रविवार, 15 दिसंबर 2013


 अरविन्द केजरीवाल को ऊर्जा के साथ साथ "आप" को एक  मुद्दा भी देना होगा……

चाहे "आप" हो या कांग्रेस दोनो के लिए  विषम परस्थिति हैं जंहा  "आप" के लिए एक तरफ़ कुआँ हैं दूसरी तरफ खाई वंही कांग्रेस अपनी समर्थन आप को देकर जनता को एक मेसेज देना चाहती कि वे जनता के  मत को सम्मान करती हैं जिससे आगमी चुनाव में कांग्रेस के लिए  हितकर होगा पर "आप" यदि सरकार बनाती हैं उस स्थिति में मेनिफेस्टो को पूरा ना कर पाना, जनता खुदको ठगा समझेगा जो आप के लिए नुकशानदेह होगा   और सरकार नही बनाती हैं तबभी  उनके विपक्षी दल जनाधार के आपमान  का मुद्दा बनाकर इसे  मध्यावी चुनाव में खूब भुनाएंगे।  अरविन्द केजरीवाल के लिए शायद ये क्षण कल्पना से परे हैं कभी इसके बारे नहीं सोचा होगा कि जनता इस चोराहे पर लाकर खड़ा कर देगी जंहा से निकलना बकाये आसान नहीं। कांग्रेस ने एक तरफ राजा और मंत्री को डिफेंसिव होने के लिए बाध्य करदी हैं वंही दूसरी तरफ  मोहरे  यानि मुद्दा को एक -एक कर हवा हवाई करने में लगे हैं। इसके लिए पक्ष और विपक्ष दोनों एक साथ दिख रहें हैं इसलिए तो विपक्ष बिना मान मनोवल के ही लोकपाल में समर्थन देने के लिए हामी भर दी हैं। यदि सब कुछ अनुकूल रहा तो सोमवार को ही लोकपाल बिल राज्य सभा में पारित हो जायेगी  चाहे समाजवादी पार्टी कितना भी उछल -कूद करले। इस बिल को पास होते ही जनलोकपाल बिल का मुद्दा प्रायः अस्तित्व विहीन हो जायेगी क्यूंकि अन्ना ने भी संकेत दिए हैं कि जैसे ही लोकपाल बिल राज्य सभा में पास होते ही अपना अनसन तोड़ देंगे।

"आप" की जीत में ही "आप" कि हार नज़र आ रही हैं जंहा "आप" के कई नेता तो इस जीत से इतना इत्तरा रहे हैं कि  सारी मर्यादा तोड़ने  में लगे हैं, दूसरी तरफ अरविन्द केजरीवाल के लिए विकत परिस्थिति हैं यहाँ पर एक  चुक शायद "आप" को शदा के लिए पत्ता ना साफ करदे तभी तो अरविन्द केजरीवाल जल्दबाज़ी में कोई भी फैसला लेना नहीं चाहते हैं। जो भी दिल्ली की कुर्सी  का खेल काफी मजेदार और रोमांचकारी मोड़ पर जंहा एक तरफ कांग्रेस कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती हैं वंही दूसरी तरफ बीजेपी खड़े होकर कोग्रेस और "आप" कि रशा - कशी का लुप्त उठा रहे हैं। अरविन्द केजरीवाल कि जो व्यक्तित्व बाकय में आज के सभी नेता से अलग हैं जो ईमानदार के साथ साथ  करिश्माई भी हैं पर जिस तरह से आज का हलात हैं उसमें अरविन्द केजरीवाल को ऊर्जा के साथ साथ "आप" को एक  मुद्दा भी देना होगा क्यूंकि कितने भी हल्ला करले जनता अन्ना का ज्यादा सुनते हैं अगर अन्ना ने कह दिया हैं कि लोकपाल बिल जो राज्य सभा में पेश किये गए हैं उस बिल से उनको कोई आपत्ति  नहीं हैं फिर  अरविन्द केजरीवाल के लिए आसान नहीं होगा लोकपाल बिल के खामिया उजागर करने में।  जो भी हो पर कुछ दिन में  बहुत कुछ साफ हो जायेगा इसलिए तो अगले सप्ताह   काफी दिलचस्प होनेवाला हैं। 

 रब पर तोहमत लगाने से पहले अपनी गिरबान को तो देखिये
खुद को नोचते हैं पर जब आह निकलती है तो खुदाको कोसते हैं

शनिवार, 14 दिसंबर 2013


क्या कांग्रेस पार्टी की बौखलाहट में उनकी हताश नज़र आ रही है ?

क्या UPA विखरने के कगार पर तो नहीं हैं, जिस कदर UPA के घटकदल में सुगबुगाहट हैं इन चारो  राज्यो में चुनाव के पश्चात इससे यही अंदाजा लगाया जा सकता हैं। कांग्रेस ने  आवेश में आकर  कुछ ऐसा तो नहीं कर देगी जिससे देश कि जनता बरसो झुंजती रहेगी।  अपनी हार से सबक़ लेने के वजाय कोंगेस अपनी उस सोंच पर आत्मचिंतन  छोड़ कर फिर से टकराव कि राजनीती को हवा दे रही हैं। जहाँतक सरकार कि संवेदना को देखे तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि सिर्फ़ किसी भी तबका के लिए जो इनका नज़रिया हैं वे सिर्फ दिखावटी जिसके बदोलत उस तबके के सहानुभूति के बदले में वोट हासिल करनी चाहती अन्यथा मुज़फ्फरनगर दंगा पीड़ित की चीख सुनाई तो नहीं देती। आज मुज़फ्फरनगर दंगा पीड़ित को जिस तरह सहायता के नाम पर खानापूर्ति करी जा रही हैं, इसकी का नतीजा हैं कि चालीश से अधिक बच्चे ठिठुर कर दम तोर दिए क्या उसको बचाये  नहीं जा सकते थे पर इसके लिए ना  केंद्र सरकार औरना ही राज्य सरकार अपनी अपनी जवाबदेहि लेन को तैयार हैं पर ज्यो ही दंगा कि आग भरके  यही  सत्ताधारी पार्टी सियासी रोटी सेकने में थोड़ी भी देरी नहीं दिखाई पर आज उनके दर्द से क्यूँ मुख फेर रही हैं ? इसका तो जवाब सरकार दे ना दे पर जनता को सब पता हैं।
क्या यह उपयुक्त समय हैं जो हिंसा विरोधी बिल सदन में रखी जा रही हैं , क्या सत्ताधारी पार्टी वोट को धुर्वीकरण के लिए तो ही इस तरह का बिल नहीं  ला रही है, सत्तधारी पार्टी हताश होकर दो समुदायो के बीच में जो सौहार्द को बिगारने में तो नहीं लगी हैं ? इस तरह के कई अनसुलझे  सवाल का भी जवाब इस देश को जनता चाहेगी।  सरकार जो बैसाखी के सहारे चंद महीने तक जीवित हैं क्या इस तरह के बिल लाने में इतनी जल्दबाजी क्यूँ दिखा रही हैं क्या सत्ताधारी पार्टी ने सुनिश्चित करली हैं इस तरह के विवादित बिल ही इनके लिए संजीवनी का काम करेगी, कांग्रेस ने जो इस कार्यकाल में अपनी तानासाह और तानासाह सरकार देने के लिए जानी  जाती थी आज अचानक इतनी डफ्फेन्सिव कैसे हो गयी, ऐसा तो नहीं कि उस आंधी का आने आहत  नहीं सुनाई दे रही हैं जिसमे खुदको नस्तेनाबूत देख रही हो।  कुछ ऐसे सवाल पनप रहे हैं देश और पार्टी दोनों के जहन में जिसका जवाब ना  कांग्रेस पार्टी ढूंढ पा  रही हैं और ना ही देश।
बरहाल, कांग्रेस  पार्टी अपनी खोई होई ताक़त को संचय करे ताकि आगामी आम चुनाव के बाद फिर कोई पश्चातवा ना हो  और ये जितनी जल्दी जान ले कि जनता जनार्दन है तो आप है इसलिए इस तानासाह रवैया को तिलांजलि देकर  जनता के मुलभुत समस्या का निदान करे तो आपका का भी बेहतर होगा और इस देश की जनता का भी। क्यूंकि आपका ये बखोलाहट आपको ले डूबेंगी और धीरे -धीरे आपके घटक दल तिनके कि तरह टूटते जायेंगे, आखिर इस देश में उगते हुए सूरज को पूजा जाता हैं

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013


 क्या पब्लिसिटी के खातिर ही  आप पार्टी के लोग हो या कोई अन्य रालेगण सिद्धि पहुँच रहे हैं ?


 अन्ना का   गोपाल राय को अनसन स्थल से बाहर जाने के लिए कहना कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं था ब्लिक अन्ना आप के पूरी टीम के बर्ताव और मनसा से खुश नहीं हैं इसलिए तो उन्होने  कड़े शब्द का उपयोग करने से खुदको रोक नहीं पाये। एक तो बिन बुलाये इनलोगो  को रालेगण सिद्धि पहुँचना और दूसरी तरफ अनसन मंच को अपनी राजनीती बयांनबाजी के लिए  इस्तेमाल करना। चाहे कुमार विस्वास हो या गोपाल राय इनको पता हैं कि अन्ना के इर्द-गिर्द घूमने का फायदा कितना  हैं और उसी फायदे के लाचल में खुदको रोक नहीं पाये, बिना बुलाये रालेगणसिद्धि पहुँच गए और मौका मिलते ही अपनी मनसा साधने में लग गए। इनलोगो का  मनसूबे अगर पाक हैं तो दिल्ली में रह कर ही अन्ना के अनसन का समर्थन क्यूँ नहीं करते हैं  इसके लिए रालेगण सिद्धि जाने का क्या अवश्यकता थी? माने या ना माने पर एक ही कारन हैं इनके पीछे इसलिए  तो सबके सब रालेगण सिद्धि दौड़े चले जा रहे हैं क्यूंकि वँहा पर जो मीडिया का हुज़ूम लगी हैं जँहा बिना किसी लागत की अच्छी -खाशी पब्लिसिटी मिलने का असार हैं। अरविन्द कजरीवाल ने बहाने मार के वंहा जाने को ताल गए  अन्यथा अन्ना भी बड़े उत्सुकता से उनकी बाट को जोह रहें होंगे  क्यूंकि अन्ना को उनसे अनसुलझे कई  सवाल का जवाब जो चाहिए था।
आप पार्टी हो कोई अन्य पार्टी कम से कम अन्ना का जो त्याग हैं उनको राजनीतिकरण करने से बचे क्यूंकि ना अन्ना चाहते हैं और ना ही इस देश की  जनता चाहती हैं।  यदि अन्ना के इस मुहीम में  कोई पार्टी अपनी योगदान देना चाहती हैं तो क्यूँ ना सदन में इसको जोर-सोर रखते रखते हैं पर हक़ीक़त में लोग इनके समर्थन से ज्यादा अपनी राजनीती लाभ के पक्ष में हैं अन्यथा अभी तक  जनलोक पाल बिल राज्यसभा में पारित हो जाती, जंहा तक बिल में कई संसोधन की बात थी अब अन्ना भी चाहते है कि जो लोकपाल सरकार ला रही  हैं  और विपक्ष ने राज्य सभा में फिर से कई बिंदु पर सुझाव के लिए थास्टैंडिंग कमिटी के पास  भेजा , अब उस बिंदु पर स्टैंडिंग कमिटी ने सुझाव  दे दिए हैं , उस संसोधन के साथ राज्य सभा में  पारित करे तो एक बार लोकपाल बिल काननू रूप अख्तियार होने पर  समय समय पर उनकी  मजबूती के लिए उनमें संसोधन होता रहेगा।
बाबजूद सब पार्टी ने इसके लिए अपनी हामी भर दी हैं सिर्फ समाजवादी पार्टी को छोड़ कर, ऐसी परस्थिति   में क्यूँ ना  समाजवादी पार्टी को दरकिनार करके इस बिल को  राज्य सभा में पास करबाने की  कोशिस  कि जारही हैं जँहा तक बीजेपी, टी. एम. सी., टी. दी. पी.  जैसे अनेक पार्टीया हैं जो इनका समर्थन देगी अब सरकार की  इरादा अगर नेक हैं तो बिना मशकत के इसको पास करबा सकती हैं । यदि सरकार यथाशीघ्र इस बिल को पास नहीं करवा पायी तो शायद इसका साइड इफ़ेक्ट इतना भयानक होगा जिसका कल्पना भी नहीं किया सकता। अन्तः हम उम्मीद कर सकते हैं अबकी बार शायद हुमलोगो को जनलोकपाल बिल ना सही पर लोकपाल नसीब हो!!

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

 एक नया हिदुस्तान बनाये......................

पथरा गई थी अखियाँ बात संजोते -संजोते
उब गए  थे देख खुदका दोहन होते होते
 हर बिघ्न को करके नतमस्तक
अब ओ पल ने दी हैं दस्तक

अतीत को बिसार  कर
भविष्य को निहार कर
एक नया हिदुस्तान बनाये
फिरसे नया हिदुस्तान बनाये

काले काले नीरद हटने वाले हैं
गहरी धुंद की चादर फटनेवाले है
यामिनी को चीर कर
आनेवाला है भास्कर
रश्मि के अलख रोम रोम में जगाये
एक नया हिदुस्तान बनाये......................

छल, बल, दल का ना हो वास
 मन में हो निस्चल विस्वास
जंहा ना कोई भूप, ना  कोई हो दीन
 भाग्य हो सबके अपने अधीन
शहर को गाव में गाव को शहर में बसाये
एक नया हिदुस्तान बनाये...................... 




बुधवार, 11 दिसंबर 2013


 क्या अन्ना को डर ही हैं इसलिए तो रालेगण सिद्धि में आंदोलन का श्रीगणेश किया ?


जनलोकपाल  आंदोलन, जिसके बलबूते पर  कितनो आम आदमी से खास आदमी हो गए उन्ही के कोख  में जन्में पार्टी आज दिल्ली में अपनी खाशियत का डंका बजा रही है, पूरी दिल्ली की जनता उम्मीद से देख रही हैं उनके तरफ पर उनके पास अब फुर्सत कँहा कि एक बार जनता से इसके बारे में पूछे कि आखिर दिल्ली की जनता चाहती  क्या है? बेचारा अन्ना जो आज रालेगणसिद्धि में फिरसे वही जनलोकपाल  बिल लाने के लिए अनसन पर बेठे हुए, क्या अन्ना को डर ही कहा जाय कि फिर उनके आंदोलन के आढ में कोई अपना हित साध जायेगा इसलिए तो इस बार दिल्ली आने के वजाय अपने गाव को ही चुना? खैर, अन्ना के इस आंदोलन में उतनी भारी  संख्या में जन सैलाव ना  हो पर जो भी हैं वे ईमानदारी और निस्वार्थ भाव से अपनी उपस्थिति दर्ज करबा रहे हैं। यदि अतीत को खंगाले तो हमेशा ऐसा ही होता आया कि  आंदोलन का कर्णधार कोई होता हैं, त्याग कोई करता हैं और जब उसकी शेर्य लेने कि बारी आती है कोई और ले जाता हैं । जयप्रकाश के आंदोलन की जो उपज हैं आज पुरे देश को उससे निजात मिला नहीं और आनेवाले दिन में अन्ना की  आंदोलन की उपज को भी इन्ही देश को धोना हैं और इसके लिए देश की  जनता  तैयार हो जाये।   ईमानदारी और निस्वार्थ भाव से देश सेवा करने की बात हो तो दावेदारी ठोकने में कोई भी पीछा रहना नही चाहते हैं पर ईमानदारी और निस्वार्थ के नाम पर राजभोग से किसी को  भी परहेज़ नहीं हैं।  पर ये भी सोलह अना सच नहीं हैं क्योंकिं अन्ना इन आज़ाद भारत में एक ऐसा सख्श हैं जिसे ना राजभोग की ललक हैं और ना ही वे अपनी ईमानदारी का प्रमाणपत्र लेकर घूमते हैं। यदि अन्ना चाहेंगे तो देश के किसी भी प्रान्त से  चुनाव लड़ सकते हैं और वंहा से जीत भी सकते हैं पर अन्ना इन सबसे परे हैं। भंगवान से प्राथना करता हूँ कि अन्ना जैसे युगपुरुष को हमेशा हमारे बीच में दे जो हमारी हक़ के लिए अपनी इम्मानदारी और निस्वार्थ मनसे  महायुध जारी  रखे और इतिहास उनके इस सुक्रम के लिए कृतिज्ञ  होकर उन्हें सदेव पूजते रहेंगे।

सोमवार, 9 दिसंबर 2013


 मोदी का तोर आज ढूढना आसान नहीं, नामुमकिन...................
अरविन्द केजरीवाल को दिल्ली में जीत के  शेर्य मिलना ही चाहिए पर इतना बड़ा चमत्कार नहीं कर दिया जो कि उन्हें मोदी का विकल्प मान ले। दिल्ली एक ऐसी प्रदेश, जिसकी क्षेत्रफल इतनी हैं अधिकतर लोग प्रतिदिन  अपनी रोज-मर्रा के काम के लिए एक छोड़ से दूसरे छोड़ को नापते रहते हैं  यदि मतदाता कि बात करे  तो वे भी सिमित के साथ -साथ जागरूक भी हैं। मीडिया हो या सोशल मीडिया कुछेक सेकेंड में एक कोने  फुसफुसाहट को पूरी दिल्ली में फेला देती हैं।  इसलिए AAP पार्टी के वजाय यंहा के जनता को ज्यादा शेर्य मिलनी चाहिए क्यूंकि AAP पार्टी को यंहा के जनता का  समर्थन मिलने के वाबजूद मेजोरिटी के आस पास नहीं पहुँच पायी इसलिए तो आज दिल्ली कि गद्दी मध्यावधि चुनाव कि तरफ देख रही हैं। जंहा तक मोदी कि कद की बात करेंगे तो आज के सबसे लोकप्रिय नेता हैं क्यूंकि उनकी लोकप्रियता का दायरा किसी एक प्रदेश तक सिमित नहीं हैं ब्लिक देश हर एक कोने में हैं इसलिए राजस्थान हो या मध्य प्रदेश, जो क्षेत्रफल के  लिहाज से देशके  सबसे बड़ी राज्यो में सुमार हैं  वंहा अपनी पटका लहराना बाकई में उनकी लोकप्रियता का ही नतीजा हैं। जंहा तक पुरे देश परिवर्तन के तरफ आँख पसारे हैं इसी कारन इनको जिनसे  भी उम्मीद दिखता हैं उनके साथ हो लेते हैं।  अगर चमत्कार की बात करेंगे तो शायद जय प्रकाश और विश्व्नाथ प्रताप सिंह के नाम पहले आयेंगे क्यूंकि अपनी नेतृत्व और सोच के बदोलत इन दोनों के सोच का  ना कि पुरे देश कायल हुए ब्लिक इनकी पार्टी को देश का कमान भी सौंप  दिए। देश और पार्टी किसी एक आदमी से नहीं चलती इसके लिए पूरी टीम कि जरुरत होती हैं, जय प्रकाश हो या V.P. सिंह पर देश को  कोई भी एक स्थिर सरकार नहीं दे पाये। वेसे देश में कई बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी हैं पर  पुरे पांच साल चली हो  सिर्फ ये कारनामा अटल विहारी वाजपेयी के कार्यकाल में हुआ था।  इसलिए हमलोंगो को थोडा संयम और धीरज से काम लेना चाहिए क्यूंकि किसी का आगाज़ से ही उनका अंज़ाम का मूल्यांकन करना मुनासिब नहीं हैं।  AAP दिल्ली में अपनी दावेदारी खूव पेश की पर इसको बीजेपी और कांग्रेस के  विकल्प के रूप में कायम कब तक रखती हैं अभी यह कहना जल्दवाजी होगी अन्तः  टिप्प्णी हास्यपूर्ण ना हो इसलिए हमे चाहिए कि संभलकर करे और प्राथना करे कि  आप और फुले फले। 


  अब लोगों  को दूरदृष्टि वाली सरकार चाहिए


अब जनता किसी व्यक्ति विशेष के पीछे जाने के वजाय बढियां काम और गूड गवर्नेस को अहमियत देती हैं इसीका परमाण हैं कि कांग्रेस को चारो राज्यो  में हार का सामना करनी पड़ी हैं जंहा तक छत्तीसगढ़ को छोड़ दे तो दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जो हर्ष हुई शायद ये कल्पना से भी परे हैं।  कोई ब्रांड के नाम पर एक बार आपको मोका दे सकता  पर बार -बार आप चाहेंगे कि  लोगो को लोली पॉप दिखाकर आप उनसे अपने पक्ष में वोट डालवा लेंगे शायद आज के दिनों में मुश्किल नहीं नामुनकिन है। जंहा तक ब्रांड कि बात करेंगे तो अब ये कहना मुनासिब  हैं  कि आज राहुल हो या मोदी, जनता इनके नाम से ज्यादा काम को सहराना करते हैं अगर मोदी के अनुकूल वातावरण बना हैं तो  यह कहना कतई मिथ्या नहीं होगा कि उन्होंने जो गुजरात में काम किया हैं इससे पुरे देश के लोगो को उनको लेकर काफी उत्सुक हैं, हो सकता हैं एक बार यही उत्साह उनको सत्ता के समीप ले जाये। अन्ना कहते हैं  इस लोकतंत्र में मालिक जनता हैं सरकार सिर्फ सेवादार हैं अब शीला दीक्षित हो या गहलोत यह अहसास जरुर हुआ होगा जब इस बड़ी बेआबरू  करके  जनता ने उनको कुर्सी से बेदखल कर दी। यह कथन हर एक पार्टी के लिए लागु होता हैं, चाहे क्षेत्रिये पार्टी हो राष्टीय पार्टी, जब तक उनके उम्मीद पर खड़े नहीं उतरेंगे  आपको स्वीकार नहीं सकते। अरविन्द केजरीवाल की  आम आदमी पार्टी जो कामयाबी  दिल्ली में हाशिल किया हैं इसीका नतीजा हैं कि दिल्ली  के जनता भर्ष्टाचार को  मुद्दा मानलिया था क्यूंकि इंडिया अंगेस्ट करप्शन  का जो मुहीम चली थी  अन्ना  के नेतृतव में,  वह प्रान्त दिल्ली हैं जिस कदर उस आंदोलन का   प्रचार -प्रसार हुआ था और उस प्रान्त के जनता  बढ़ चढ़ कर उस आंदोलन में अपनी रूचि दिखाई थी , उस आंदोलन में  जनता के जो आक्रोश थे दिल्ली के चुनाव में देखने को मिला, हुआ यूँ कि  कांग्रेस के विरुद्ध में उन्होंने AAP को अपना  विकल्प मान कर उनको वोट दिया।  परन्तु  अरविन्द केजरीवाल के लिए  अब आसान नहीं होगा  जो उन्होंने मैनिफेस्टो जनता समक्ष रखा हैं पूरा करे अन्यथा पुनः  इस तरह  के कामयाबी मिलना  भविष्य में शायद नसीब ना हो ।  दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत होगी सरकार बनाने में क्यूंकि कि एक भी पार्टी बहुमत के जादुई आकड़े को छू नहीं पायी हैं।AAP यदि कांग्रेस से समर्थन लेगी तो उनके साख पर बट्टा लगनी तय है, बीजेपी और AAP ना  एक दूसरे समर्थन दे सकती अथवा ना ले सकती हैं जबकि अन्य के खाते में सिर्फ दो शीट हैं जो सरकार  बनबाने के लिए नाकाफी।अब देखना है कि दुवारा चुनाव के लिए जायेंगे या जोर-तोड़ राजनीती करेंगे , जो भी हो पर दिल्ली प्रदेश को मजबूत  सरकार मिलने का कोई आसार नहीं।

 यदि जातिवाद, महज़ब को पीछे छोड़कर जनता वोट करेंगे तो शायद दिल्ली की  तरह ही  अन्य प्रान्त में  चुनाव देखने को मिलेगा।  यदि राजस्थान और मध्य प्रदेश कि बात करते हैं ये जरुर ध्यान देनेवाली बात हैं इस बार अल्पसंख्यक  ने बीजेपी को वोट दिया इसीका नतीजा हैं कि बीजेपी ने बहुत बड़ी जीत दोनों राज्यो में दर्ज की।

इस लोकतांत्रिक व्यबस्था में जनता तानासाह को ज्यादा दिन तक बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं , ऐसी परस्थिति में राष्टीय पार्टी के लिए बड़ी  चुनौती होगी कि अपनी साख को जीवित रखे और  इसके लिए एक व्यक्ति यानि प्रान्त के मुख्यमंत्री के वजाय सरकार की लेखा जोखा पार्टी के पार्लियामेन्टरी  कमिटी को अपनी हाथ में रखनी चाहिए। ताकि व्यक्ति विशेष पार्टी  के ऊपर हावी  कभी ना  हो  और राष्टीय कोर कमिटी की पकड़ और दखलंदाजी हमेशा  कायम रहे,  ये पार्टी के साथ साथ जनता के पक्ष में भी हितकर हैं। इसके लिए पार्टी के आलाकमान को चाहिए कि एक गुप्त  कमिटी (committee) को गठित करे जो सरकार और जनता के बीच में समन्वय का आकलन करता रहे  और इसेके बारे में  समय समय पर पार्टी के कोर कमिटी को अवगत कराता  रहे। इससे ना कि जनता कि दिक्कत  से रुबरु होते रहेंगे  ब्लिक सरकार भी जो लाभकारी योजनाए चला रहे हैं, उसके भी उपलब्धियाँ को मापा जा सकता है।सबसे बड़ी बात ये भी निकल कर सामने आयेगी कि जनप्रतिनिधि के लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर  है या नीचे जिससे अगले चुनाव में टिकेट देने में जड़ा भी परेशानी का सामना ना  करना पड़े।

 खासकर ये बात बीजेपी के आलाकमान के लिए ज्यादा उपयोगी होगी जो कई बार जनता के नब्ज़ को ततलोने में असफल रहे है।  २००४ के लोक सभा के आम चुनाव सबसे बढियां उदहारण दिया जा सकता हैं, जो बीजेपी चाह कर भी नहीं भूल सकती हैं। पार्टी के हाईटेक लीडर ने जल्दबाजी में चुनाव करवाने कि हामी भरी क्यूंकि उनको लग रहा था कि जनता इंडिया शाइनिंग के चकाचोंध में चौंधिया जायेगी लेकिन उसके उलट हुए बदले में  सत्ता से बेदखल हो गए। आज सोशल नेटवर्क और मीडिया इतना सक्रिय हैं कि जनता को हसींन सपना दिखाकर ज्यादा दिन तक अँधेरे में नहीं रख सकते क्यूंकि पलक छपकते ही  आपके सभी  काम काज का हिसाब किताब जनता यूँ ही  बड़ी आसानी से खोज निकालते।

जनता यदि आपको  मोका देती हैं तो आपका भी मोरल रिस्पांसिबिलिटी बनता हैं कि जनता के उम्मीद पर आप खड़े उतरे परन्तु ऐसा होता नहीं इसका मुख्या वजह कि बात करेंगे तो जनता और सरकार के बीच में कम्युनिकेशन की  कमी हैं उस कमी  को सत्ताधारी पार्टी कम करना चाहेगी तो बिना किसी दुर्लभता से कम कर सकती हैं पर इसके लिए दीर्घ  इच्छाशक्ति की  जरुरत होगी। इनदिनों योजनाये तो बहुत हैं पर डिस्ट्रीब्यूशन मैनजमेंट के आभाव में ज्यादा कारगर नहीं हैं नतीजन जनता में असंतोष कि भावनाए हैं।  कई ऐसे योजनाये जो प्रॉपर इम्प्लीमेंटेशन के आभाव में भर्ष्टाचार के भेंट चढ़ गयी।  दावे तू सभी पार्टी करती हैं सुशान और विकासशील  सरकार देने कि पर जब एक बार सरकार बन जाती हैं उसके उपरान्त सभी दावें भूलकर अपनी सग्गे सम्बन्धियों और ईद-गिर्द के लोगो खुश करने में जुट जाते हैं इसका हर्ष ये होता हैं कि अगले चुनाव में जनता उनको कुर्सी से उतार कर अपनी खीश जाहिर करती है।  जनता भी सो फीसीदी की आकांक्षा नहीं करते पर कम से कम सत्तर फीसीदी तो रखते ही हैं जिसे आपका दायित्व होता कि उसको पूरा करे अन्यथा ये भूल जाये कि जनता की  आखिरी विकल्प आप ही है।  इसका कई उदहारण इतिहास में दर्ज हैं जबभी  सत्ताधारी पार्टी को लगी हो कि पार्टी के आलावा आवाम को दूसरा विकल्प नहीं हैं बदले में सत्ता से बेदखल हो गयी।  १९७७ , १९८९ जंहा केंद्र सरकार के लिए सबक़ वही कई राज्य में राष्टीय पार्टी का यही हर्ष हुआ है।

जनता आज कई रोजमर्रा के समस्याओ से झुंज रही हैं  जैसे मंहगाई, भर्ष्टाचार, अफसरसाही और आर्थिक विकास में धीमापन, इन समस्याओ से निजात दिलवाने के लिए जनता पॉजिटिव एंड गुड गवर्मेंट कि अपेक्षा करती  हैं , इस विषम परिस्थिति में राजनीतिपार्टी को चाहिए कि खुदो को साबित करे वही जनता के सोच  के अनुकूल सरकार देगी। अब वे दिन दूर नहीं जब जनता सिर्फ और सिर्फ विकास को ही अपनी मूल मुद्दा मानेगी उदाहरणस्वरूप   बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश  जंहा  केवल जाति और महज़ब के आधार पर वोट दिया जाता था  पर अब ऐसा नहीं हैं।  इसी तरह का चमत्कार उत्तर प्रदेश में भी आगामी चुनाव में देखने को मिलेगा। जहाँतक जनता के नजरिया कि बात करेंगे तो काफी बदलाव हुए हैं और बदलाव के और भी गुंजाइश हैं, पर राजनितिक पार्टी कब तक पुराणी ढर्रे पर चलेंगे और आखिर  कब तक  जाति, महज़ब को चुनावी मुद्दा बनाने से परहेज ना करेंगे।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013


आओ चले मतदान करे.………
गुमनामी से  बाहर आकर
चलो अपना पहचान करे
आओ चले मतदान करे
आओ चले मतदान करे.………
नव पथ को परस्त कर
हर बाँधा को निरस्त कर
जन शक्ति का संज्ञान धरे
 आओ चले मतदान करे.………
ये लोकतंत्र का हैं महापर्व
जिस अधिकार पर हैं हमको गर्व
उनका सम्मान करे
आओ चले मतदान करे.………
करके याद उन वीर जवानो को
साकार करे उनके अरमानो को
उनकी कुर्बानी का गुणगान करे
आओ चले मतदान करे.………
बड़े अर्शे के बाद आया हैं यह मौका
उनको सबक सिखाये जिसने हमको रोका
शसक्त राष्ट का निर्माण करे
आओ चले मतदान करे.………

रविवार, 1 दिसंबर 2013


 क्या तू - तू , मैं - मैं में नेता जनता के समक्ष चुनाव का मुद्दा रखना ही  भूल तो नहीं गए ?..........

पांच  राज्य में चुनाव के साथ दिल्ली की सिंहासन का जंग का आगाज़ हो गया हैं, अभी अंजाम का पता नहीं परन्तु  कोई  अचरज नहीं होगा कि चाहे कोई भी जीते -हारे पर चुनाव  मुद्दा विहीन होगा इसीलिए तो अभी तक  ना कोई विज़न  और ना ही कोई ऐसा मुद्दा राजनीत पार्टियाँ  जनता के समक्ष रख सके हैं  जिसका सीधे जनता से सरोकार हो। फिर भी इसकी सरगर्मी गॉँव  के खेत -खलियान से हो कर शहर के कॉर्पोरेट दफ़तर तक जा  पहुँची हैं ,  जिसे  बड़ी आसानी से  भाँपा जा सकता हैं। राजनीतीक दल अपने अपने अंक गणित और भूगोल सुधारने में अभी से लग गए हैं, जाति  और महज़ब की समीकरण बैठाया जा रहा हैं, कई गठजोड़ तोड़  रहे हैं तो कई गठजोड़ने के तांकझांक में लगे हैं। ये राजनीती का ऐसा महाकुम्भ हैं जिसमे हर कोई गोटा लगाने के लिए उत्शुक्ता से अग्रसर  हैं। चाहे  सोशल मीडिया हो या इलेकट्रोनिक मीडिया जोर-शोर इसके लिए इस्तेमाल किये जा रहे हैं। विपक्ष  जितना इस आगामी लोकसभा चुनाव के लिए  उतावले हैं उतना ही मौजूदा सरकार घबराये हुए हैं कि कुर्सी ना खिसक जाय । एक आम आदमी जो इस चुनाव के  मुख्य कीड़दार में होंगे  वे खामोश हैं, जो कि मतदान के दिन एकांतवास से निकलकर मतदान करने हेतु बुथ तक जाएंगे और वोट गिराकर फिर अगले पांच शाल तक एकांतवास हो लेंगे, यदि वोट गिराना मौलिक अधिकार ना  होता तो शायद इसको को भी नज़र-अंदाज कर देते। यदि आत्मंथन करेंगे तो इसका कई वजह हैं जैसे कि पिछली सरकार की नाकामयाबी , अयोग्य उम्मीदवारी, अपराध और धन का दखलअंदाजी  पर वास्तविक में मुद्दा ना  होना  मुख्य वज़ह माना जा सकता हैं।  जंहा तक निर्वाचन आयोग कि प्रयाश  को देखेंगे  तो कम नहीं  हैं  की आपरधिक छवि वाले को दूर रखा जाय पर यदि आंकड़े पर गौड़ फरमायेंगे तो इसकी जो तदाद वे तस से मस नहीं हो पा  रहे क्यूंकि हमारी सरकार हरगिज ये नहीं चाहती हैं कि आपरधिक छवि वाले उम्मीदवार पर नकेल कशा जाय। जँहा तक राजनीती दल  कि रुख कि बात करेंगे तो बेशक़ दावे जो भी करले लेकिन किसी को भी इनसे परहेज  नहीं हैं इसलिए तो २५-५० फिसदी ऐसे उम्मीदवार  को उतारते हैं चुनावी जंग में, क्यूंकि उनके  भी जहन में ये घर बना लिया हैं  कि बिना वांहूबल और धनबल के इस जंग पर फ़तेह नही किया जा सकता। बड़ी बड़ी रैलिया के बहाने  एक तरफ अपनी ताकत विरोधी दल  को दिखाते हैं, दूसरी तरफ  जनता के नब्ज़ को टटोलते हैं।  सभी पार्टी अनुशासन के  मापदंड को परवाह किये बिना उस लक्ष्मण रेखा को लाँघ रहे हैं जिसे शभ्य समाज किसी भी परस्थिति में स्वीकार नहीं सकते ।

लोकसभा चुनाव, जो  लोकतंत्र का  महापर्व  हैं, इनकी  तैयारीयाँ  चारो तरफ देखने को मिल रहे हैं पर मुद्दा क्या होगा इस चुनाव का, वे सुनने को नहीं मिल रहे हैं? उसी भांति जैसे कि हमने  दीवाली कि पूरी तैयारी कर ली पटाखे खरीद कर रख लिया, नाना प्रकार के पकवान बनाने कि सामग्री इकट्ठा कर ली पर दियाँ और बाटी लाना ही भूल गया हो, जो कि दीवाली त्यौहार के लिए सर्वोपरि हैं उसी प्रकार चुनाव  मुद्दा के आभाव में अनोपचारिक हैं । राजनीती दल का ही नहीं ब्लिक जनता को भी चुनाव का मुद्दा ढूढ़ना चाहिए और पक्ष और विपक्ष के पुरे पांच शाल का  कार्य का ब्यौरा को ना  कि इकट्ठा करना चाहिए ब्लिक उसकी बारकी से परखना भी चाहिए क्यूंकि उनकी एक वोट से अगले पांच के लिए ना कि हमारा, पुरे देश का  दिशा और  दशा  निर्भर हैं।  देश का विकाश में एक शशक्त सरकार कि अहम् भमिका  होती हैं इसलिए जब तक हम  देश को स्थिर और शशक्त सरकार नहीं देंगे तब तक ना खुदको मजबूत और ना ही अपने देश को मजबूत होते देखेंगे। सबसे बड़ी बात यह हैं कि राजनीती दल के  प्रचार- प्रशार पर ध्यान देने के वजाय उनके मुद्दा और कार्य शैली पर ध्यान देने कि जरूरत हैं। वेसे भी देश में मुद्दा का आभाव नहीं हैं जैसे कि  महंगाई, भ्रष्टाचार और विकाश कि धीमी रप्तार  जैसे कई , पर नेताओ की  चिकनी  चुपरी  झांसे में आने से खुदको रोके और मुद्दा को  चिंहित कर,  परख कर उन जन- प्रतिनिधि पर अपनी  मुहर लगाये जो हमारी और देश की  उम्मीद पर  खड़े  उतरे।
वैसे भी इस बार का चुनाव खाश होने जा रहे हैं क्यूंकि इस चुनाव के बाद, एक नहीं कई अनसुलझे  सवाल का जवाब इस देश को मिलेंगे जँहा एक तरफ धर्मनिरक्षपेता का ढिंढोरा पीटने वालें का गठजोड़ कि गुंजाइस हैं वही दूसरी तरफ विकाश की दोहाई देनेवालों की  पर हम जनमानस को ही आखिर में तय करना हैं कि कौन वह होगा जो देश की सारी  समस्या को निरस्त करके देश को  विश्व के प्रथम पंक्ति में जगह दिलवाएगा?

दरशल मुद्दा अहम्  कड़ी हैं जो ना कि राष्ट हित के लिए अनिवार्य ब्लिक माला की उस धागे का काम करेगा जो पुरे देश को एक शुत्र में फिरो  कर रखेगा।  यदि  एक मुद्दा को  पुरे आवाम अपनाता हैं तो क्षेत्रीय दल की भागीदारी को सिमित ही नहीं रखेगा ब्लिक उसे विवश भी  करेगा की वे राष्टीय दल के साथ आये, जिससे देश को मजबूत सरकार मिलगी । मुद्दा सही मायने में पार्टी और राष्ट दोनों के लिए हित कर  हैं जो कि एक तरफ दल और नेता को अनुशासित करेंगे जबकि दूसरी तरफ जनता को भी बाध्य करेंगे कि वे जाति और महज़ब को पीछे छोड़ कर एक ऐसी  सरकार की कल्पना करें जो राष्ट के प्रति समप्रित हो। इसलिए आखिरी में राजनीती दल और उनके नुमांयांदो  से अनूरोध करूँगा कि  आवाम को एक मुद्दा चाहिए क्यूंकि तु -तु , मैं- मैं की राजनीती से यँहा के जनता उब चुके हैं और अब इसका अंत चाहते हैं। अन्तः ताना बाना बुनने के वजाय, हमें मुद्दा दो जिसके आधार पर हम आपको चुने।